(प्रथम स्कन्ध) सातवाँ अध्याय
अश्वत्थामा द्वारा द्रौपदी के पुत्रों का मारा जाना और अर्जुन के द्वारा अश्वत्थामा का मानमर्दन
श्रीशौनकजी ने पूछा– सूतजी ! सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् व्यास भगवान ने नारदजी का अभिप्राय सुन लिया। फिर उनके चले जाने पर उन्होंने क्या किया ? ॥१॥ श्रीसूतजी ने कहा– ब्रह्मनदी सरस्वती के पश्चिम तटपर शम्याप्रास नाम का एक आश्रम है। वहाँ ऋषियों के यज्ञ चलते ही रहते हैं ॥ २ ॥ वहीं व्यासजी का अपना आश्रम है। उसके चारों ओर बेर का सुन्दर वन है। उस आश्रम में बैठकर उन्होंने आचमन किया और स्वयं अपने मन को समाहित किया ॥ ३ ॥ उन्होंने भक्तियोग के द्वारा अपने मन को पूर्णतया एकाग्र और निर्मल करके आदि पुरुष परमात्मा और उनके आश्रय से रहने वाली माया को देखा ॥ ४ ॥ इसी माया से मोहित होकर यह जीव तीनों गुणों से अतीत होनेपर भी अपने को त्रिगुणात्मक मान लेता है और इस मान्यता के कारण होने वाले अनर्थों को भोगता है ॥ ५ ॥ इन अनर्थों की शान्ति का साक्षात् साधन है— केवल भगवान का भक्तियोग । परन्तु संसार के लोग इस बात को नहीं जानते । यही समझकर उन्होंने इस परमहंसों की संहिता श्रीमद्भागवत की रचना की ॥ ६ ॥ इसके श्रवणमात्र से पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति परम प्रेममयी भक्ति हो जाती है, जिससे जीव के शोक, मोह और भय नष्ट हो जाते हैं॥ ७ ॥ उन्होंने इस भागवत- संहिता का निर्माण और पुनरावृत्ति करके इसे अपने निवृत्ति परायण पुत्र श्रीशुकदेवजी को पढ़ाया ॥ ८ ॥ श्रीशौनकजी ने पूछा— श्रीशुकदेव जी तो अत्यन्त निवृत्ति परायण हैं, उन्हें किसी भी वस्तु की अपेक्षा नहीं है। वे सदा आत्मा में ही रमण करते हैं। फिर उन्होंने किस लिये इस विशाल ग्रन्थ का अध्ययन किया ? ॥ ९ ॥ श्रीसूतजी ने कहा– जो लोग ज्ञानी हैं, जिनकी अविद्या की गाँठ खुल गयी है और जो सदा आत्मा में ही रमण करने वाले हैं, वे भी भगवान् की हेतुरहित भक्ति किया करते हैं; क्योंकि भगवान के गुण ही ऐसे मधुर हैं, जो सबको अपनी ओर खींच लेते हैं ॥ १० ॥ फिर श्रीशुकदेव जी तो भगवान् के भक्तों के अत्यन्त प्रिय और स्वयं भगवान् वेदव्यास के पुत्र हैं। भगवान के गुणों ने उनके हृदय को अपनी ओर खींच लिया और उन्होंने उससे विवश होकर ही इस विशाल ग्रन्थ का अध्ययन किया ॥ ११ ॥ शौनकजी ! अब मैं राजर्षि परीक्षित के जन्म, कर्म और मोक्ष की तथा पाण्डवों के स्वर्गारोहण की कथा कहता हूँ; क्योंकि इन्हीं से भगवान् श्रीकृष्ण की अनेकों कथाओं का उदय होता है ॥ १२ ॥ जिस समय महाभारत युद्ध में कौरव और पाण्डव दोनों पक्षों के बहुत से वीर, वीरगति को प्राप्त हो चुके थे और भीमसेन की गदा के प्रहार से दुर्योधन की जाँघ टूट चुकी थी, तब अश्वत्थामा ने अपने स्वामी दुर्योधन का प्रिय कार्य समझकर द्रौपदी के सोते हुए पुत्रों के सिर काटकर उसे भेंट किये, यह घटना दुर्योधन को भी अप्रिय ही लगी; क्योंकि ऐसे नीच कर्म की सभी निन्दा करते हैं ।। १३-१४ ॥ उन बालकों की माता द्रौपदी अपने पुत्रों का निधन सुनकर अत्यन्त दुःखी हो गयी । उसकी आँखों में आँसू छलछला आये – वह रोने लगी। अर्जुन ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा ॥ १५ ॥
