विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 17)
षड्लिंगस्वरूप प्रणव का माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (ॐकार) और स्थूल रूप (पंचाक्षरमन्त्र) का विवेचन, उसके जप की विधि एवं महिमा, कार्यब्रह्म के लोकों से लेकर कारणरुद्र के लोकों तक का विवेचन करके कालातीत, पंचावरणविशिष्ट शिवलोक के अनिर्वचनीय वैभव का निरूपण तथा शिव भक्तों के सत्कार की महत्ता
ऋषि बोले- प्रभो ! महामुने! आप हमारे लिये क्रमशः षड्लिंगस्वरूप प्रणव का माहात्म्य तथा शिवभक्त के पूजन का प्रकार बताइये । सूतजी ने कहा- महर्षियो! आप लोग तपस्या के धनी हैं, आपने यह बड़ा सुन्दर प्रश्न उपस्थित किया है। किंतु इसका ठीक-ठीक उत्तर महादेवजी ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं। तथापि भगवान् शिव की कृपा से ही मैं इस विषय का वर्णन करूँगा। वे भगवान् शिव हमारी और आप लोगों की रक्षा का भारी भार बारंबार स्वयं ही ग्रहण करें। (प्र’ नाम है प्रकृति से उत्पन्न संसार रूपी महासागर का । प्रणव इससे पार करने के लिये दूसरी (नव) नाव है। इसलिये इस ओंकार को ‘प्रणव’ की संज्ञा देते हैं। ॐकार अपने जप करने वाले साधकों से कहता है- ‘प्र-प्रपंच, न नहीं है, वः – तुम लोगों के लिये।’ अतः इस भाव को लेकर भी ज्ञानी पुरुष ‘ओम्’ को ‘प्रणव’ नाम से जानते हैं। इसका दूसरा भाव यों है ‘प्र-प्रकर्षेण न-नयेत् : दुष्मान् मोक्षम् इति या प्रणवः । अर्थात् यह तुम सब उपासकों को बलपूर्वक मोक्ष तक पहुंचा देगा।’ इस अभिप्राय से भी इसे ऋषि-मुनि ‘प्रणव’ कहते हैं। अपना जप करने वाले योगियों के तथा अपने मन्त्र की पूजा करने वाले उपासक के समस्त कर्मों का नाश करके यह दिव्य नूतन ज्ञान देता है; इसलिये भी इसका नाम प्रणव है। उन माया रहित महेश्वर को ही नव अर्थात् नूतन कहते हैं। वे परमात्मा प्रकृष्टरूप से नव अर्थात् शुद्धस्वरूप हैं, इसलिये ‘प्रणव’ कहलाते हैं || प्रणव साधक को नव अर्थात् नवीन (शिवस्वरूप) कर देता है। इसलिये भी विद्वान् पुरुष उसे प्रणव के नाम से जानते हैं। अथवा प्रकृष्टरूप से नव दिव्य परमात्मज्ञान प्रकट करता है, इसलिये वह प्रणव है ।। ( प्रणव के दो भेद बताये गये हैं स्थूल और सूक्ष्म । एक अक्षररूप जो ‘ओम्’ है, उसे सूक्ष्म प्रणव जानना चाहिये || और ‘नमः शिवाय’ इस पाँच अक्षर वाले मन्त्र को स्थूल प्रणव समझना चाहिये ।। जिसमें पाँच अक्षर व्यक्त नहीं हैं, वह सूक्ष्म है और जिसमें पाँचों अक्षर सुस्पष्ट रूप से व्यक्त हैं, वह स्थूल है। जीवन मुक्त पुरुष के लिये सूक्ष्म प्रणव के जप का विधान है। वही उसके लिये समस्त साधनों का सार है। (यद्यपि जीवन मुक्त के लिये किसी साधन की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह सिद्धरूप है,। तथापि दूसरों की दृष्टि में जब तक उसका शरीर रहता है, तब तक उसके द्वारा प्रणव जप की सहज साधना स्वतः होती रहती है।) वह अपनी देह का विलय होने तक सूक्ष्म प्रणव मन्त्र का जप और उसके अर्थभूत