श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय-1
अध्याय एक
धृतराष्ट्र उवाच– धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।। (१)
“धृतराष्ट्र ने कहा – हे सञ्जय ! धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में मेरे पुत्रों और पाण्डु पुत्रों ने युद्ध की इच्छा से एकत्रित होने के पश्चात् क्या किया ? ” (1)
तात्पर्य: भगवद्गीता एक बहुपठित आस्तिक विज्ञान है जो गीता – माहात्म्य में सार रूप में दिया हुआ है । इसमें यह उल्लेख है कि मनुष्य को चाहिए कि वह श्रीकृष्ण के भक्त की सहायता से संवीक्षण करते हुए भगवद्गीता का अध्ययन करे और स्वार्थप्रेरित व्याख्याओं के बिना उसे समझने का प्रयास करे । अर्जुन ने जिस प्रकार से साक्षात् भगवान् कृष्ण से गीता सुनी और उसका उपदेश ग्रहण किया, इस प्रकार की स्पष्ट अनुभूति का उदाहरण भगवद्गीता में ही है । यदि उसी गुरु – परम्परा से, निजी स्वार्थ से प्रेरित हुए बिना, किसी को भगवद्गीता समझने का सौभाग्य प्राप्त हो तो वह समस्त वैदिक ज्ञान तथा विश्व के समस्त शास्त्रों के अध्ययन को पीछे छोड़ देता है । पाठक को भगवद्गीता में न केवल अन्य शास्त्रों की सारी बातें मिलेंगी अपितु ऐसी बातें भी मिलेंगी जो अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं हैं । यही गीता का विशिष्ट मानदण्ड है । स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा साक्षात् उच्चरित होने के कारण यह पूर्ण आस्तिक विज्ञान है । महाभारत में वर्णित धृतराष्ट्र तथा संजय की वार्ताएँ इस महान दर्शन के मूल सिद्धान्त का कार्य करती हैं । माना जाता है कि इस दर्शन की प्रस्तुति कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में हुई जो वैदिक युग से पवित्र तीर्थस्थल रहा है । इसका प्रवचन भगवान् द्वारा मानव जाति के पथ- प्रदर्शन हेतु तब किया गया जब वे इस लोक में स्वयं उपस्थित थे । धर्मक्षेत्र शब्द सार्थक है, क्योंकि कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन के पक्ष में श्रीभगवान् स्वयं उपस्थित थे । कौरवों का पिता धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की विजय की सम्भावना के विषय में अत्यधिक संदिग्ध था । अतः इसी सन्देह के कारण उसने अपने सचिव से पूछा, “उन्होंने क्या किया ?” वह आश्वस्त था कि उसके पुत्र तथा उसके छोटे भाई पाण्डु के पुत्र कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में निर्णयात्मक संग्राम के लिए एकत्र हुए हैं । फिर भी उसकी जिज्ञासा सार्थक है । वह नहीं चाहता था कि भाइयों में कोई समझौता हो, अतः वह युद्धभूमि में अपने पुत्रों की नियति (भाग्य, भावी ) के विषय में आश्वस्त होना चाह रहा था । चूँकि इस युद्ध को कुरुक्षेत्र में लड़ा जाना था, जिसका उल्लेख वेदों में स्वर्ग के निवासियों के लिए भी तीर्थस्थल के रूप में हुआ है अतः धृतराष्ट्र अत्यन्त भयभीत था कि इस पवित्र स्थल का युद्ध के परिणाम पर न जाने कैसा प्रभाव पड़े । उसे भलीभाँति ज्ञात था कि इसका प्रभाव अर्जुन तथा पाण्डु के अन्य पुत्रों पर अत्यन्त अनुकूल पड़ेगा क्योंकि स्वभाव से वे सभी पुण्यात्मा थे । संजय श्री व्यास का शिष्य था, अतः उनकी कृपा से संजय धृतराष्ट्र के कक्ष में बैठे- बैठे कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल का दर्शन कर सकता था । इसीलिए धृतराष्ट्र ने उससे युद्धस्थल की स्थिति के विषय में पूछा । पाण्डव तथा धृतराष्ट्र के पुत्र, दोनों ही एक वंश से सम्बन्धित हैं, किन्तु यहाँ पर धृतराष्ट्र के वाक्य से उसके मनोभाव प्रकट होते हैं । उसने जान- बूझ कर अपने पुत्रों को कुरु कहा और पाण्डु के पुत्रों को वंश के उत्तराधिकार से विलग कर दिया । इस तरह पाण्डु के पुत्रों अर्थात् अपने भतीजों के साथ धृतराष्ट्र की विशिष्ट मनःस्थिति समझी जा सकती है । जिस प्रकार धान के खेत से अवांछित पौधों को उखाड़ दिया जाता है उसी प्रकार इस कथा के आरम्भ से ही ऐसी आशा की जाती है कि जहाँ धर्म के पिता श्रीकृष्ण उपस्थित हों वहाँ कुरुक्षेत्र रूपी खेत में दुर्योधन आदि धृतराष्ट्र के पुत्र रूपी अवांछित पौधों को समूल नष्ट करके युधिष्ठिर आदि नितान्त धार्मिक पुरुषों की स्थापना की जायेगी । यहाँ धर्मक्षेत्रे तथा कुरुक्षेत्रे शब्दों की, उनकी ऐतिहासिक तथा वैदिक महत्ता के अतिरिक्त, यही सार्थकता है ।
सञ्जय उवाच– दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा । आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ।। (२)
“सञ्जय ने कहा – महाराज ! पाण्डवों की सेना को व्यूहाकार में स्थित देखकर दुर्योधन ने द्रोणाचार्य के निकट जाकर यह शब्द बोले । ” (2)
तात्पर्य : धृतराष्ट्र जन्म से अन्धा था । दुर्भाग्यवश वह आध्यात्मिक दृष्टि से भी वंचित था । वह यह भी जानता था कि उसी के समान उसके पुत्र भी धर्म के मामले में अंधे हैं और उसे विश्वास था कि वे पाण्डवों के साथ कभी भी समझौता नहीं कर पायेंगे क्योंकि पाँचों पाण्डव जन्म से ही पवित्र थे । फिर भी उसे तीर्थस्थान के प्रभाव के विषय में सन्देह था । इसीलिए संजय युद्धभूमि की स्थिति के विषय में उसके प्रश्न के मंतव्य को समझ गया । अतः वह निराश राजा को प्रोत्साहित करना चाह रहा था । उसने उसे विश्वास दिलाया कि उसके पुत्र पवित्र स्थान के प्रभाव में आकर किसी प्रकार का समझौता करने नहीं जा रहे हैं । उसने राजा को बताया कि उसका पुत्र दुर्योधन पाण्डवों की सेना को देखकर तुरन्त अपने सेनापति द्रोणाचार्य को वास्तविक स्थिति से अवगत कराने गया । यद्यपि दुर्योधन को राजा कह कर सम्बोधित किया गया है तो भी स्थिति की गम्भीरता के कारण उसे सेनापति के पास जाना पड़ा । अतएव दुर्योधन राजनीतिज्ञ बनने के लिए सर्वथा उपयुक्त था । किन्तु जब उसने पाण्डवों की व्यूहरचना देखी तो उसका यह कूटनीतिक व्यवहार उसके भय को छिपा न पाया ।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् । व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ।। (३)
“हे आचार्य ! अपने बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के द्वारा व्यूह रचनापूर्वक स्थापित पाण्डवों की इस विशाल सेना को देखिए । ” (3)
