श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय-18
मोक्षसंन्यासयोग
अर्जुन उवाच- संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम् । त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ।। (१)
“अर्जुन ने कहा- हे महाबाहु ! हे हृषिकेश ! हे केशिनिषूदन ! मैं संन्यास और त्याग के तत्त्व को पृथक्- पृथक् जानने का इच्छुक हूँ ।”
श्रीभगवानुवाच- काम्यानां कर्मणांन्यासं संन्यासं कवयो विदुः । सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ।। (२)
“श्रीभगवान् ने कहा कुशल विद्वान् व्यक्ति काम्य कर्मों के स्वरूपतः त्याग को संन्यास जानते हैं और समस्त कर्मों के फल- त्याग को त्याग कहते हैं ।”
त्याज्यं दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिणः । यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यमिति चापरे ।। (३)
“कुछ मनीषी कहते हैं कि दोषयुक्त होने के कारण कर्म स्वरूपतः ही त्यागने योग्य हैं और दूसरे मनीषी कहते हैं कि यज्ञ, दान और तपस्यादि कर्म त्यागने योग्य नहीं है ।”
निश्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तमा त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः सम्प्रकीर्तितः ।। (४)
“हे भरतश्रेष्ठ ! हे पुरुषव्याघ्र ! उनमें से (संन्यास व त्याग में से) त्याग के विषय में मेरा निश्चित सिद्धान्त सुनो । त्याग तीन प्रकार का कहा गया है ।”
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् । यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ।। (५)
“यज्ञ, दान और तपस्यारूप कर्म स्वरूपतः त्यागने योग्य नहीं हैं, ये सभी कर्त्तव्य कर्म हैं । यज्ञ, दान और तपस्या मनीषियों के लिए भी चित्त शुद्धिकारक हैं ।”
एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च । कर्तव्यानीति मे पार्थ निश्चितं मतमुत्तमम् ।। (६)
“हे पार्थ ! ये सभी कर्म भी कर्त्तापन के अभिमान और फल की कामना को त्यागकर करना ही कर्तव्य है, यह मेरा निश्चित उत्तम सिद्धान्त है ।”
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते । मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः ।। (७)
“किन्तु, नित्य कर्म का संन्यास उचित नहीं होता है । अज्ञानवश उसका परित्याग तामसिक कहा गया है ।”
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् । स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ।। (८)
“जो नित्यकर्म को दुःखजनक समझकर शारीरिक क्लेश के भय से त्याग करता है, वह राजसिक त्याग करके त्याग के फल को प्राप्त नहीं करता है ।”
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽर्जुन । सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव सत्यागः सात्त्विको मतः ।। (९)
“हे अर्जुन ! जो नित्य कर्म कर्त्तव्य समझकर और कर्त्तापन के अभिमान व फलकामना को त्यागकर किया जाता है, वह त्याग सात्त्विक माना गया है ।”
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते । त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशयः ।। (१०)
“सतोगुण से युक्त, बुद्धिमान एवं सात्त्विक त्यागी व्यक्ति दुःखदायक कर्म से द्वेष नहीं करता और सुखदायक कर्म में आसक्त भी नहीं होता ।”
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः । यस्तु कर्मफलत्यागी स त्यागीत्यभिधीयते ।। (११)
“देहधारी जीव द्वारा स्वरूपतः समस्त कर्मों को त्यागना सम्भव नहीं है, किन्तु जो व्यक्ति समस्त कर्मों का फल त्यागने वाला है, वह त्यागी ही कहा जाता है ।”
अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मणः फलम् । भवत्यत्यागिनां प्रेत्य नतु संन्यासिनां क्वचित् ।। (१२)
“कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों को नरक का दुःख, स्वर्ग का सुख और मनुष्य जन्म का सुख-दुःख- यह तीन प्रकार का कर्मफल देहत्याग के पश्चात् प्राप्त होता है, किन्तु कर्मफलत्यागियों को कर्मफलभोग कदापि नहीं करना पड़ता ।”
पञ्चैतानि महाबाहो कारणानिनिबोध मे । सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ।। (१३)