परमात्म-तत्त्व का अनुसंधान करता रहता है) जब शरीर नष्ट हो जाता है, तब वह पूर्ण ब्रह्मस्वरूप शिव को प्राप्त कर लेता है- यह सुनिश्चित बात है। जो अर्थ का अनुसंधान न करके केवल मन्त्र का जप करता है, उसे निश्चय ही योग की प्राप्ति होती है। जिसने छत्तीस करोड़ मन्त्र का जप कर लिया हो, उसे अवश्य ही योग प्राप्त हो जाता है। सूक्ष्म प्रणव के भी हस्व और दीर्घ के भेद से दो रूप जानने चाहिये। अकार, उकार, मकार, बिन्दु, नाद, शब्द, काल और कला – इनसे युक्त जो प्रणव है, उसे ‘दीर्घ प्रणव’ कहते हैं। वह योगियों के ही हृदय में स्थित होता है। मकार पर्यन्त जो ओम् है, वह अ उम् — इन तीन तत्त्वों से युक्त है । इसी को ‘ह्रस्व प्रणव’ कहते हैं। (अ’ शिव है, ‘उ’ शक्ति है और मकार इन दोनों की एकता है । वह त्रितत्त्वरूप है, ऐसा समझकर ह्रस्व प्रणव का जप करना चाहिये । जो अपने समस्त पापों का क्षय करना चाहते हैं, उनके लिये इस ह्रस्व प्रणव का जप अत्यन्त आवश्यक है। ) (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – ये पाँच भूत तथा शब्द, स्पर्श आदि इनके पाँच विषय – ये सब मिलकर दस वस्तुएँ मनुष्यों की कामना के विषय हैं। इनकी आशा मन में लेकर जो कर्मों के अनुष्ठान में संलग्न होते हैं, वे दस प्रकार के पुरुष प्रवृत्त (अथवा प्रवृत्तिमार्गी) कहलाते हैं तथा जो निष्काम भाव से शास्त्रविहित कर्मों का अनुष्ठान करते हैं, वे निवृत्त (अथवा निवृत्तिमार्गी) कहे गये हैं। प्रवृत्त पुरुषों को ह्रस्व प्रणव का ही जप करना चाहिये और निवृत्त पुरुषों को दीर्घ प्रणव का । व्याहृतियों तथा अन्य मन्त्रों के आदि में इच्छानुसार शब्द और कला से युक्त प्रणव का उच्चारण करना चाहिये। वेद के आदि में और दोनों संध्याओं की उपासना के समय भी ओंकार का उच्चारण करना चाहिये । प्रणव का नौ करोड़ जप करने से मनुष्य शुद्ध हो जाता है। फिर नौ करोड़ का जप करने से वह पृथ्वी तत्त्व पर विजय पा लेता है। तत्पश्चात् पुनः नौ करोड़ का जप करके वह जल तत्त्व को जीत लेता है। पुनः नौ करोड़ जप से अग्नि तत्त्व पर विजय पाता है। तदनन्तर फिर नौ करोड़ का जप करके वह वायु-तत्त्व पर विजयी होता है। फिर नौ करोड़ के जप से आकाश को अपने अधिकार में कर लेता है। इसी प्रकार नौ-नौ करोड़ का जप करके वह क्रमशः गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द पर विजय पाता है, इसके बाद फिर नौ करोड़ का जप करके अहंकार को भी जीत लेता है। इस तरह एक सौ आठ करोड़ प्रणव का जप करके उत्कृष्ट बोध को प्राप्त हुआ पुरुष शुद्ध योग का लाभ करता है। शुद्ध योग से युक्त होने पर वह जीवन मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है। सदा प्रणव का जप और प्रणवरूपी शिव का ध्यान करते-करते समाधि में स्थित हुआ महायोगी पुरुष साक्षात् शिव ही है, इसमें संशय नहीं है। पहले अपने शरीर में प्रणव के ऋषि, छन्द और देवता आदि का न्यास करके फिर जप आरम्भ करना चाहिये। अकारादि मातृ का वर्णों से