तात्पर्य : परम राजनीतिज्ञ दुर्योधन महान ब्राह्मण सेनापति द्रोणाचार्य के दोषों को इंगित करना चाहता था । अर्जुन की पत्नी द्रौपदी के पिता राजा द्रुपद के साथ द्रोणाचार्य का कुछ राजनीतिक झगड़ा था । इस झगड़े के फलस्वरूप द्रुपद ने एक महान यज्ञ सम्पन्न किया जिससे उसे एक ऐसा पुत्र प्राप्त होने का वरदान मिला जो द्रोणाचार्य का वध कर सके । द्रोणाचार्य इसे भलीभाँति जानता था किन्तु जब द्रुपद का पुत्र धृष्टद्युम्न युद्ध – शिक्षा के लिए उसको सौंपा गया तो द्रोणाचार्य को उसे अपने सारे सैनिक रहस्य प्रदान करने में कोई झिझक नहीं हुई । अब धृष्टद्युम्न कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में पाण्डवों का पक्ष ले रहा था और उसने द्रोणाचार्य से जो कला सीखी थी उसी के आधार पर उसने यह व्यूहरचना की थी । दुर्योधन ने द्रोणाचार्य की इस दुर्बलता की ओर इंगित किया जिससे वह युद्ध में सजग रहे और समझौता न करे । इसके द्वारा वह द्रोणाचार्य को यह भी बताना चाह रहा था कि कहीं वह अपने प्रिय शिष्य पाण्डवों के प्रति युद्ध में उदारता न दिखा बैठे । विशेष रूप से अर्जुन उसका अत्यन्त प्रिय एवं तेजस्वी शिष्य था । दुर्योधन ने यह भी चेतावनी दी कि युद्ध में इस प्रकार की उदारता से हार हो सकती है ।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुन समा युधि । युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ।। (४)
“इस सेना में महान् धनुर्धर अर्जुन, गदाधारी भीम और उनके ही समान शूरवीर युयुधान (सात्यकि), राजा विराट और महारथी द्रुपद आदि हैं।” (4)
तात्पर्य : यद्यपि युद्धकला में द्रोणाचार्य की महान शक्ति के समक्ष धृष्टद्युम्न महत्त्वपूर्ण बाधक नहीं था किन्तु ऐसे अनेक योद्धा थे जिनसे भय था । दुर्योधन इन्हें विजय- पथ में अत्यन्त बाधक बताता है क्योंकि इनमें से प्रत्येक योद्धा भीम तथा अर्जुन के समान दुर्जेय था । उसे भीम तथा अर्जुन के बल का ज्ञान था, इसीलिए वह अन्यों की तुलना इन दोनों से करता है ।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्व वीर्यवान् । पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः ।। (५) युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् । सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ।। (६)
“इस युद्ध में धृष्टकेतु, चेकितान वीर काशीराज, पुरुजित, कुन्तिभोज, नर श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु, उनके भाई वीर उत्तमौजा, सुभद्रानन्दन (अभिमन्यु) और द्रौपदीनन्दन (प्रतिबिन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक व श्रुतसेन ) आदि उपस्थित हैं, जो सभी महारथी हैं।” (5-6)
अस्माकं तु विशिष्टाये तान्निबोध द्विजोत्तम । नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ।। (७)
“हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! आपकी जानकारी के लिए मैं अपनी सेना के उन नायकों का भी नामोल्लेख कर रहा हूँ, जो सैन्य संचालन में विशिष्ट रूप से कुशल हैं ।” (7)
भवान् भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः । अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ।। (८)
“आप स्वयं (द्रोणाचार्य ), भीष्म पितामह, कर्ण, कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण, सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा आदि अनेक शूरवीर मेरे पक्ष में है जो, सदैव रणविजयी रहे हैं ।” (8)
तात्पर्य : दुर्योधन उन अद्वितीय युद्धवीरों का उल्लेख करता है जो सदैव विजयी होते रहे हैं । विकर्ण दुर्योधन का भाई है, अश्वत्थामा द्रोणाचार्य का पुत्र है और सौमदत्ति या भूरिश्रवा बह्लिकों के राजा का पुत्र है । कर्ण अर्जुन का आधा भाई है क्योंकि वह कुन्ती के गर्भ से राजा पाण्डु के साथ विवाहित होने के पूर्व उत्पन्न हुआ था । कृपाचार्य की जुड़वा बहन द्रोणाचार्य को ब्याही थी ।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः । नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ।। (९)
“मेरे लिए प्राण देने के लिए संकल्पबद्ध एवं नाना शस्त्रों से सुसज्जित और भी अनेक शूरवीर हैं, जो सभी युद्ध में निपुण हैं ।” (9)
तात्पर्य: जहाँ तक अन्यों का- यथा जयद्रथ, कृतवर्मा तथा शल्य का सम्बन्ध है वे सब दुर्योधन के लिए अपने प्राणों की आहुति देने के लिए तैयार रहते थे । दूसरे शब्दों में, यह पूर्वनिश्चित है कि वे अब पापी दुर्योधन के दल में सम्मिलित होने के कारण कुरुक्षेत्र के युद्ध में मारे जायेंगे । निस्सन्देह अपने मित्रों की संयुक्त- शक्ति के कारण दुर्योधन अपनी विजय के प्रति आश्वस्त था ।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् । पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ।। (१०)
“हमारा सैन्यबल सूक्ष्मबुद्धि व अजेय भीष्म पितामह द्वारा रक्षित होने पर भी अपरिपूर्ण है, क्योंकि भीष्म उभयपक्षपाती है और पाण्डवों का सैन्यबल स्थूलबुद्धि भीम द्वारा रक्षित होने पर भी परिपूर्ण है, क्योंकि भीम स्वपक्षपाती है ।” (10)
तात्पर्य : यहाँ पर दुर्योधन ने तुलनात्मक शक्ति का अनुमान प्रस्तुत किया है । वह सोचता है कि अत्यन्त अनुभवी सेनानायक भीष्म पितामह के द्वारा विशेष रूप से संरक्षित होने के कारण उसकी सशस्त्र सेनाओं की शक्ति अपरिमेय है । दूसरी ओर पाण्डवों की सेनाएँ सीमित हैं क्योंकि उनकी सुरक्षा एक कम अनुभवी नायक भीम द्वारा की जा रही है जो भीष्म की तुलना में नगण्य है । दुर्योधन सदैव भीम से ईर्ष्या करता था क्योंकि वह जानता था कि यदि उसकी मृत्यु कभी हुई भी तो वह भीम के द्वारा ही होगी । किन्तु साथ ही उसे दृढ़ विश्वास था कि भीष्म की उपस्थिति में उसकी विजय निश्चित है क्योंकि भीष्म कहीं अधिक उत्कृष्ट सेनापति हैं । वह युद्ध में विजयी होगा यह उसका दृढ़ निश्चय था ।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः । भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ।। (११)
“इसलिए आप सभी योद्धागण समस्त प्रवेशद्वारों पर अपने-अपने निर्धारित स्थानों पर उपस्थित रहकर सब प्रकार से भीष्म पितामह का ही सहयोग करें ।” (11)
तात्पर्य : भीष्म पितामह के शौर्य की प्रशंसा करने के बाद दुर्योधन ने सोचा कि कहीं अन्य योद्धा यह न समझ लें कि उन्हें कम महत्त्व दिया जा रहा है अतः दुर्योधन ने अपने सहज कूटनीतिक ढंग से स्थिति सँभालने के उद्देश्य से उपर्युक्त शब्द कहे । उसने बलपूर्वक कहा कि भीष्मदेव निस्सन्देह महानतम योद्धा हैं किन्तु अब वे वृद्ध हो चुके हैं अतः प्रत्येक सैनिक को चाहिए कि चारों ओर से उनकी सुरक्षा का विशेष ध्यान रखे । हो सकता है कि वे किसी एक दिशा में युद्ध करने में लग जाएँ और शत्रु इस व्यस्तता का लाभ उठा ले । अतः यह आवश्यक है कि अन्य योद्धा मोर्चों पर अपनी- अपनी स्थिति पर अडिग रहें और शत्रु को व्यूह न तोड़ने दें । दुर्योधन को पूर्ण विश्वास था कि कुरुओं की विजय भीष्मदेव की उपस्थिति पर निर्भर है । उसे युद्ध में भीष्मदेव तथा द्रोणाचार्य के पूर्ण सहयोग की आशा थी क्योंकि वह अच्छी तरह जानता था कि इन दोनों ने उस समय एक शब्द भी नहीं कहा था जब अर्जुन की पत्नी द्रौपदी को असहायावस्था में भरी सभा में नग्न किया जा रहा था और जब उसने उनसे न्याय की भीख माँगी थी । यह जानते हुए भी कि इन दोनों सेनापतियों के मन में पाण्डवों के लिए स्नेह था, दुर्योधन को आशा थी कि वे इस स्नेह को उसी तरह त्याग देंगे जिस तरह उन्होंने द्यूत- क्रीड़ा के अवसर पर किया था ।