“हे महाबाहु ! वेदान्तशास्त्र में किये गये कर्म का नाश करने वाले सिद्धान्त में समस्त कर्मों की सिद्धि के लिए यह पाँच कारण कहे गये हैं, तुम उन्हें मुझसे भलीभाँति जानो ।”
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् । विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ।। (१४)
“शरीर, जीव, नाना प्रकार की इन्द्रियाँ, विविध प्राण- अपान आदि की पृथक् चेष्टाएँ और पाँचवाँ सर्वप्रेरक अन्तर्यामी- (ये कर्म की सिद्धि के पाँच कारण हैं ।)”
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः । न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः ।। (१५)
“मनुष्य अपने शरीर, मन और वाणी के द्वारा शास्त्रोक्त धर्म युक्त अथवा शास्त्र- विरुद्ध अधर्म युक्त जो भी कर्म सम्पादित करता है, उसके ये पाँच ही कारण हैं ।”
तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु यः । पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ।। (१६)
“किन्तु, ऐसा होने पर भी जो मनुष्य केवल जीव को उन कर्मों का कर्त्ता समझता है, संस्कार रहित बुद्धि वाला होने के कारण वह दुर्बुद्धि यथार्थ नहीं समझता है ।”
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते । हत्वापिस इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ।। (१७)
“जिस व्यक्ति के अन्तःकरण में कर्तापन का अभिमान नहीं है एवं जिसकी बुद्धि कर्म में लिप्त नहीं होती, वह इन समस्त प्राणियों का वध करने पर भी वस्तुतः किसी का वध नहीं करता और न वध करने के कर्मफल (पाप) में बँधता है ।”
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना । करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ।। (१८)
“ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता- ये तीन कर्म के प्रेरक हैं।इन्द्रियाँ, कर्म और कर्ता- ये तीन कर्म के आश्रय हैं ।”
ज्ञानं कर्म च कर्ताच त्रिधैव गुणभेदतः । प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृणु तान्यपि ।। (१९)
“गुणों की संख्या करने वाले शास्त्र में गुणों के भेद से ज्ञान, कर्म और कर्त्ता तीन प्रकार के ही कहे गये हैं । तुम उनको भी मुझसे यथावत् सुनो ।”
सर्वभूतेषु येनैकं भावमव्ययमीक्षते । अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्त्विकम् ।। (२०)
“एक ही जीवतत्त्व नाना प्रकार के कर्मफलों को भोगने के लिए मनुष्य, देवता, पशु आदि शरीरों में विद्यमान है । सभी जीव परस्पर भिन्न होने पर भी एक समजातीय चेतन तत्त्व हैं और नश्वर देहादि में रहने पर भी अनश्वर है । जिस ज्ञान द्वारा ऐसा दर्शन किया जाता है, वह सात्त्विक ज्ञान है ।”
पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान् । वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम् ।। (२१)
“किन्तु मनुष्य, पशु, पक्षी आदि योनियों में जो पृथक्- पृथक् जीव विद्यमान हैं, वे पृथक् जातीय और पृथक् स्वरूप वाले हैं; जिस ज्ञान द्वारा व्यक्ति ऐसा जानता है, उस ज्ञान को राजसिक जानो ।”
यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन्कार्ये सक्तमहैतुकम् । अतत्त्वार्थवदल्पंच तत्तामसमुदाहृतम् ।। (२२)
“और जो ज्ञान स्नान- भोजनादि शारीरिक कार्यों में परिपूर्ण की भाँति अभिनिवेश करा देता है, जो शास्त्र युक्तिरहित, तत्त्वार्थ से रहित और पशु आदि की तरह तुच्छ होता है, वह तामसिक ज्ञान कहा जाता है ।”
नियतं सङ्गरहितमरागद्वेषतः कृतम् । अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्त्विकमुच्यते ।। (२३)
“जो नित्य कर्म फलकामना- शून्य व्यक्ति द्वारा कर्त्तापन के अभिमान से रहित होकर तथा राग- द्वेष की भावना के बिना किया जाता है, वह सात्त्विक कर्म कहलाता है ।”
यत्तु कामेप्सुना कर्म साहंकारेण वा पुनः । क्रियते बहुलायास तद्राजसमुदाहृतम् ।। (२४)
“किन्तु, जो कर्म फलकांक्षी अथवा अहंकारी व्यक्ति द्वारा अत्यन्त परिश्रमपूर्वक किया जाता है, वह राजसिक कहलाता है ।”