युक्त प्रणव का अपने अंगों में न्यास करके मनुष्य ऋषि हो जाता है। मन्त्रों के दशविध संस्कार, मातृकान्यास तथा षडध्वशोधन आदि के साथ सम्पूर्ण न्यासफल उसे प्राप्त हो जाता है। प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति-निवृत्ति से मिश्रित भाव वाले पुरुषों के लिये स्थूल प्रणव का जप ही अभीष्ट साधक होता है। (क्रिया, तप और जप के योग से शिव योगी तीन प्रकार के होते हैं-जो क्रमशः क्रिया-योगी, तपो-योगी और जप-योगी कहलाते हैं। जो धन आदि वैभवों से पूजा सामग्री का संचय करके हाथ आदि अंगों से नमस्कारादि क्रिया करते हुए इष्टदेव की पूजा में लगा रहता है, वह ‘क्रियायोगी’ कहलाता है। पूजा में संलग्न रहकर जो परिमित भोजन करता, बाह्य इन्द्रियों को जीतकर वश में किये रहता और मन को भी वश में करके परद्रोह आदि से दूर रहता है, वह ‘तपोयोगी’ कहलाता है। इन सभी सद्गुणों से युक्त होकर जो सदा शुद्धभाव से रहता तथा समस्त काम आदि दोषों से रहित हो शान्तचित्त से निरन्तर जप किया करता है, उसे महात्मा पुरुष ‘जपयोगी’ मानते हैं) जो मनुष्य सोलह प्रकार के उपचारों से शिवयोगी महात्माओं की पूजा करता है, वह शुद्ध होकर सालोक्य आदि के क्रम से उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। द्विजो ! अब मैं जपयोग का वर्णन करता हूँ। तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो। तपस्या करने वाले के लिये जप का उपदेश किया गया है; क्योंकि वह जप करते करते अपने-आपको सर्वथा शुद्ध (निष्पाप ) कर लेता है। ब्राह्मणो ! पहले ‘नमः’ पद हो, उसके बाद चतुर्थी विभक्ति में ‘शिव’ शब्द हो तो पंचतत्त्वात्मक ‘नमः शिवाय’ मन्त्र होता है। इसे ‘शिव-पंचाक्षर’ कहते हैं। यह स्थूल प्रणवरूप है। इस पंचाक्षर के जप से ही मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। पंचाक्षरमन्त्र के आदि में ओंकार लगाकर ही सदा उसका जप करना चाहिये । द्विजो ! गुरु के मुख से पंचाक्षरमन्त्र का उपदेश पाकर जहाँ सुखपूर्वक निवास किया जा सके, ऐसी उत्तम भूमिपर महीने के पूर्वपक्ष (शुक्ल) में (प्रतिपदासे) आरम्भ करके कृष्ण पक्ष की चतुर्दशीतक निरन्तर जप करता रहे। माघ और भादों के महीने अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं। यह समय सब समयों से उत्तमोत्तम माना गया है। साधक को चाहिये कि वह प्रतिदिन एक बार परिमित भोजन करे, मौन रहे, इन्द्रियों को वश में रखे, अपने स्वामी एवं माता-पिता की नित्य सेवा करे। इस नियम से रहकर जप करने वाला पुरुष एक सहस्त्र जप से ही शुद्ध हो जाता है, अन्यथा वह ऋणी होता है। भगवान् शिव का निरन्तर चिन्तन करते हुए पंचाक्षरमन्त्र का पाँच लाख जप करे। जप काल में इस प्रकार ध्यान करे। कल्याणदाता भगवान् शिव कमल के आसनपर विराजमान हैं। उनका मस्तक श्रीगंगाजी तथा चन्द्रमा की कला से सुशोभित है। उनकी बायीं जाँघ पर आदिशक्ति भगवती उमा बैठी हैं। वहाँ खड़े हुए बड़े-बड़े गण भगवान् शिवकी शोभा बढ़ा रहे हैं। महादेव