तस्य सजनयन्हर्ष कुरुवृद्धः पितामहः । सिंहनादं विनद्योच्चैः शखं दध्मौ प्रतापवान् ।। (१२)
“तब दुर्योधन के मन में हर्ष का सञ्चार करने के लिए कुरुवंश के ज्येष्ठ एवं महाप्रतापी भीष्म पितामह ने सिंह की भाँति गर्जनापूर्वक उच्चस्वर से शंखनाद किया ।” (12)
तात्पर्य : कुरुवंश के वयोवृद्ध पितामह अपने पौत्र दुर्योधन का मनोभाव जान गये और उसके प्रति अपनी स्वाभाविक दयावश उन्होंने उसे प्रसन्न करने के लिए अत्यन्त उच्च स्वर से अपना शंख बजाया जो उनकी सिंह के समान स्थिति के अनुरूप था । अप्रत्यक्ष रूप में शंख के द्वारा प्रतीकात्मक ढंग से उन्होंने अपने हताश पौत्र दुर्योधन को बता दिया कि उन्हें युद्ध में विजय की आशा नहीं है क्योंकि दूसरे पक्ष में साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण हैं । फिर भी युद्ध का मार्गदर्शन करना उनका कर्तव्य था और इस सम्बन्ध में वे कोई कसर नहीं रखेंगे ।
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः । सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ।। (१३)
“तत्पश्चात् शंख, नगाड़े, ढोल, मृदङ्ग और रण के श्रृंग आदि विभिन्न प्रकार के वाद्ययन्त्र अचानक एक साथ ही बज उठे, जिससे तुमुल (अत्यन्त कोलाहलपूर्ण) ध्वनि उत्पन्न हुई ।” (13)
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौप्रदध्मतुः ।। (१४)
“तत्पश्चात् श्वेत अश्वों से युक्त उत्तम रथ में विराजमान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अपने – अपने दिव्य शंख बजाए ।” (14)
तात्पर्य : भीष्मदेव द्वारा बजाये गये शंख की तुलना में कृष्ण तथा अर्जुन के शंखों को दिव्य कहा गया है। दिव्य शंखो के नाद से यह सूचित हो रहा था कि दूसरे पक्ष की विजय की कोई आशा न थी क्योंकि कृष्ण पाण्डवों के पक्ष में थे । जयस्तु पाण्डुपुत्राणां येषां पक्षे जनार्दनः- जय सदा पाण्डु के पुत्र- जैसों की होती है क्योंकि भगवान् कृष्ण उनके साथ हैं । और जहाँ जहाँ भगवान् विद्यमान हैं, वहीं वहीं लक्ष्मी भी रहती हैं क्योंकि वे अपने पति के बिना नहीं रह सकती । अतः जैसा कि विष्णु या भगवान् कृष्ण के शंख द्वारा उत्पन्न दिव्य ध्वनि से सूचित हो रहा था, विजय तथा श्री दोनों ही अर्जुन की प्रतीक्षा कर रही थीं । इसके अतिरिक्त, जिस रथ में दोनों मित्र आसीन थे वह अर्जुन को अग्नि देवता द्वारा प्रदत्त था और इससे सूचित हो रहा था कि तीनों लोकों में जहाँ कहीं भी यह जायेगा, वहाँ विजय निश्चित है ।
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः । पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्ख भीमकर्मा वृकोदरः ।। (१५)
“श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य, अर्जुन ने देवदत्त और अतिमानवीय कर्म करने वाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया ।” (15)
तात्पर्य : इस श्लोक में भगवान् कृष्ण को हृषीकेश कहा गया है क्योंकि वे ही समस्त इन्द्रियों के स्वामी हैं । सारे जीव उनके भिन्नांश हैं अतः जीवों की इन्द्रियाँ भी उनकी इन्द्रियों के अंश हैं । चूँकि निर्विशेषवादी जीवों की इन्द्रियों का कारण बताने में असमर्थ हैं इसीलिए वे जीवों को इन्द्रियरहित या निर्विशेष कहने के लिए उत्सुक रहते हैं । भगवान् समस्त जीवों के हृदयों में स्थित होकर उनकी इन्द्रियों का निर्देशन करते हैं । किन्तु वे इस तरह निर्देशन करते हैं कि जीव उनकी शरण ग्रहण कर ले और विशुद्ध भक्त की इन्द्रियों का तो वे प्रत्यक्ष निर्देशन करते हैं । यहाँ कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में भगवान् कृष्ण अर्जुन की दिव्य इन्द्रियों का निर्देशन करते हैं इसीलिए उनको हृषीकेश कहा गया है । भगवान् के विविध कार्यों के अनुसार उनके भिन्न-भिन्न नाम हैं । उदाहरणार्थ, इनका एक नाम मधुसूदन है क्योंकि उन्होंने मधु नाम के असुर को मारा था, वे गौवों तथा इन्द्रियों को आनन्द देने के कारण गोविन्द कहलाते हैं, वसुदेव के पुत्र होने के कारण इनका नाम वासुदेव है, देवकी को माता रूप में स्वीकार करने के कारण इनका नाम देवकीनन्दन है, वृन्दावन में यशोदा के साथ बाल- लीलाएँ करने के कारण ये यशोदानन्दन हैं, अपने मित्र अर्जुन का सारथी बनने के कारण पार्थसारथी हैं । इसी प्रकार उनका एक नाम हृषीकेश है, क्योंकि उन्होंने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन का निर्देशन किया ।
इस श्लोक में अर्जुन को धनञ्जय कहा गया है क्योंकि जब इनके बड़े भाई को विभिन्न यज्ञ सम्पन्न करने के लिए धन की आवश्यकता हुई थी तो उसे प्राप्त करने में इन्होंने सहायता की थी । इसी प्रकार भीम वृकोदर कहलाते हैं क्योंकि जैसे वे अधिक खाते हैं उसी प्रकार वे अतिमानवीय कार्य करने वाले हैं, जैसे हिडिम्बासुर का वध । अतः पाण्डवों के पक्ष में श्रीकृष्ण इत्यादि विभिन्न व्यक्तियों द्वारा विशेष प्रकार के शंखों का बजाया जाना युद्ध करने वाले सैनिकों के लिए अत्यन्त प्रेरणाप्रद था । विपक्ष में ऐसा कुछ न था; न तो परम निदेशक भगवान् कृष्ण थे, न ही भाग्य की देवी (श्री) थीं । अतः युद्ध में उनकी पराजय पूर्वनिश्चित थी- शंखों की ध्वनि मानो यही सन्देश दे रही थी ।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः । नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ।। (१६)
“कुन्तीपुत्र महाराज युधिष्ठिर ने अनन्तविजय, नकुल ने सुघोष एवं सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शंख बजाया ।” (16)
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्वापराजितः ।। (१७) द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।सौभद्रश्च महाबाहुः शखान्दध्मुः पृथक्पृथक् ।। (१८)
“हे महाराज धृतराष्ट्र ! महाधनुर्धारी काशीराज, महारथी शिखण्डी, धृष्टद्युम्न, विराट नरेश, अपराजेय सात्यकि, राजा द्रुपद, द्रौपदी के पुत्रों व महाबाहु अभिमन्यु – इन सभी ने अपने – अपने शंख बजाए ।” (17-18)
तात्पर्य: संजय ने राजा धृतराष्ट्र को अत्यन्त चतुराई से यह बताया कि पाण्डु के पुत्रों को धोखा देने तथा राज्यसिंहासन पर अपने पुत्रों को आसीन कराने की यह अविवेकपूर्ण नीति श्लाघनीय नहीं थी । लक्षणों से पहले से ही यह सूचित हो रहा था कि इस महायुद्ध में सारा कुरुवंश मारा जायेगा । भीष्म पितामह से लेकर अभिमन्यु तथा अन्य पौत्रों तक विश्व के अनेक देशों के राजाओं समेत उपस्थित सारे के सारे लोगों का विनाश निश्चित था । यह सारी दुर्घटना राजा धृतराष्ट्र के कारण होने जा रही थी क्योंकि उसने अपने पुत्रों की कुनीति को प्रोत्साहन दिया था ।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् । नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलोऽभ्यनुनादयन् ।। (१९)
