रुद्रसंहिता, प्रथम (सृष्टि) खण्ड अध्याय 5
नारदजी का शिव तीर्थों में भ्रमण, शिवगणों को शापोद्धार की बात बताना तथा ब्रह्मलोक में जाकर ब्रह्माजी से शिवतत्त्व के विषय में प्रश्न करना
सूतजी कहते हैं- महर्षियो ! भगवान् श्रीहरि के अन्तर्धान हो जाने पर मुनिश्रेष्ठ नारद शिवलिंगों का भक्ति पूर्वक दर्शन करते हुए पृथ्वी पर विचरने लगे। ब्राह्मणो ! भूमण्डल पर घूम-फिरकर उन्होंने भोग और मोक्ष देने वाले बहुत-से शिवलिंगों का प्रेम पूर्वक दर्शन किया। दिव्यदर्शी नारदजी भूतल के तीर्थों में विचर रहे हैं और इस समय उनका चित्त शुद्ध है – यह जानकर वे दोनों शिवगण उनके पास गये। वे उनके दिये हुए शाप से उद्धार की इच्छा रखकर वहाँ गये थे। उन्होंने आदर पूर्वक मुनि के दोनों पैर पकड़ लिये और मस्तक झुकाकर भली-भाँति प्रणाम करके शीघ्र ही इस प्रकार कहा- शिवगण बोले- ब्रह्मन् ! हम दोनों शिव के गण हैं। मुने! हमने ही आपका अपराध किया है। राजकुमारी श्रीमती के स्वयंवर में आपका चित्त माया से मोहित हो रहा था । उस समय परमेश्वर की प्रेरणा से आपने हम दोनों को शाप दे दिया। वहाँ कुसमय जानकर हमने चुप रह जाना ही अपनी जीवन रक्षा का उपाय समझा। इसमें किसी का दोष नहीं है। हमें अपने कर्म का ही फल प्राप्त हुआ है। प्रभो! अब आप प्रसन्न होइये और हम दोनों पर अनुग्रह कीजिये । नारदजी ने कहा- आप दोनों महादेव जी के गण हैं और सत्पुरुषों के लिये परम सम्माननीय हैं। अतः मेरे मोह रहित एवं सुखदायक यथार्थ वचन को सुनिये। पहले निश्चय ही मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी, बिगड़ गयी थी और मैं सर्वथा मोह के वशीभूत हो गया था। इसीलिये आप दोनों को मैंने शाप दे दिया। शिवगणो! मैंने जो कुछ कहा है, वह वैसा ही होगा, तथापि मेरी बात सुनिये। मैं आपके लिये शापोद्धार की बात बता रहा हूँ। आप लोग आज मेरे अपराध को क्षमा कर दें (मुनिवर विश्रवा के वीर्य से जन्म ग्रहण करके आप सम्पूर्ण दिशाओं में प्रसिद्ध (कुम्भकर्ण रावण) राक्षस राज का पद प्राप्त करेंगे और बलवान्, वैभव से युक्त तथा परम प्रतापी होंगे। समस्त ब्रह्माण्ड के राजा होकर शिवभक्त एवं जितेन्द्रिय होंगे और शिव के ही दूसरे स्वरूप श्रीविष्णु के हाथों मृत्यु पाकर फिर अपने पदपर प्रतिष्ठित हो जायँगे। ) सूतजी कहते हैं- महर्षियो ! महात्मा नारद मुनि की यह बात सुनकर वे दोनों शिवगण प्रसन्न हो सानन्द अपने स्थान को लौट गये। श्रीनारद जी भी अत्यन्त आनन्दित हो अनन्यभाव से भगवान् शिव का ध्यान तथा शिवतीर्थों का दर्शन करते हुए बारंबार भूमण्डल में विचरने लगे। अन्त में वे सबके ऊपर विराजमान शिवप्रिया काशीपुरी में गये, जो शिवस्वरूपिणी एवं शिव को सुख देने वाली है। काशी पुरी का दर्शन करके नारद जी कृतार्थ हो गये। उन्होंने भगवान् काशीनाथ का दर्शन किया और परम प्रेम एवं परमानन्द से युक्त हो उनकी पूजा की। काशी का सानन्द सेवन करके वे मुनिश्रेष्ठ कृतार्थता का अनुभव करने लगे और प्रेम से विह्वल हो उसका नमन, वर्णन तथा स्मरण करते हुए ब्रह्मलोक को गये। निरन्तर शिव का स्मरण करने से उनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी थी। वहाँ पहुँचकर शिवतत्त्व का विशेष रूप से ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से नारदजी ने ब्रह्माजी को भक्ति पूर्वक नमस्कार किया और नाना प्रकार के स्तोत्रों द्वारा उनकी स्तुति करके उनसे शिवतत्त्व के विषय में पूछा। उस समय नारदजी का हृदय भगवान् शंकर के प्रति भक्ति भावना से परिपूर्ण था । नारदजी बोले – ब्रह्मन् ! परब्रह्म परमात्मा के स्वरूप को जानने वाले पितामह ! जगत्प्रभो ! आपके कृपाप्रसाद से मैंने भगवान् विष्णु के उत्तम माहात्म्य का पूर्णतया ज्ञान प्राप्त किया है। भक्तिमार्ग, ज्ञानमार्ग, अत्यन्त दुस्तर तपोमार्ग, दानमार्ग तथा तीर्थमार्ग का भी वर्णन सुना है। परंतु शिवतत्त्व का ज्ञान मुझे अभी तक नहीं हुआ है। मैं भगवान् शंकर की पूजा-विधि को भी नहीं जानता। अतः प्रभो ! आप क्रमशः इन विषयों को तथा भगवान् शिव के विविध चरित्रों को तथा उनके स्वरूप तत्त्व, प्राकट्य, विवाह, गार्हस्थ्य धर्म सब मुझे बताइये। निष्पाप पितामह! ये सब बातें तथा और भी जो आवश्यक बातें हों, उन सबका आपको वर्णन करना चाहिये। प्रजानाथ! शिव और शिवा के आविर्भाव एवं विवाह का प्रसंग विशेष रूप से कहिये – तथा कार्तिकेय के जन्म की कथा भी मुझे सुनाइये। प्रभो ! पहले बहुत लोगों से मैंने ये बातें सुनी हैं, किंतु तृप्त नहीं हो सका हूँ। इसीलिये आपकी शरण में आया हूँ। आप मुझपर कृपा कीजिये । अपने पुत्र नारद की यह बात सुनकर लोक-पितामह ब्रह्मा वहाँ इस प्रकार बोले
(अध्याय ५)
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