जी अपने चार हाथों में मृगमुद्रा, टंक तथा वर एवं अभय की मुद्राएँ धारण किये हुए हैं। इस प्रकार सदा सबपर अनुग्रह करने वाले भगवान् सदाशिव का बारंबार स्मरण करते हुए हृदय अथवा सूर्यमण्डल में पहले उनकी मानसिक पूजा करके फिर पूर्वाभिमुख हो पूर्वोक्त पंचाक्षरी विद्या का जप करे। उन दिनों साधक सदा शुद्ध कर्म ही करे (और दुष्कर्मसे बचा रहे)। जप की समाप्ति के दिन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को प्रातःकाल नित्यकर्म करके शुद्ध एवं सुन्दर स्थान में शौच- संतोषादि नियमों से युक्त हो शुद्ध हृदय से पंचाक्षरमन्त्र का बारह सहस्त्र जप करे। तत्पश्चात् पाँच सपत्नीक ब्राह्मणों का, जो श्रेष्ठ एवं शिवभक्त हों, वरण करे। इनके अतिरिक्त एक श्रेष्ठ आचार्यप्रवर का भी वरण करे और उसे साम्ब सदाशिव का स्वरूप समझे। ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात – इन पाँचों के प्रतीक स्वरूप पाँच ही श्रेष्ठ और शिवभक्त ब्राह्मणों का वरण करने के पश्चात् पूजन सामग्री को एकत्र करके भगवान् शिव का पूजन आरम्भ करे। विधिपूर्वक शिव की पूजा सम्पन्न करके होम आरम्भ करे। अपने गृह्यसूत्र के अनुसार सुखान्त कर्म करके अर्थात् परिसमूहन, उपलेपन, उल्लेखन, मृद् – उद्धरण और अभ्युक्षण इन पंच भू-संस्कारों के पश्चात् वेदीपर स्वाभिमुख अग्नि को स्थापित करके कुशकण्डिका के अनन्तर प्रज्वलित अग्नि में आज्यभागान्त आहुति देकर प्रस्तुत होम का कार्य आरम्भ करे। कपिला गाय के घी से ग्यारह, एक सौ एक अथवा एक हजार एक आहुतियाँ स्वयं ही दे अथवा विद्वान् पुरुष शिवभक्त ब्राह्मणों से एक सौ आठ आहुतियाँ दिलाये। होमकर्म समाप्त होने पर गुरु को दक्षिणा के रूप में एक गाय और बैल देने चाहिये। ईशान आदि के प्रतीकरूप जिन पाँच ब्राह्मणों का वरण किया गया हो, उनको ईशान आदि का स्वरूप ही समझे तथा आचार्य को साम्ब सदाशिव का स्वरूप माने। इसी भावना के साथ उन सबके चरण धोये और उनके चरणोदक से अपने मस्तक को सींचे। ऐसा करने से वह साधक अगणित तीर्थों में तत्काल स्नान करने का फल प्राप्त कर लेता है। उन ब्राह्मणों को भक्तिपूर्वक दशांश अन्न देना चाहिये। गुरुपत्नी को पराशक्ति मानकर उनका भी पूजन करे। ईशानादि-क्रम से उन सभी ब्राह्मणों का उत्तम अन्न से पूजन करके अपने वैभव-विस्तार के अनुसार रुद्राक्ष, वस्त्र, बड़ा और पूआ आदि अर्पित करे। तदनन्तर दिक्पालादि को बलि देकर ब्राह्मणों को भरपूर भोजन कराये। इसके बाद देवेश्वर शिव से प्रार्थना करके अपना जप समाप्त करे। इस प्रकार पुरश्चरण करके मनुष्य उस मन्त्र को सिद्ध कर लेता है। फिर पाँच लाख जप करने से समस्त पापों का नाश हो जाता है। तदनन्तर पुनः पाँच लाख जप करने पर अतल से लेकर सत्यलोक तक चौदहों भुवनों पर क्रमशः अधिकार प्राप्त हो जाता है। यदि अनुष्ठान पूर्ण होने के पहले बीच में ही साधक की मृत्यु हो जाय तो वह परलोक में उत्तम भोग भोगने के पश्चात् पुनः पृथ्वीपर जन्म लेकर पंचाक्षरमन्त्र के जपका