“उस तुमुल ध्वनि ने आकाश और पृथ्वी को प्रतिध्वनित करते हुए धृतराष्ट के पुत्रों को भयभीत कर दिया ।” (19)
तात्पर्य : जब भीष्म तथा दुर्योधन के पक्ष के अन्य वीरों ने अपने- अपने शंख बजाये तो पाण्डवों के हृदय विदीर्ण नहीं हुए । ऐसी घटनाओं का वर्णन नहीं मिलता किन्तु इस विशिष्ट श्लोक में कहा गया है कि पाण्डव पक्ष के शंखनाद से धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृदय विदीर्ण हो गये । इसका कारण स्वयं पाण्डव और भगवान् कृष्ण में उनका विश्वास है । परमेश्वर की शरण ग्रहण करने वाले को किसी प्रकार का भय नहीं रह जाता चाहे वह कितनी ही विपत्ति में क्यों न हो ।
अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः । प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः।हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।। (२०)
“हे राजन ! तत्पश्चात् आपके पुत्रों को युद्ध के लिए व्यवस्थित देखकर धनुष उठाकर तीर चलाने को उद्यत कपिध्वज अर्जुन ने श्रीकृष्ण से यह वाक्य कहा ।” (20)
तात्पर्य : युद्ध प्रारम्भ होने ही वाला था । उपर्युक्त कथन से ज्ञात होता है कि पाण्डवों की सेना की अप्रत्याशित व्यवस्था से धृतराष्ट्र के पुत्र बहुत कुछ निरुत्साहित थे क्योंकि युद्धभूमि में पाण्डवों का निर्देशन भगवान् कृष्ण के आदेशानुसार हो रहा था । अर्जुन की ध्वजा पर हनुमान का चिन्ह भी विजय का सूचक है क्योंकि हनुमान ने राम तथा रावण युद्ध में राम की सहायता की थी जिससे राम विजयी हुए थे । इस समय अर्जुन की सहायता के लिए उनके रथ पर राम तथा हनुमान दोनों उपस्थित थे । भगवान् कृष्ण साक्षात् राम हैं और जहाँ भी राम रहते हैं वहाँ उनका नित्य सेवक हनुमान होता है तथा उनकी नित्यसंगिनी, वैभव की देवी सीता उपस्थित रहती हैं । अतः अर्जुन के लिए किसी भी शत्रु से भय का कोई कारण नहीं था । इससे भी अधिक इन्द्रियों के स्वामी भगवान् कृष्ण निर्देश देने के लिए साक्षात् उपस्थित थे । इस प्रकार अर्जुन को युद्ध करने के मामले में सारा सत्परामर्श प्राप्त था । ऐसी स्थितियों में, जिनकी व्यवस्था भगवान् ने अपने शाश्वत भक्त के लिए की थी, निश्चित विजय के लक्षण स्पष्ट थे ।
अर्जुन उवाच– सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ।। (२१) यावदेतान्निरीक्षेऽहं योधुकामानवस्थितान् । कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ।। (२२) योत्स्यमानानवेक्षेऽहंय एतेऽत्र समागताः । धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः ।। (२३)
“अर्जुन ने कहा – हे अच्युत ! जब तक मैं युद्ध की कामना से खड़े हुए इन समस्त वीरों का निरीक्षण न कर लूँ एवं इस युद्ध में किन – किन वीरों के साथ मुझे युद्ध करना होगा और इस युद्ध में धृतराष्ट्र के दुर्बुद्धिपरायण पुत्रों के हितैषी एकत्रित योद्धाओं का अवलोकन न कर लूँ तब तक आप मेरे रथ को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा करें ।” (21-22-23)
तात्पर्य : यद्यपि श्रीकृष्ण साक्षात् श्रीभगवान् हैं, किन्तु वे अहैतुकी कृपावश अपने मित्र की सेवा में लगे हुए थे । वे अपने भक्तों पर स्नेह दिखाने में कभी नहीं चूकते इसीलिए अर्जुन ने उन्हें अच्युत कहा है । सारथी रूप में उन्हें अर्जुन की आज्ञा का पालन करना था और उन्होंने इसमें कोई संकोच नहीं किया, अतः उन्हें अच्युत कह कर सम्बोधित किया गया है । यद्यपि उन्होंने अपने भक्त का सारथी- पद स्वीकार किया था, किन्तु इससे उनकी परम स्थिति अक्षुण्ण बनी रही । प्रत्येक परिस्थिति में वे इन्द्रियों के स्वामी श्री भगवान हृषिकेश हैं । भगवान तथा उनके सेवक का सम्बन्ध अत्यंत मधुर एवं दिव्य होता है । सेवक स्वामी की सेवा करने के लिए सदैव उद्यत रहता है और भगवान् भी भक्त की कुछ न कुछ सेवा करने की कोशिश में रहते हैं । वे इसमें विशेष आनन्द का अनुभव करते हैं कि वे स्वयं आज्ञादाता न बनें अपितु उनके शुद्ध भक्त उन्हें आज्ञा दें । चूंकि वे स्वामी हैं, अतः सभी लोग उनके आज्ञापालक हैं और उनके ऊपर उनको आज्ञा देने वाला कोई नहीं है । किन्तु जब वे देखते हैं कि उनका शुद्ध भक्त आज्ञा दे रहा है तो उन्हें दिव्य आनन्द मिलता है यद्यपि समस्त परिस्थितियों में अच्युत रहने वाले हैं । भगवान् का शुद्ध भक्त होने के कारण अर्जुन को अपने बन्धु- बान्धवों से युद्ध करने की तनिक भी इच्छा न थी, किन्तु दुर्योधन द्वारा शान्तिपूर्ण समझौता न करके हठधर्मिता पर उतारू होने के कारण उसे युद्धभूमि में आना पड़ा । अतः वह यह जानने के लिए अत्यन्त उत्सुक था कि युद्धभूमि में कौन- कौन से अग्रणी व्यक्ति उपस्थित हैं । यद्यपि युद्धभूमि में शान्ति- प्रयासों का कोई प्रश्न नहीं उठता तो भी वह उन्हें फिर से देखना चाह रहा था और यह देखना चाह रहा था कि वे इस अवांछित युद्ध पर किस हद तक तुले हुए हैं।
यह सर्वविदित था कि दुर्योधन अपने पिता धृतराष्ट्र की साँठगाँठ पापपूर्ण योजनाएँ बनाकर पाण्डवों के राज्य को हड़पना चाहता था । अतः जिन समस्त लोगों ने दुर्योधन का पक्ष ग्रहण किया था वे उसी के समानधर्मा रहे होंगे । अर्जुन युद्ध प्रारम्भ होने के पूर्व यह तो जान ही लेना चाहता था कि कौन- कौन से लोग आये हुए हैं । किन्तु उनके समक्ष समझौता का प्रस्ताव रखने की उसकी कोई योजना नहीं थी । यह भी तथ्य था कि वह उनकी शक्ति का, जिसका उसे सामना करना था, अनुमान लगाने की दृष्टि से उन्हें देखना चाह रहा था, यद्यपि उसे अपनी विजय का विश्वास था क्योंकि कृष्ण उसकी बगल में विराजमान थे ।
सञ्जय उवाच– एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारतासेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ।। (२४)
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।उवाच पार्थ पश्यैतान् समवेतान् कुरूनिति ।। (२५)
“सञ्जय ने कहा – हे भरतवंशी ! निद्राजयी अर्जुन के द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर इन्द्रियों के स्वामी श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के मध्य समस्त राजाओं एवं भीष्म, द्रोणादि के सम्मुख उत्तम रथ लाकर खड़ा कर दिया।श्रीकृष्ण ने कहा – हे पार्थ ! इन एकत्रित कौरवों को देखो ।” (24-25)