कल्याणि । मैं तुम्हारे आँसू तब पोंछुगा, जब उस आततायी ब्राह्मणाधम का सिर गाण्डीव धनुष के बाणों से काटकर तुम्हें भेंट करूँगा और पुत्रों की अन्त्येष्टि क्रिया के बाद तुम उसपर पैर रखकर स्नान “करोगी’ ॥ १६ ॥ अर्जुन ने इन मीठी और विचित्र बातों से द्रौपदी को सान्त्वना दी और अपने मित्र भगवान् श्रीकृष्ण की सलाह से उन्हें सारथि बनाकर कवच धारण कर और अपने भयानक गाण्डीव धनुष को लेकर वे रथपर सवार हुए तथा गुरुपुत्र अश्वत्थामा के पीछे दौड़ पड़े ॥ १७ ॥ बच्चों की हत्या से अश्वत्थामा का भी मन उद्विग्न हो गया था। जब उसने दूर से ही देखा कि अर्जुन मेरी और झपटे हुए आ रहे हैं, तब वह अपने प्राणों की रक्षा के लिये पृथ्वी पर जहाँ तक भाग सकता था, रुद्र से भयभीत सूर्य की भाँति भागता रहा॥ १८॥ जब उसने देखा कि मेरे रथ के घोड़े थक गये हैं और मैं बिलकुल अकेला हूँ, तब उसने अपने को बचाने का एकमात्र साधन ब्रह्मास्त्र ही समझा ॥ १९ ॥ यद्यपि उसे ब्रह्मास्त्र को लौटाने की विधि मालूम न थी, फिर भी प्राण संकट देखकर उसने आचमन किया और ध्यानस्थ होकर ब्रह्मास्त्र का सन्धान किया ॥ २० ॥ उस अस्त्र से सब दिशाओं में एक बड़ा प्रचण्ड तेज फैल गया। अर्जुन ने देखा कि अब तो मेरे प्राणों पर ही आ बनी है, तब उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की ॥ २१ ॥ प्रथम अर्जुन ने कहा – श्रीकृष्ण ! तुम सच्चिदानन्द- स्वरूप परमात्मा हो। तुम्हारी शक्ति अनन्त है। तुम्हीं भक्तों को अभय देने वाले हो । जो संसार की धधकती हुई आग में जल रहे हैं, उन जीवों को उससे उबारने वाले एकमात्र तुम्हीं हो ॥ २२ ॥ तुम प्रकृति से परे रहने वाले आदिपुरुष साक्षात् परमेश्वर हो। अपनी चित्-शक्ति (स्वरूप- शक्ति) से बहिरंग एवं त्रिगुणमयी माया को दूर भगाकर अपने अद्वितीय स्वरूप में स्थित हो ॥ २३ ॥ वही तुम अपने प्रभाव से माया मोहित जीवों के लिये धर्मादिरूप कल्याण का विधान करते हो ॥ २४ ॥ तुम्हारा यह अवतार पृथ्वी का भार हरण करने के लिये और तुम्हारे अनन्य प्रेमी भक्तजनों के निरन्तर स्मरण ध्यान करने के लिये है ॥ २५ ॥ स्वयम्प्रकाशस्वरूप श्रीकृष्ण ! यह भयंकर तेज सब ओर से मेरी ओर आ रहा है। यह क्या है, कहाँ से, क्यों आ रहा है इसका मुझे बिलकुल पता नहीं है ! ॥ २६ ॥ भगवान ने कहा- अर्जुन ! यह अश्वत्थामा का चलाया हुआ ब्रह्मास्त्र है। यह बात समझ लो कि प्राण-संकट उपस्थित होने से उसने इसका प्रयोग तो कर दिया है, परन्तु वह इस अस्त्र को लौटाना नहीं जानता ॥ २७ ॥ किसी भी दूसरे अस्त्र में इसको दबा देने की शक्ति नहीं है। तुम शस्त्रास्त्र विद्या को भलीभाँति जानते ही हो, ब्रह्मास्त्र के तेज से ही इस ब्रह्मास्त्र की प्रचण्ड आग को बुझा दो ॥ २८ ॥ सूतजी कहते हैं— अर्जुन विपक्षी वीरों को मारने में बड़े प्रवीण थे। भगवान् की बात सुनकर उन्होंने आचमन किया और भगवान् की परिक्रमा करके ब्रह्मास्त्र के निवारण के लिये ब्रह्मास्त्र का ही सन्धान किया ॥ २९ ॥ बाणों से वेष्टित उन दोनों ब्रह्मास्त्रों के तेज प्रलयकालीन सूर्य एवं अग्नि के समान आपस में टकराकर सारे आकाश और दिशाओं में फैल गये और बढ़ने लगे ॥ ३० ॥ तीनों लोकों को जलाने वाली उन दोनों अस्त्रों की बढ़ी हुई लपटों से प्रजा जलने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकाल की सांवर्तक अग्नि है ॥ ३१ ॥ उस आग से प्रजा का और लोकों का नाश होते देखकर भगवान् की अनुमति से अर्जुन ने उन दोनों को ही लौटा लिया ॥ ३२ ॥ अर्जुन की आँखें क्रोध से लाल-लाल हो रही थीं। उन्होंने झपटकर उस क्रूर अश्वत्थामा को पकड़ लिया और जैसे कोई रस्सी से पशु को बाँध ले, वैसे ही बाँध लिया ॥ ३३ ॥ अश्वत्थामा को बलपूर्वक बाँधकर अर्जुन ने जब शिविर की ओर ले जाना चाहा, तब उनसे कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने कुपित होकर कहा— ॥ ३४ ॥ अर्जुन ! इस ब्राह्मणाधाम को छोड़ना ठीक नहीं है, इसको तो मार ही डालो। इसने रात में सोये हुए निरपराध बालकों की हत्या की है ॥ ३५ ॥ धर्मवेत्ता पुरुष असावधान, मतवाले, पागल, सोये हुए, बालक, स्त्री, विवेकज्ञानशून्य, शरणागत, रथहीन और भयभीत शत्रु को कभी नहीं मारते ॥ ३६ ॥ परन्तु जो दुष्ट और क्रूर पुरुष दूसरों को मारकर अपने प्राणों का पोषण करता है, उसका तो वध ही उसके लिये कल्याणकारी है; क्योंकि वैसी आदत को लेकर यदि वह जीता है तो और भी पाप करता है और उन पाप के कारण नरकगामी होता है ॥ ३७ ॥ फिर मेरे सामने ही तुमने द्रौपदी से प्रतिज्ञा की थी कि ‘मानवती! जिसने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है, उसका सिर मैं उतार लाऊँगा ‘ ॥ ३८ ॥ इस पापी कुलांगार आततायी ने तुम्हारे पुत्रों का वध किया है और अपने स्वामी दुर्योधन को भी दुःख पहुँचाया है। इसलिये अर्जुन! इसे मार ही डालो ॥ ३९ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन के धर्म की परीक्षा लेने के लिये इस प्रकार प्रेरणा की, परन्तु अर्जुन का हृदय महान् था। यद्यपि अश्वत्थामा ने उनके पुत्रों की हत्या की थी, फिर भी अर्जुन के मन में गुरुपुत्र को मारने की इच्छा नहीं हुई ॥ ४० ॥ इसके बाद अपने मित्र और सारथि श्रीकृष्ण के साथ वे अपने युद्ध-शिविर में पहुँचे। वहाँ अपने मृत पुत्रों के लिये शोक करती हुई द्रौपदी को उसे सौंप दिया ॥ ४१ ॥ द्रौपदी ने देखा कि अश्वत्थामा पशु की तरह बाँधकर लाया गया है। निन्दित कर्म करने के कारण उसका मुख नीचे की ओर झुका हुआ है। अपना अनिष्ट करने वाले गुरुपुत्र । अश्वत्थामा को इस प्रकार अपमानित देखकर द्रौपदी का कोमल हृदय कृपा से भर आया और उसने अश्वत्थामा को नमस्कार किया ॥ ४२ ॥ गुरुपुत्र का इस प्रकार बाँधकर लाया जाना सती द्रौपदी को सहन नहीं हुआ। उसने कहा- ‘छोड़ दो इन्हें, छोड़ दो’। ये ब्राह्मण हैं, हमलोगों के अत्यन्त पूजनीय हैं ॥ ४३ ॥ जिनकी कृपा से आपने रहस्य के साथ सारे धनुर्वेद और प्रयोग तथा उपसंहार के साथ सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है, वे आपके आचार्य द्रोण ही पुत्र के रूप में आपके सामने खड़े हैं। उनकी अर्धांगिनी कृपी अपने वीर पुत्र की ममता से ही अपने पति का अनुगमन नहीं कर सकीं, वे अभी जीवित हैं ॥। ४४-४५ ॥ महाभाग्यवान् आर्यपुत्र ! आप तो बड़े धर्मज्ञ हैं। जिस गुरुवंश की नित्य पूजा और वन्दना करनी चाहिये, उसी को व्यथा पहुँचाना आपके योग्य कार्य नहीं है ॥ ४६ ॥ जैसे अपने बच्चों के मर जाने से मैं दुःखी होकर रो रही हूँ और मेरी आँखों से बार-बार आँसू निकल रहे हैं, वैसे ही इनकी माता पतिव्रता गौतमी न रोयें ॥ ४७ ॥ जो उच्छृंखल राजा अपने कुकृत्यों से ब्राह्मणकुल को कुपित कर देते हैं, वह कुपित ब्राह्मणकुल उन राजाओं को सपरिवार शोकाग्नि में डालकर शीघ्र ही भस्म कर देता है’ ॥ ४८ ॥
सूतजीने कहा – शौनकादि ऋषियो ! द्रौपदी की बात धर्म और न्याय के अनुकूल थी। उसमें कपट नहीं था, करुणा और समता थी। अतएव राजा युधिष्ठिर ने रानी के इन हितभरे श्रेष्ठ वचनों का अभिनन्दन किया ॥ ४९ ॥ साथ ही नकुल, सहदेव, सात्यकि, अर्जुन, स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण और वहाँ पर उपस्थित सभी नर-नारियों ने द्रौपदी की बात का समर्थन किया ॥ ५० ॥ उस समय क्रोधित होकर भीमसेन ने कहा, ‘जिसने सोते हुए बच्चों को न अपने लिये और न अपने स्वामी के लिये, बल्कि व्यर्थ ही मार डाला, उसका तो वध ही उत्तम है’ ॥ ५१ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने द्रौपदी और भीमसेन की बात सुनकर और अर्जुन की ओर देखकर कुछ हँसते हुए-से कहा ॥ ५२ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण बोले- ‘पतित ब्राह्मण का भी वध नहीं करना चाहिये और आततायी को मार ही डालना चाहिये’ – शास्त्रों में मैंने ही ये दोनों बातें कही है। इसलिये मेरी दोनों ओंज्ञाओं का पालन करो ॥ ५३ ॥ तुमने द्रौपदी को सान्त्वना देते समय जो प्रतिज्ञा की थी उसे भी सत्य करो; साथ ही भीमसेन, द्रौपदी और मुझे जो प्रिय हो, वह भी करो ॥ ५४॥ सूतजी कहते हैं – अर्जुन भगवान के हृदय की बात तुरंत ताड़ गये और उन्होंने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर की मणि उसके बालों के साथ उतार ली ॥ ५५ ॥ बालकों की हत्या करने से वह श्रीहीन तो पहले ही हो गया था, अब मणि और ब्रह्मतेज से भी रहित हो गया। इसके बाद उन्होंने रस्सी का बन्धन खोलकर उसे शिविर से निकाल दिया ॥ ५६ ॥ मूँड देना, धन छीन लेना और स्थान से बाहर निकाल देना – यही ब्राह्मणाधमों का वध है। उनके लिये इससे भिन्न शारीरिक वध का विधान नहीं है॥५७॥ पुत्रों की मृत्यु से द्रौपदी और पाण्डव सभी शोकातुर हो रहे थे। अब उन्होंने अपने मरे हुए भाई-बन्धुओं की दाहादि अन्त्येष्टि क्रिया की ॥ ५८ ॥
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