अनुष्ठान करता है। समस्त लोकों का ऐश्वर्य पानेके पश्चात् वह मन्त्र को सिद्ध करनेवाला पुरुष यदि पुनः पाँच लाख जप करे तो उसे ब्रह्माजी का सामीप्य प्राप्त होता है। पुनः पाँच लाख जप करने से सारूप्य नामक ऐश्वर्य प्राप्त होता है। सौ लाख जप करने से वह साक्षात् ब्रह्मा के समान हो जाता है। इस तरह कार्य -ब्रह्म (हिरण्यगर्भ ) – का सायुज्य प्राप्त करके वह उस ब्रह्मा का प्रलय होने तक उस लोक में यथेष्ट भोग भोगता है। फिर दूसरे कल्प का आरम्भ होनेपर वह ब्रह्माजी का पुत्र होता है। उस समय फिर तपस्या करके दिव्य तेज से प्रकाशित हो वह क्रमशः मुक्त हो जाता है। पृथ्वी आदि कार्यस्वरूप भूतों द्वारा पाताल से लेकर सत्यलोकपर्यन्त ब्रह्माजी के चौदह लोक क्रमशः निर्मित हुए हैं। सत्यलोक से ऊपर क्षमालोक तक जो चौदह भुवन हैं, वे भगवान् विष्णु के लोक हैं। क्षमालोक से ऊपर शुचिलोकपर्यन्त अट्ठाईस भुवन स्थित हैं। शुचिलोक के अन्तर्गत कैलास में प्राणियों का संहार करने वाले रुद्रदेव विराजमान हैं। शुचिलोक से ऊपर अहिंसालोकपर्यन्त छप्पन भुवनों की स्थिति है। अहिंसालोक का आश्रय लेकर जो ज्ञानकैलास नामक नगर शोभा पाता है, उसमें कार्यभूत महेश्वर सबको अदृश्य करके रहते हैं। अहिंसालोक के अन्तमें कालचक्र की स्थिति है। यहाँ तक महेश्वर के विराट् – स्वरूप का वर्णन किया गया। वहीं तक लोकों का तिरोधान अथवा लय होता है। उससे नीचे कर्मों का भोग है और उससे ऊपर ज्ञान का भोग । उसके नीचे कर्ममाया है और उसके ऊपर ज्ञानमाया । ( अब मैं कर्ममाया और ज्ञानमायाका तात्पर्य बता रहा हूँ- ) ‘मा’ का अर्थ है लक्ष्मी । उससे कर्मभोग यात—प्राप्त होता है। इसलिये वह माया अथवा कर्ममाया कहलाती है। इसी तरह मा अर्थात् लक्ष्मी से ज्ञानभोग यात अर्थात् प्राप्त होता है। इसलिये उसे माया या ज्ञानमाया कहा गया है। उपर्युक्त सीमा से नीचे नश्वर भोग हैं और ऊपर नित्य भोग। उससे नीचे ही तिरोधान अथवा लय है, ऊपर नहीं । वहाँ से नीचे ही कर्ममय पाशोंद्वारा बन्धन होता है। ऊपर बन्धन का सदा अभाव है। उससे नीचे ही जीव सकाम कर्मों का अनुसरण करते हुए विभिन्न लोकों और योनियों में चक्कर काटते हैं। उससे ऊपर के लोकों में निष्काम कर्म का ही भोग बताया गया है। बिन्दुपूजा में तत्पर रहने वाले उपासक वहाँ से नीचे के लोकों में ही घूमते हैं। उसके ऊपर तो निष्काम भाव से शिवलिंग की पूजा करने वाले उपासक ही जाते हैं। जो एकमात्र शिव की ही उपासना में तत्पर हैं, वे उससे ऊपर के लोकों में जाते हैं। वहाँ से नीचे जीवकोटि है और ऊपर ईश्वरकोटि । नीचे संसारी जीव रहते हैं और ऊपर मुक्त पुरुष । नीचे कर्मलोक है और ऊपर ज्ञानलोक । ऊपर मद और अहंकार का नाश करने वाली नम्रता है, वहाँ जन्मजनित तिरोधान नहीं है। उसका निवारण किये बिना वहाँ किसी का प्रवेश सम्भव नहीं है। इस प्रकार तिरोधान का निवारण करने से वहाँ ज्ञानशब्द का अर्थ ही प्रकाशित होता है। आधिभौतिक पूजा करने वाले लोग उससे नीचे के लोकों में