तात्पर्य: इस श्लोक में अर्जुन को गुडाकेश कहा गया है । गुडाका का अर्थ है नींद और जो नींद को जीत लेता है वह गुडाकेश है । नींद का अर्थ अज्ञान भी है । अतः अर्जुन ने कृष्ण की मित्रता के कारण नींद तथा अज्ञान दोनों पर विजय प्राप्त की थी । कृष्ण के भक्त के रूप में वह कृष्ण को क्षण भर भी नहीं भुला पाया क्योंकि भक्त का स्वभाव ही ऐसा होता है । यहाँ तक कि चलते अथवा सोते हुए भी कृष्ण के नाम, रूप, गुणों तथा लीलाओं के चिन्तन से भक्त कभी मुक्त नहीं रह सकता । अतः कृष्ण का भक्त उनका निरन्तर चिन्तन करते हुए नींद तथा अज्ञान दोनों को जीत सकता है । इसी को कृष्णभावनामृत या समाधि कहते हैं । प्रत्येक जीव की इन्द्रियों तथा मन के निर्देशक अर्थात् हृषीकेश के रूप में कृष्ण अर्जुन के मन्तव्य को समझ गये कि वह क्यों सेनाओं के मध्य में रथ को खड़ा करवाना चाहता है । अतः उन्होंने वैसा ही किया और फिर वे इस प्रकार बोले ।
समस्त जीवों के परमात्मा स्वरूप भगवान कृष्ण यह जानते थे कि अर्जुन के मन मे क्या बीत रहा है । इस प्रसंग मे हृषीकेश शब्द का प्रयोग सूचित करता है कि वे सब कुछ जानते थे । इसी प्रकार पार्थ शब्द अर्थात पृथा या कुंती पुत्र भी अर्जुन के लिए प्रयुक्त होने के कारण महत्वपूर्ण है । मित्र के रूप मे वे अर्जुन को बता देना चाहते थे कि चूंकि अर्जुन उनके पिता वासुदेव की बहन पृथा का पुत्र था इसीलिए उन्होंने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया था । किन्तु जब उन्होंने अर्जुन से “कुरुओं को देखो” कहा तो इससे उनका क्या अभिप्रायय था ? क्या अर्जुन वहीं पर रुक कर युद्ध करना नहीं चाहता था ? कृष्ण को अपनी बुआ पृथा के पुत्र से कभी भी ऐसी आशा नहीं थी । इस प्रकार से कृष्ण ने अपने मित्र की मनः स्तिथि की पूर्वसूचना परिहासवश दी है ।
तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् । आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन् पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा । श्वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।। (२६)
“तत्पश्चात् अर्जुन ने दोनों ही सेनाओं में उपस्थित अपने पिता के भाइयों, पितामहों, आचार्यों, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों, मित्रों, श्वसुरों एवं शुभचिन्तकों को देखा ।” (26)
तात्पर्य: अर्जुन युद्धभूमि में अपने सभी सम्बंधियों को देख सका । वह अपने पिता के समकालीन भूरिश्रवा जैसे व्यक्तियों, भीष्म तथा सोमदत्त जैसे पितामहों, द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य जैसे गुरुओं, शल्य तथा शकुनि जैसे मामाओं, दुर्योधन जैसे भाइयों, लक्ष्मण जैसे पुत्रों, अश्वत्थामा जैसे मित्रों एवं कृतवर्मा जैसे शुभचिन्तकों को देख सका । वह उन सेनाओं को भी देख सका जिनमें उसके अनेक मित्र थे ।
तान् समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान् । कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।। (२७)
“रणभूमि में उपस्थित अपने समस्त बन्धु- बान्धवों को देखकर अतिशय करुणायुक्त व विषादयुक्त कुन्तीपुत्र अर्जुन ने यह कहा ।” (27)
अर्जुन उवाच– दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् । सीदन्ति मम गात्राणि मुखञ्च परिशुष्यति ।। (२८)
“अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण ! युद्ध की इच्छा से उपस्थित इन स्वजनों को देखकर मेरे शरीर के अंग शिथिल हो रहे हैं और मेरा मुख भी सूखा जा रहा है ।” (28)
तात्पर्य : यथार्थ भक्ति से युक्त मनुष्य में वे सारे सद्गुण रहते हैं जो सत्पुरुषों या देवताओं में पाये जाते हैं जबकि अभक्त अपनी शिक्षा तथा संस्कृति के द्वारा भौतिक योग्यताओं में चाहे कितना ही उन्नत क्यों न हो इन ईश्वरीय गुणों से विहीन होता है । अतः स्वजनों, मित्रों तथा सम्बन्धियों को युद्धभूमि में देखते ही अर्जुन उन सबों के लिए करुणा से अभिभूत हो गया, जिन्होंने परस्पर युद्ध करने का निश्चय किया था । जहाँ तक उसके अपने सैनिकों का सम्बन्ध था, वह उनके प्रति प्रारम्भ से दयालु था, किन्तु विपक्षी दल के सैनिकों की आसन्न मृत्यु को देखकर वह उन पर भी दया का अनुभव कर रहा था । और जब वह इस प्रकार सोच रहा था तो उसके अंगों में कंपन होने लगा और मुँह सूख गया । उन सबको युद्धाभिमुख देखकर उसे आश्चर्य भी हुआ । प्रायः सारा कुटुम्ब, अर्जुन के सगे सम्बन्धी उससे युद्ध करने आये थे । यद्यपि इसका उल्लेख नहीं है, किन्तु तो भी सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि न केवल उसके अंग काँप रहे थे और मुँह सूख रहा था अपितु वह दयावश रुदन भी कर रहा था । अर्जुन में ऐसे लक्षण किसी दुर्बलता के कारण नहीं अपितु हृदय की कोमलता के कारण थे जो भगवान् के शुद्ध भक्त का लक्षण है । अतः कहा गया है:-
“यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिंचना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः । हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा मनोरथेनासति धावतो बहिः ।।“
“जो भगवान् के प्रति अविचल भक्ति रखता है उसमें देवताओं के सद्गुण पाये जाते हैं । किन्तु जो भगवद्भक्त नहीं है उसके पास भौतिक योग्यताएँ ही रहती हैं जिनका कोई मूल्य नहीं होता । इसका कारण यह है कि वह मानसिक धरातल पर मँडराता रहता है और ज्वलन्त माया के द्वारा अवश्य ही आकृष्ट होता है ।” ( भागवत ५.१८.१२ )
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते । गाण्डीवं संसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।। (२९)
“मेरे शरीर में कम्पन और रोमांच हो रहा है, हाथ से गाण्डीव धनुष छूट रहा है और त्वचा भी जल रही है ।” (29)
तात्पर्य: शरीर में दो प्रकार का कम्पन होता है और रोंगटे भी दो प्रकार से खड़े होते हैं । ऐसा या तो आध्यात्मिक परमानन्द के समय या भौतिक परिस्थितियों में अत्यधिक भय उत्पन्न होने पर होता है । दिव्य साक्षात्कार में कोई भय नहीं होता । इस अवस्था में अर्जुन के जो लक्षण हैं वे भौतिक भय अर्थात् जीवन की हानि के कारण हैं । अन्य लक्षणों से भी यह स्पष्ट है; वह इतना अधीर हो गया कि उसका विख्यात धनुष गाण्डीव उसके हाथों से सरक रहा था और उसकी त्वचा में जलन उत्पन्न हो रही थी । ये सब लक्षण देहात्मबुद्धि से जन्य हैं ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः । निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।। (३०)
“हे केशव ! मैं अब खड़े रहने में भी समर्थ नहीं हूँ, मेरा मन भी भ्रमित हो रहा है और मैं विभिन्न अशुभ लक्षणों को ही देख रहा हूँ ।” (30)
