रुद्रसंहिता, प्रथम (सृष्टि) खण्ड अध्याय 7
भगवान् विष्णु की नाभि से कमल का प्रादुर्भाव, शिवेच्छावश ब्रह्माजी का उससे प्रकट होना, कमलनाल के उद्गम का पता लगाने में असमर्थ ब्रह्मा का तप करना, श्रीहरि का उन्हें दर्शन देना, विवादग्रस्त ब्रह्मा विष्णु के बीच में अग्नि-स्तम्भ का प्रकट होना तथा उसके ओर छोर का पता न पाकर उन दोनों का उसे प्रणाम करना
ब्रह्माजी कहते हैं – देवर्षे! जब नारायणदेव जल में शयन करने लगे, उस समय उनकी नाभि से भगवान् शंकर के इच्छावश सहसा एक उत्तम कमल प्रकट हुआ, जो बहुत बड़ा था। उसमें असंख्य नालदण्ड थे। उसकी कान्ति कनेर के फूल के समान पीले रंग की थी तथा उसकी लम्बाई और ऊँचाई भी अनन्त योजन थी। वह कमल करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशित हो रहा था, सुन्दर होने के साथ ही सम्पूर्ण तत्त्वों से युक्त था और अत्यन्त अद्भुत, परम रमणीय, दर्शन के योग्य तथा सबसे उत्तम था। तत्पश्चात् कल्याणकारी परमेश्वर साम्ब सदाशिव ने पूर्ववत् प्रयत्न करके मुझे अपने दाहिने अंग से उत्पन्न किया। मुने! उन महेश्वर ने मुझे तुरंत ही अपनी माया से मोहित करके नारायणदेव के नाभिकमल में डाल दिया और लीलापूर्वक मुझे वहाँ से प्रकट किया। इस प्रकार उस कमल से पुत्र के रूप में मुझ हिरण्यगर्भ का जन्म हुआ। मेरे चार मुख हुए और शरीर की कान्ति लाल हुई। मेरे मस्तक त्रिपुण्ड्र की रेखा से अंकित थे । तात ! भगवान् शिव की माया से मोहित होने के कारण मेरी ज्ञानशक्ति इतनी दुर्बल हो रही थी कि मैंने उस कमल के सिवा दूसरे किसी को अपने शरीर का जनक या पिता नहीं जाना। मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरा कार्य क्या है, मैं किसका पुत्र होकर उत्पन्न हुआ हूँ और किसने इस समय मेरा निर्माण किया है— इस प्रकार संशय में पड़े हुए मेरे मन में यह विचार उत्पन्न हुआ- ‘मैं किसलिये मोह में पड़ा हुआ हूँ? जिसने मुझे उत्पन्न किया है, उसका पता लगाना तो बहुत सरल है। इस कमलपुष्प का जो पत्रयुक्त नाल है, उसका उद्गम स्थान इस जल के भीतर नीचे की ओर है। जिसने मुझे उत्पन्न किया है, वह पुरुष भी वहीं होगा- इसमें संशय नहीं है। ‘ ऐसा निश्चय करके मैंने अपने को कमल से नीचे उतारा। मुने! मैं उस कमल की एक एक नाल में गया और सैकड़ों वर्षों तक वहाँ भ्रमण करता रहा, किंतु कहीं भी उस कमल के उद्गम का उत्तम स्थान मुझे नहीं मिला। तब पुनः संशय में पड़कर मैं उस कमलपुष्प पर जाने को उत्सुक हुआ और नाल के मार्ग से उस कमल पर चढ़ने लगा। इस तरह बहुत ऊपर जाने पर भी मैं उस कमल के कोश को न पा सका। उस दशा में मैं और भी मोहित हो उठा। मुने! उस समय भगवान् शिवकी इच्छा से परम मंगलमयी उत्तम आकाशवाणी प्रकट हुई, जो मेरे मोह का विध्वंस करने वाली थी। उस वाणी ने कहा – ‘तप’ (तपस्या करो) । उस आकाशवाणी को सुनकर मैंने अपने जन्मदाता पिता का दर्शन करने के लिये उस समय पुनः प्रयत्नपूर्वक बारह वर्षों तक घोर तपस्या की। तब मुझपर अनुग्रह करने के लिये ही चार भुजाओं और सुन्दर नेत्रों से सुशोभित भगवान् विष्णु वहाँ सहसा प्रकट हो गये। उन परम पुरुष ने अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण कर रखे थे। उनके सारे अंग सजल जलधर के समान श्यामकान्ति से सुशोभित थे। उन परम प्रभु ने सुन्दर पीताम्बर पहन रखा था। उनके मस्तक आदि अंगों में मुकुट आदि महामूल्यवान् आभूषण शोभा पाते थे। उनका मुखारविन्द प्रसन्नता से खिला हुआ था। मैं उनकी छविपर मोहित हो रहा था । वे मुझे करोड़ों कामदेवों के समान मनोहर दिखायी दिये। उनका वह अत्यन्त सुन्दर रूप देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। वे साँवली और सुनहरी आभा से उद्भासित हो रहे थे। उस समय उन सदसत्स्वरूप, सर्वात्मा, चार भुजा धारण करनेवाले, महाबाहु नारायणदेव को वहाँ उस रूप में अपने साथ देखकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ । तदनन्तर उन नारायणदेव के साथ मेरी बातचीत आरम्भ हुई। भगवान् शिवकी लीला से वहाँ हम दोनों में कुछ विवाद छिड़ गया। इसी समय हमलोगों के बीच में एक महान् अग्निस्तम्भ (ज्योतिर्मयलिंग) प्रकट हुआ। मैंने और श्रीविष्णु ने क्रमश: ऊपर और नीचे जाकर उसके आदि-अन्त का पता लगाने के लिये बड़ा प्रयत्न किया, परंतु हमें कहीं भी उसका ओर-छोर नहीं मिला। मैं थककर ऊपर से नीचे लौट आया और भगवान् विष्णु भी उसी तरह नीचे से ऊपर आकर मुझसे मिले। हम दोनों शिवकी माया से मोहित थे। श्रीहरि ने मेरे साथ आगे पीछे और अगल-बगल से परमेश्वर शिवको प्रणाम किया। फिर वे सोचने लगे-‘यह क्या वस्तु है?’ इसके स्वरूप का निर्देश नहीं किया जा सकता; क्योंकि न तो इसका कोई नाम है और न कर्म ही है। लिंगरहित तत्त्व ही यहाँ लिंगभाव को प्राप्त हो गया है। ध्यानमार्ग में भी इसके स्वरूप का कुछ पता नहीं चलता। इसके बाद मैं और श्रीहरि दोनों ने अपने चित्त को स्वस्थ करके उस अग्निस्तम्भ को प्रणाम करना आरम्भ किया। हम दोनों बोले- महाप्रभो ! हम आपके स्वरूप को नहीं जानते। आप जो कोई भी क्यों न हों, आपको हमारा नमस्कार है। महेशान! आप शीघ्र ही हमें अपने यथार्थ रूप का दर्शन कराइये । मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार अहंकार से आविष्ट हुए हम दोनों ही वहाँ नमस्कार करने लगे। ऐसा करते हुए हमारे सौ वर्ष बीत गये।
(अध्याय ७)
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