ही चक्कर काटते हैं। जो आध्यात्मिक उपासना करने वाले हैं वे ही उससे ऊपर को जाते हैं। जो सत्य, अहिंसा आदि धर्मो से युक्त हो भगवान् शिव के पूजन में तत्पर रहते हैं, वे कालचक्र को पार कर जाते हैं। काल चक्रेश्वर की सीमातक जो विराट् महेश्वरलोक बताया गया है, उससे ऊपर वृषभ के आकार में धर्म की स्थिति है। वह ब्रह्मचर्य का मूर्तिमान् रूप हैं। उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दया- ये चार पाद हैं। वह साक्षात् शिवलोक के द्वार पर खड़ा है। क्षमा उसके सींग हैं, शम कान है, वह वेदध्वनिरूपी शब्द से विभूषित है। आस्तिकता उसके दोनों नेत्र हैं, विश्वास ही उसकी श्रेष्ठ बुद्धि एवं मन है। क्रिया आदि धर्मरूपी जो वृषभ हैं, वे कारण आदि में स्थित हैं—ऐसा जानना चाहिये। उस क्रियारूप वृषभाकार धर्म पर कालातीत शिव आरूढ़ होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर की जो अपनी-अपनी आयु है, उसी को दिन कहते हैं। जहाँ धर्मरूपी वृषभ की स्थिति है, उससे ऊपर न दिन है न रात्रि। वहाँ जन्म-मरण आदि भी नहीं हैं। वहाँ फिर से कारणस्वरूप ब्रह्मा के कारण सत्यलोकपर्यन्त चौदह लोक स्थित हैं, जो पांचभौतिक गन्ध आदि से परे हैं। उनकी सनातन स्थिति है। सूक्ष्म गन्ध ही उनका स्वरूप है। उनसे ऊपर फिर कारणरूप विष्णु के चौदह लोक स्थित हैं। उनसे भी ऊपर फिर कारणरूपी रुद्र के अट्ठाईस लोकों की स्थिति मानी गयी है। फिर उनसे भी ऊपर कारणेश शिव के छप्पन लोक विद्यमान हैं। तदनन्तर शिवसम्मत ब्रह्मचर्यलोक है और वहीं पाँच आवरणों से युक्त ज्ञानमय कैलास है, जहाँ पाँच मण्डलों, पाँच ब्रह्मकलाओं और आदिशक्ति से संयुक्त आदिलिंग प्रतिष्ठित है। उसे परमात्मा शिव का शिवालय कहा गया है। वहीं पराशक्ति से युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं। वे सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह-इन पाँचों कृत्यों में प्रवीण हैं। उनका श्रीविग्रह सच्चिदानन्दस्वरूप है। वे सदा ध्यानरूपी धर्म में ही स्थित रहते हैं और सदा सबपर अनुग्रह किया करते हैं। वे स्वात्माराम हैं और समाधिरूपी आसन पर आसीन हो नित्य विराजमान होते हैं। कर्म एवं ध्यान आदि का अनुष्ठान करने से क्रमशः साधनपथ में आगे बढ़ने पर उनका दर्शन साध्य होता है। नित्य नैमित्तिक आदि कर्मों द्वारा देवताओं का यजन करने से भगवान् शिव के समाराधन कर्म में मन लगता है। क्रिया आदि जो शिवसम्बन्धी कर्म हैं, उनके द्वारा शिवज्ञान सिद्ध करे। जिन्होंने शिवतत्त्व का साक्षात्कार कर लिया है अथवा जिनपर शिव की कृपादृष्टि पड़ चुकी है, वे सब मुक्त ही हैं— इसमें संशय नहीं है। आत्मस्वरूप से जो स्थिति है, वही मुक्ति है। एकमात्र अपने आत्मा में रमण या आनन्द का अनुभव करना ही मुक्ति का स्वरूप है। जो पुरुष क्रिया, तप, जप, ज्ञान और ध्यानरूपी धर्मो में भलीभाँति स्थित है, वह शिव का साक्षात्कार करके स्वात्मारामत्वरूप मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है