तात्पर्य: अपने अधैर्य के कारण अर्जुन यूद्धभूमि में खड़ा रहने में असमर्थ था और अपने मन की इस दुर्बलता के कारण उसे आत्मविस्मृति हो रही थी । भौतिक वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आसक्ति के कारण मनुष्य ऐसी मोहमयी स्थिति में पड़ जाता है । भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्यात्-(भागवत ११.२.३७)- ऐसा भय तथा मानसिक असंतुलन उन उत्पन्न होता है जो भौतिक परिस्थितियों से ग्रस्त होते हैं । अर्जुन को युद्धभूमि में केवल दुखदायी पराजय की प्रतीति हो रही थी वह शत्रु पर विजय पाकर भी सुखी नहीं होगा । निमित्तानि विपरीतानि शब्द महत्त्वपूर्ण हैं । जब मनुष्य को अपनी आशाओं में केवल निराशा दिखती है तो वह सोचता है “मैं यहाँ क्यों हूँ ?” प्रत्येक प्राणी अपने में तथा अपने स्वार्थ में रुचि रखता है । किसी की भी परमात्मा में रुचि नहीं होती । कृष्ण की इच्छा से अर्जुन अपने स्वार्थ के प्रति अज्ञान दिखा रहा है । मनुष्य का वास्तविक स्वार्थ तो विष्णु या कृष्ण में निहित है । बद्धजीव इसे भूल जाता है इसीलिए उसे भौतिक कष्ट उठाने पड़ते हैं । अर्जुन ने सोचा कि उसकी विजय केवल उसके शोक का कारण बन सकती है ।
न च श्रेयोनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे।न काळे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।। (३१)
“हे कृष्ण ! मुझे युद्ध में स्वजनों को मारने में कोई मङ्गल दिखाई नहीं दे रहा है, मुझे युद्ध से विजय, राज्य और उसके सुख की भी कामना नहीं है ।” (31)
तात्पर्य: यह जाने बिना कि मनुष्य का स्वार्थ विष्णु (या कृष्ण) में है सारे बद्धजीव शारीरिक सम्बन्धों के प्रति यह सोच कर आकर्षित होते हैं कि वे ऐसी परिस्थितियों में प्रसन्न रहेंगे । ऐसी देहात्मबुद्धि के कारण वे भौतिक सुख के कारणों को भी भूल जाते हैं । अर्जुन तो क्षत्रिय का नैतिक धर्म भी भूल गया था । कहा जाता है कि दो प्रकार के मनुष्य परम शक्तिशाली तथा जाज्वल्यमान सूर्यमण्डल में प्रवेश करने के योग्य होते हैं । ये हैं- एक तो क्षत्रिय जो कृष्ण की आज्ञा से युद्ध में मरता है तथा दूसरा संन्यासी जो आध्यात्मिक अनुशीलन में लगा रहता है । अर्जुन अपने शत्रुओं को भी मारने से विमुख हो रहा है- अपने सम्बन्धियों की बात तो छोड़ दें । वह सोचता है कि स्वजनों को मारने से उसे जीवन में सुख नहीं मिल सकेगा, अतः वह लड़ने के लिए इच्छुक नहीं है, जिस प्रकार कि भूख न लगने पर कोई भोजन बनाने को तैयार नहीं होता । उसने तो वन जाने का निश्चय कर लिया है जहाँ वह एकांत में निराशापूर्ण जीवन काट सके । किन्तु क्षत्रिय होने के नाते उसे अपने जीवननिर्वाह के लिए राज्य चाहिए क्योंकि क्षत्रिय कोई अन्य कार्य नहीं कर सकता । किन्तु अर्जुन के पास राज्य कहाँ है ? उसके लिए तो राज्य प्राप्त करने का एकमात्र अवसर है कि अपने बन्धु- बान्धवों से लड़कर अपने पिता के राज्य का उत्तराधिकार प्राप्त करे जिसे वह करना नहीं चाह रहा है । इसीलिए वह अपने को जंगल में एकान्तवास करके निराशा का एकांत जीवन बिताने के योग्य समझता है ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा।येषामर्थे काङ्कितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।। (३२)
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च । आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।। (३३)
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा । एतान्न हन्तुमिच्छहामि घ्नतोपि मधुसूदन ।। (३४)
“हे गोविंद ! हमें राज्य, भोगों अथवा जीवन से क्या प्रयोजन ? जिनके लिए हमें राज्य और सुखभोग चाहिए, वे सभी आचार्य, पितृव्य, पुत्रगण, पितामह, मामा, श्वसुर, पौत्रगण, श्याले और अन्य सम्बन्धिगण अपने- अपने प्राण और धन के लिए तत्पर होकर मेरे समक्ष उपस्थित हैं । अतः हे मधुसूदन ! ये सब भले ही मेरा वध कर दें, किन्तु मैं इन सबका वध नहीं करना चाहता ।” (32-33-34)
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते । निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।। (३५)
“हे जनार्दन ! इस पृथ्वी की तो बात ही क्या, त्रिलोकी के राज्य के लिए भी हमें धृतराष्ट के पुत्रों को मारकर क्या सुख प्राप्त होगा ?” (35)
तात्पर्य: अर्जुन ने भगवान् कृष्ण को गोविन्द कहकर सम्बोधित किया क्योंकि वे गौवों तथा इन्द्रियों की समस्त प्रसन्नता के विषय हैं । इस विशिष्ट शब्द का प्रयोग करके अर्जुन संकेत करता है कि कृष्ण यह समझें कि अर्जुन की इन्द्रियाँ कैसे तृप्त होंगी । किन्तु गोविन्द हमारी इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए नहीं हैं । हाँ, यदि हम गोविन्द की इन्द्रियों को तुष्ट करने का प्रयास करते हैं तो हमारी इन्द्रियाँ स्वतः तुष्ट होती हैं । भौतिक दृष्टि से, प्रत्येक व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को तुष्ट करना चाहता है और चाहता है कि ईश्वर उसके आज्ञापालक की तरह काम करें । किन्तु ईश्वर उनकी तृप्ति वहीं तक करते हैं जितनी के वे पात्र होते हैं- उस हद तक नहीं जितना वे चाहते हैं । किन्तु जब कोई इसके विपरीत मार्ग ग्रहण करता है अर्थात् जब वह अपनी इन्द्रियों की तृप्ति की चिन्ता न करके गोविन्द की इन्द्रियों की तुष्टि करने का प्रयास करता है तो गोविन्द की कृपा से जीव की सारी इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं । यहाँ पर जाति तथा कुटुम्बियों के प्रति अर्जुन का प्रगाढ़ स्नेह आंशिक रूप से इन सबके प्रति उसकी स्वाभाविक करुणा के कारण है । अतः वह युद्ध करने के लिए तैयार नहीं है । हर व्यक्ति अपने वैभव का प्रदर्शन अपने मित्रों तथा परिजनों के समक्ष करना चाहता है किन्तु अर्जुन को भय है कि उसके सारे मित्र तथा परिजन युद्धभूमि में मारे जायेंगे और वह विजय के पश्चात् उनके साथ अपने वैभव का उपयोग नहीं कर सकेगा । भौतिक जीवन का यह सामान्य लेखाजोखा है । किन्तु आध्यात्मिक जीवन इससे सर्वथा भिन्न होता है । चूँकि भक्त भगवान् की इच्छाओं की पूर्ति करना चाहता है अतः भगवद्- इच्छा होने पर वह भगवान् की सेवा के लिए सारे ऐश्वर्य स्वीकार कर सकता है किन्तु यदि भगवद्- इच्छा न हो तो वह एक पैसा भी ग्रहण नहीं करता । अर्जुन अपने सम्बन्धियों को मारना नहीं चाह रहा था और यदि उनको मारने की आवश्यकता हो तो अर्जन की इच्छा थी कि कृष्ण स्वयं उनका वध करें। इस समय उसे यह पता नहीं है कि कृष्ण उन सबों को युद्ध भूमि में आने के पूर्व ही मार चुके हैं और अब उसे निमित्त मात्र बनना है । इसका उद्घाटन अगले अध्यायों में होगा । भगवान् का असली भक्त होने के कारण अर्जुन अपने अत्याचारी बन्धु- बान्धवों से प्रतिशोध नहीं लेना चाहता था किन्तु यह तो भगवान् की योजना थी कि सबका वध हो । भगवद्भक्त दुष्टों से प्रतिशोध नहीं लेना चाहते किन्तु भगवान् दुष्टों द्वारा भक्त के उत्पीड़न को सहन नहीं कर पाते । भगवान् किसी व्यक्ति को अपनी इच्छा से क्षमा कर सकते हैं किन्तु यदि कोई उनके भक्तों को हानि पहुँचाता है तो वे उसे क्षमा नहीं करते । इसीलिए भगवान् इन दुराचारियों का वध करने के लिए उद्यत थे यद्यपि अर्जुन उन्हें क्षमा करना चाहता था । (32-35)
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैताना ततायिनः तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् । स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।। (३६)
“हे माधव ! इन सभी आततायियों को मारने से हमें पाप ही लगेगा, इसलिए बान्धवों सहित धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करना हमारे लिए अनुचित है । भला स्वजनों को मारने से हम किस प्रकार सुखी होंगे ?” (36)
तात्पर्य: वैदिक आदेशानुसार आततायी छः प्रकार के होते हैं- (१) विष देने वाला, (२) घर में अग्नि लगाने वाला, (३) घातक हथियार से आक्रमण करने वाला, (४) धन लूटने वाला, (५) दूसरे की भूमि हड़पने वाला, तथा (६) पराई स्त्री का अपहरण करने वाला । ऐसे आततायियों का तुरन्त वध कर देना चाहिए क्योंकि इनके वध से कोई पाप नहीं लगता । आततायियों का इस तरह वध करना किसी सामान्य व्यक्ति को शोभा दे सकता है किन्तु अर्जुन कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है | वह स्वभाव से साधु है अतः वह उनके साथ साधुवत् व्यवहार करना चाहता था । किन्तु इस प्रकार का व्यवहार क्षत्रिय के लिए उपयुक्त नहीं है । यद्यपि राज्य के प्रशासन के लिए उत्तरदायी व्यक्ति को साधु प्रकृति होना चाहिए किन्तु उसे कायर नहीं होना चाहिए । उदाहरणार्थ, भगवान् राम इतने साधु थे कि आज भी लोग रामराज्य में रहना चाहते हैं किन्तु उन्होंने कभी कायरता प्रदर्शित नहीं की । रावण आततायी था क्योंकि वह राम की पत्नी सीता का अपहरण करके ले गया था किन्तु राम ने उसे ऐसा पाठ पढ़ाया जो विश्व इतिहास में बेजोड़ है । अर्जुन के प्रसंग में विशिष्ट प्रकार के आततायियों से भेंट होती है- ये हैं उसके निजी पितामह, आचार्य, मित्र, पुत्र, पौत्र इत्यादि । इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि उनके प्रति वह सामान्य आततायियों जैसा कटु व्यवहार न करे । इसके अतिरिक्त, साधु पुरुषों को तो क्षमा करने की सलाह दी जाती है । साधु पुरुषों के लिए ऐसे आदेश किसी राजनीतिक आपातकाल से अधिक महत्त्व रखते हैं । इसलिए अर्जुन ने विचार किया कि राजनीतिक कारणों से स्वजनों का वध करने की अपेक्षा धर्म तथा सदाचार की दृष्टि से उन्हें क्षमा कर देना श्रेयस्कर होगा । अतः क्षणिक शारीरिक सुख के लिए इस तरह वध करना लाभप्रद नहीं होगा । अन्ततः जब सारा राज्य तथा उससे प्राप्त सुख स्थायी नहीं हैं तो फिर अपने स्वजनों को मार कर वह अपने ही जीवन तथा शाश्वत मुक्ति को संकट में क्यों डाले ? अर्जुन द्वारा ‘कृष्ण’ को ‘माधव’ अथवा ‘लक्ष्मीपति’ के रूप में सम्बोधित करना भी सार्थक है । वह लक्ष्मीपति कृष्ण को यह बताना चाह रहा था कि वे उसे ऐसा काम करने के लिए प्रेरित न करें, जिससे अनिष्ट हो । किन्तु कृष्ण कभी भी किसी का अनिष्ट नहीं चाहते, भक्तों का तो कदापि नहीं ।
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः । कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।। (३७) कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् । कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।। (३८)
“हे जनार्दन ! दुर्योधनादि ये लोग राज्य के लोभ से भ्रष्टबुद्धि होकर कुलनाश से उत्पन्न दोष और मित्रद्रोह के पाप को नहीं देख पा रहें हैं, किन्तु कुलनाश से उत्पन्न दोष को देखने वाले हम लोग इन पापों से निवृत्त होने के लिए विचार भला क्यों न करें ?” (37-38)
तात्पर्य : क्षत्रिय से यह आशा नहीं की जाती कि वह अपने विपक्षी दल द्वारा युद्ध करने या जुआ खेलने का आमन्त्रण दिये जाने पर मना करे । ऐसी अनिवार्यता में अर्जुन लड़ने से नकार नहीं सकता क्योंकि उसको दुर्योधन के दल ने ललकारा था । इस प्रसंग में अर्जुन ने विचार किया कि हो सकता है कि दूसरा पक्ष इस ललकार के परिणामों के प्रति अनभिज्ञ हो । किन्तु अर्जुन को तो दुष्परिणाम दिखाई पड़ रहे थे अतः वह इस ललकार को स्वीकार नहीं कर सकता । यदि परिणाम अच्छा हो तो कर्तव्य वस्तुतः पालनीय है किन्तु यदि परिणाम विपरीत हो तो हम उसके लिए बाध्य नहीं होते । इन पक्ष- विपक्षों पर विचार करके अर्जुन ने युद्ध न करने का निश्चय किया ।
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः । धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोभिभवत्युत ।। (३९)
“कुलनाश से सदा से चली आ रही कुल परम्परा द्वारा प्राप्त धर्मसमूह नष्ट हो जाता है, धर्म के नष्ट होने से समस्त कुल को अधर्म दबा लेता है ।” (39)
तात्पर्य : वर्णाश्रम व्यवस्था में धार्मिक परम्पराओं के अनेक नियम हैं जिनकी सहायता से परिवार के सदस्य ठीक से उन्नति करके आध्यात्मिक मूल्यों की उपलब्धि कर सकते हैं । परिवार में जन्म से लेकर मृत्यु तक के सारे संस्कारों के लिए वयोवृद्ध लोग उत्तरदायी होते हैं । किन्तु इन वयोवृद्धों की मृत्यु के पश्चात् संस्कार सम्बन्धी पारिवारिक परम्पराएँ रुक जाती हैं और परिवार के जो तरुण सदस्य बचे रहते हैं वे अधर्ममय व्यसनों में प्रवृत्त होने से मुक्ति- लाभ से वंचित रह सकते हैं । अतः किसी भी कारणवश परिवार के वयोवृद्धों का वध नहीं होना चाहिए ।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः । स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ।। (४०)
“हे कृष्ण ! कुल में अधर्म की वृद्धि होने पर कुल की स्त्रियाँ व्यभिचारिणी हो जाती हैं । हे वृष्णिवंशी ! स्त्रियों के व्यभिचार में रत होने पर वर्णसङ्कर की उत्पत्ति होती है ।” (40)
तात्पर्य: जीवन में शान्ति, सुख तथा आध्यात्मिक उन्नति का मुख्य सिद्धान्त मानव समाज में अच्छी सन्तान का होना है । वर्णाश्रम धर्म के नियम इस प्रकार बनाये गये थे कि राज्य तथा जाति की आध्यात्मिक उन्नति के लिए समाज में अच्छी सन्तान उत्पन्न हो । ऐसी सन्तान समाज में स्त्री के सतीत्व और उसकी निष्ठा पर निर्भर करती है । जिस प्रकार बालक सरलता से कुमार्गगामी बन जाते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी पतनोन्मुखी होती हैं । अतः बालकों तथा स्त्रियों दोनों को ही समाज के वयोवृद्धों का संरक्षण आवश्यक है । स्त्रियाँ विभिन्न धार्मिक प्रथाओं में संलग्न रहने पर व्यभिचारिणी नहीं होंगी । चाणक्य पंडित के अनुसार सामान्यतया स्त्रियाँ अधिक बुद्धिमान नहीं होतीं अतः वे विश्वसनीय नहीं हैं । इसलिए उन्हें विविध कुल- परम्पराओं व्यस्त रहना चाहिए और इस तरह उनके सतीत्व तथा अनुरक्ति से ऐसी सन्तान जन्मेगी जो वर्णाश्रम धर्म में भाग लेने के योग्य होगी । ऐसे वर्णाश्रम- धर्म के विनाश से यह स्वाभाविक है कि स्त्रियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक पुरुषों से मिल सकेंगी और व्यभिचार को प्रश्रय मिलेगा जिससे अवांछित सन्तानें उत्पन्न होगी । निठल्ले लोग भी समाज में व्यभिचार को प्रेरित करते हैं और इस तरह अवांछित बच्चों की बाढ़ आ जाती है जिससे मानव जाति पर युद्ध और महामारी का संकट छा जाता है ।