जैसे सूर्यदेव अपनी किरणों से अशुद्धिको दूर कर देते हैं, उसी प्रकार कृपा करने में कुशल भगवान् शिव अपने भक्त के अज्ञान को मिटा देते हैं। अज्ञान की निवृत्ति हो जानेपर शिवज्ञान स्वतः प्रकट हो जाता है। शिवज्ञान से अपना विशुद्ध स्वरूप आत्मारामत्व प्राप्त होता है और आत्मारामत्व की सम्यक् सिद्धि हो जानेपर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है। इस तरह यहाँ जो कुछ बताया गया है वह पहले मुझे गुरुपरम्परा से प्राप्त हुआ था। तत्पश्चात् मैंने पुनः नन्दीश्वर के मुख से इस विषय को सुना था । नन्दिस्थान से परे जो स्वसंवेद्य शिव-वैभव है, उसका अनुभव केवल भगवान् शिव को ही है। साक्षात् शिवलोक के उस वैभव का ज्ञान सबको शिव की कृपा से ही हो सकता है, अन्यथा नहीं – ऐसा आस्तिक पुरुषों का कथन है। साधक को चाहिये कि वह पाँच लाख जप करने के पश्चात् भगवान् शिव की प्रसन्नता के लिये महाभिषेक एवं नैवेद्य निवेदन करके शिवभक्तों का पूजन करे। भक्त की पूजा से भगवान् शिव बहुत प्रसन्न होते हैं। शिव और उनके भक्त में कोई भेद नहीं है। वह साक्षात् शिवस्वरूप ही है। शिवस्वरूप मन्त्र को धारण करके वह शिव ही हो गया रहता है। शिवभक्त का शरीर शिवरूप ही है। अतः उसकी सेवा में तत्पर रहना चाहिये। जो शिव के भक्त है, वे लोक और वेद की सारी क्रियाओं को जानते हैं। जो क्रमशः जितना-जितना शिवमन्त्र का जप कर लेता है, उसके शरीर को उतना ही उतना शिवका सामीप्य प्राप्त होता जाता है, इसमें संशय नहीं है। शिवभक्त स्त्री का रूप देवी पार्वती का ही स्वरूप है। वह जितना मन्त्र जपती है, उसे उतना ही देवी का सांनिध्य प्राप्त होता जाता है। साधक स्वयं शिवस्वरूप होकर पराशक्ति का पूजन करे। शक्ति, वेर तथा लिंग का चित्र बनाकर अथवा मिट्टी आदि से इनकी आकृति का निर्माण करके प्राणप्रतिष्ठापूर्वक निष्कपट भाव से इनका पूजन करे। शिवलिंग को शिव मानकर, अपने को शक्तिरूप समझकर, शक्तिलिंग को देवी मानकर और अपने को शिवरूप समझकर, शिवलिंग को नादरूप तथा शक्ति को बिन्दुरूप मानकर परस्पर सटे हुए शक्तिलिंग और शिवलिंग के प्रति हुए उपप्रधान और प्रधान की भावना रखते जो शिव और शक्ति का पूजन करता है, वह मूलरूप की भावना करने के कारण शिवरूप ही है। शिवभक्त शिव-मन्त्ररूप होने के कारण शिव के ही स्वरूप हैं। जो सोलह उपचारों से उनकी पूजा करता है, उसे अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होती है। जो शिवलिंगोपासक शिवभक्त की सेवा आदि करके उसे आनन्द प्रदान करता है, उस विद्वान पर भगवान् शिव बड़े प्रसन्न होते हैं। पाँच, दस या सौ सपत्नीक शिवभक्तों को बुलाकर भोजन आदि के द्वारा पत्नी सहित उनका सदैव समादर करे। धन में, देह में और मन्त्र में शिव भावना रखते हुए उन्हें शिव और शक्ति का स्वरूप जानकर निष्कपट भाव से उनकी पूजा करे। ऐसा करने वाला पुरुष इस भूतल पर फिर जन्म नहीं लेता।
(अध्याय १७)
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