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च । पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ।। (४१)
“वर्णसङ्कर पुत्र के पितृगण पिण्डहीन व जलहीन होकर निश्चय ही पतित हो जाते हैं और वह कुलघातियों और कुल को नरक में ले जाता है ।” (41)
तात्पर्य: सकाम कर्म के विधिविधानों के अनुसार कुल के पितरों को समय- समय पर जल तथा पिण्डदान दिया जाना चाहिए । यह दान विष्णु पूजा द्वारा किया जाता है क्योंकि विष्णु को अर्पित भोजन के उच्छिष्ट भाग (प्रसाद) के खाने से सारे पापकर्मों से उद्धार हो जाता है । कभी- कभी पितरगण विविध प्रकार के पापकर्मों से ग्रस्त हो सकते हैं और कभी- कभी उनमें से कुछ को स्थूल शरीर प्राप्त न हो सकने के कारण उन्हें प्रेतों के रूप सूक्ष्म शरीर धारण करने के लिए बाध्य होना पड़ता है । अतः जब वंशजों द्वारा पितरों को बचा प्रसाद अर्पित किया जाता है तो उनका प्रेतयोनि या अन्य प्रकार के दुखमय जीवन से उद्धार होता है । पितरों को इस तरह की सहायता पहुँचाना कुल- परम्परा है और जो लोग भक्ति का जीवन – यापन नहीं करते उन्हें ये अनुष्ठान करने होते हैं । केवल भक्ति करने से मनुष्य सैकड़ों क्या हजारों पितरों को ऐसे संकटों से उबार सकता है । भागवत में (११.५.४१) कहा गया है देवर्षि भूताप्तनृणां पितॄणां न किंकरो नायमृणी च राजन् । सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ।। “जो पुरुष अन्य समस्त कर्तव्यों को त्याग कर मुक्ति के दाता मुकुन्द के चरणकमलों की शरण ग्रहण करता है और इस पथ पर गम्भीरतापूर्वक चलता है वह देवताओं, मुनियों, सामान्य जीवों, स्वजनों, मनुष्यों या पितरों के प्रति अपने कर्तव्य या ऋण से मुक्त हो जाता है ।” श्रीभगवान् की सेवा करने से ऐसे दायित्व अपने आप पूरे हो जाते है ।
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः । उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ।। (४२)
“कुलघातियों के इन सभी वर्णसङ्करकारक दोषों के द्वारा सदा से चले आ रहे वर्णधर्म समूह और कुलधर्म समूह विलुप्त हो जाते हैं ।” (42)
तात्पर्य: सनातन- धर्म या वर्णाश्रम- धर्म द्वारा निर्धारित मानव समाज के चारों वर्षों के लिए सामुदायिक योजनाएँ तथा पारिवारिक कल्याण- कार्य इसलिए नियोजित हैं कि मनुष्य चरम मोक्ष प्राप्त कर सके । अतः समाज के अनुत्तरदायी नायकों द्वारा सनातन- धर्म परम्परा के विखण्डन से उस समाज में अव्यवस्था फैलती है, फलस्वरूप लोग जीवन के उद्देश्य विष्णु को भूल जाते हैं । ऐसे नायक अंधे कहलाते हैं और जो लोग इनका अनुगमन करते हैं वे निश्चय ही कुव्यवस्था की ओर अग्रसर होते हैं ।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन । नरके नियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।। (४३)
“हे जनार्दन ! मैंने कुल परम्परागत पुरोहितों से ऐसा सुना है कि कुलधर्म विहीन मनुष्यों को अनन्तकाल तक नरक में वास करना पड़ता है ।” (43)
तात्पर्य: अर्जुन अपने तर्कों को अपने निजी अनुभव पर न आधारित करके आचार्यों से जो सुन रखा है उस पर आधारित करता है । वास्तविक ज्ञान प्राप्त करने की यही विधि है । जिस व्यक्ति ने पहले से ज्ञान प्राप्त कर रखा है उस व्यक्ति की सहायता के बिना कोई भी वास्तविक ज्ञान तक नहीं पहुँच सकता । वर्णाश्रम- धर्म की एक पद्धति के अनुसार मृत्यु के पूर्व मनुष्य को पापकर्मों के लिए प्रायश्चित्त करना होता है । जो पापात्मा है उसे इस विधि का अवश्य उपयोग करना चाहिए । ऐसा किये बिना मनुष्य निश्चित रूप से नरक भेजा जायेगा जहाँ उसे अपने पापकर्मों के लिए कष्टमय जीवन बिताना होगा ।
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् । यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ।। (४४)
“हाय ! यह कितने शोक का विषय है कि हम लोग राज्यसुख के लोभ से स्वजनों की हत्या के लिए उद्यत हैं और यह महापाप करने के लिये कृतसंकल्प हैं ।” (44)
तात्पर्य: स्वार्थ के वशीभूत होकर मनुष्य अपने सगे भाई, बाप या माँ के वध जैसे पापकर्मों में प्रवृत्त हो सकता है । विश्व के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं । किन्तु भगवान् का साधु भक्त होने के कारण अर्जुन सदाचार के प्रति जागरुक है । अतः वह ऐसे कार्यों से बचने का प्रयत्न करता है ।
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः । धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।। (४५)
“यदि शस्त्रविहीन और आत्मरक्षा के लिए प्रयास रहित मुझको धृतराष्ट्र के शस्त्रधारी पुत्रगण युद्ध मे मार भी डालें, तो भी मेरे लिए यह हितकर ही होगा ।” (45)
तात्पर्य: क्षत्रियों के युद्ध-नियमों के अनुसार ऐसी प्रथा है कि निहत्थे तथा विमुख शत्रु पर आक्रमण न किया जाय । किन्तु अर्जुन ने निश्चय किया कि शत्रु भले ही इस विषम अवस्था में उस पर आक्रमण कर दें, किन्तु वह युद्ध नहीं करेगा । उसने इस पर विचार नहीं किया कि दूसरा दल युद्ध के लिए कितना उद्यत है । इन सब लक्षणों का कारण उसकी दयार्द्रता है जो भगवान् के महान भक्त होने के कारण उत्पन्न हुई ।
सञ्जय उवाच- एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् । विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ।। (४६)
“सञ्जय ने कहा- शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन रणभूमि में ऐसा कहकर बाण सहित धनुष का त्याग करके रथ पर बैठ गए।” (46)
तात्पर्य: अपने शत्रु की स्थिति का अवलोकन करते समय अर्जुन रथ पर खड़ा हो गया था, किन्तु वह शोक से इतना संतप्त हो उठा कि अपना धनुष-बाण एक ओर रख कर रथ के आसन पर पुनः बैठ गया । ऐसा दयालु तथा कोमलहृदय व्यक्ति, जो भगवान् की सेवा में रत हो, आत्मज्ञान प्राप्त करने के योग्य है ।
इति श्रीमहाभारते शतसाहस्रयां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासुप निषत्सुब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ‘सैन्यदर्शनं’ नाम प्रथमोऽध्यायः ।
इस प्रकार भगवद्गीता के प्रथम अध्याय “कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।
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