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनपेक्ष्य च पौरुषम् । मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ।। (२५)
“जो कर्म भावी क्लेश, धर्म- ज्ञान आदि के नाश, हिंसा तथा अपनी सामर्थ्य को न विचारकर केवल अज्ञानवश आरम्भ किया जाता है, वह तामसिक कहलाता है ।”
मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः । सिद्ध्यसिद्धयोर्निर्विकारः कर्ता सात्त्विक उच्यते ।। (२६)
“आसक्ति रहित, अहङ्कार शून्य, धैर्य और उत्साह से युक्त तथा कार्य की सफलता और असफलता में हर्ष- शोक आदि विकारों से रहित कर्त्ता ही सात्त्विक कहलाता है ।”
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचिः । हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ।। (२७)
“कर्म में आसक्त, कर्मफलकामी, विषयासक्त, हिंसक स्वभाव वाला, अशुद्धाचारी और हर्ष- शोक से युक्त कर्ता राजसिक कहा जाता है ।”
अयुक्तः प्राकृतः स्तब्धः शठो नैष्कृतिकोऽलसः । विषादी दीर्घसूत्री च कर्ता तामस उच्यते ।। (२८)
“अनुचित कर्मकारी, निज स्वभावानुसार चेष्टायुक्त, अनम्र, दुष्ट, दूसरों का अपमान करने वाला, आलसी, शोकाकुल और अत्यन्त धीमी गति में विलम्ब से काम करने वाला कर्त्ता तामसिक कहलाता है ।”
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु । प्रोच्यमानमशेषेण पृथक्त्वेन धनंजय ।। (२९)
“हे धनञ्जय ! तीन गुणों के अनुसार बुद्धि और धृति के भी तीन प्रकार सम्पूर्णरूप से और पृथक् रूप से कहे गये हैं, उन्हें सुनो ।”
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च कार्याकार्ये भयाभये । बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ।। (३०)
“हे पार्थ ! जो बुद्धि प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्तिमार्ग, करणीय और अकरणीय, भय और अभय तथा बन्धन और मोक्ष को यथार्थ रूप में जानती है, वह बुद्धि सात्त्विकी है ।”
यया धर्ममधर्मं च कार्य चाकार्यमेव च । अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी ।। (३१)
“हे पार्थ ! जिस बुद्धि के द्वारा धर्म और अधर्म तथा करणीय और अकरणीय को यथार्थ रूप में नहीं जाना जा सकता, वह बुद्धि राजसी है ।”
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता । सर्वार्थाविपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी ।। (३२)
“हे पार्थ ! तमोगुण से ढकी हुई जो बुद्धि है, वह अधर्म को धर्म मानती है और शास्त्र के सभी अर्थों को विपरीत ही समझती है, वह बुद्धि तामसी है ।”
धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः । योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी ।। (३३)
“हे पार्थ ! ध्यानयोग द्वारा जिस अव्यभिचारिणी धारण शक्ति द्वारा मनुष्य मन, प्राण और इन्द्रियों की क्रियाओं को धारण करता है, वह धृति (धारणा) सात्त्विकी है ।”
यया तु धर्मकामार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन । प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी ।। (३४)
“हे अर्जुन ! हे पार्थ ! आसक्तिवश फलाकांक्षी होकर मनुष्य जिस धारणा द्वारा धर्म, काम और अर्थ को धारण करता है, वह धारणा राजसिक है ।”
यया स्वप्नं भयं शोकं विषादंमदमेव च । न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी ।। (३५)
“हे पार्थ ! जिस धारणा द्वारा दुर्बुद्धि वाला मनुष्य निद्रा, भय, शोक, विषाद और मद का त्याग नहीं करता, वह धारणा तामसिक है ।”
सुखं त्विदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ । अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति ।। (३६)
यत्तदने विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् । तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसा दजम् ।। (३७)
“हे भरतश्रेष्ठ ! अब मुझसे सुख के भी तीन भेद सुनो । जिस सुख में पुनः पुनः अनुशीलन करने पर ही आसक्त हुआ जाता है और जिसमें आसक्त होने से संसाररूप दुःख का अन्त प्राप्त होता है।जो सुख प्रारम्भ में तो विष के समान, किन्तु परिणाम में अमृत के समान लगता है और परमात्म- विषयक बुद्धि की निर्मलता से उत्पन्न होता है, उस सुख को सात्त्विक कहते हैं ।”
विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तद ग्रेऽमृतोपमम् । परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।। (३८)
“जो सुख विषय और इन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होता है, प्रारम्भ में तो वह अमृत के समान लगता है, किन्तु परिणाम में वही विष तुल्य हो जाता है; वह सुख राजसिक कहा जाता है ।”
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः । निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ।। (३९)
“जो सुख प्रारम्भ में भी और परिणाम में भी जीव को मोहित करने वाला है, वह निद्रा, आलस्य और प्रमादादि से उत्पन्न सुख तामसिक कहलाता है ।”
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः । सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्रिभिर्गुणैः ।। (४०)
“पृथ्वी अथवा स्वर्ग में, इतना ही नहीं देवताओं में भी कोई वैसा प्राणी नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से मुक्त हो अर्थात् त्रिलोकी में प्रत्येक प्राणी व वस्तु प्रकृति के तीन गुणों के अधीन है ।”
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप । कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ।। (४१)
“हे परन्तप ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के समस्त कर्म स्वभाव से उत्पन्न गुणों के अनुसार विभक्त किये गये हैं ।”
शमो दमस्तपःशौचं क्षान्तिरार्जवमेव च । ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।। (४२)
“अन्तःकरण का संयम, बहिःकरण का संयम, धर्म पालन के लिए कष्ट सहना, भीतर- बाहर की शुद्धि, क्षमाशीलता, सरलता, शास्त्र विषयक ज्ञान, परमात्म तत्त्व का अनुभूति ज्ञान और शास्त्र के अर्थ में दृढ़ विश्वास- ये सब ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म है ।”
शौर्यं तेजो धृतिक्ष्यिं युद्धे चाप्यपलायनम् । दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।। (४३)
” पराक्रम, साहस, धैर्य, कार्यकुशलता, युद्ध से पलायन न करना, दानशीलता और लोक- नेतृत्वता- ये सभी क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म है ।”
कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् । परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ।। (४४)
“कृषि, गौरक्षण और व्यापार- ये वैश्य के स्वाभाविक कर्म है तथा के लिये परिचर्या (अन्य वर्गों की सेवा) स्वाभाविक कर्म है ।”
स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः । स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ।। (४५)
“अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में लगा हुआ मनुष्य ज्ञाननिष्ठा रूप सिद्धि प्राप्त करता है । अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से सिद्धि प्राप्त करता है, वह तुम मुझसे सुनो ।”
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ।। (४६)
“जिनसे समस्त प्राणियों की उत्पत्ति होती हैं और जिनसे यह सम्पूर्ण विश्व व्याप्त है; उन परमेश्वर की अपने कर्म द्वारा पूजा करके मनुष्य ज्ञाननिष्ठा रूप सिद्धि प्राप्त करता है ।”
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ।। (४७)
“उत्तमरूप से आचरण किये गये दूसरे के धर्म से निकृष्ट होकर भी अपना धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि स्वभावविहित कर्म करने से मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता ।”
सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ।। (४८)
“हे कौन्तेय ! स्वाभाविक कर्म को दोषयुक्त होने पर भी त्यागना नहीं चाहिए, क्योंकि समस्त कर्म धुएँ से अग्नि की भाँति किसी न किसी दोष के द्वारा आवृत हैं ।”
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः । नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ।। (४९)
“जिसकी समस्त प्राकृत वस्तुओं में आसक्ति रहित बुद्धि है, जिसका चित्त वशीभूत है और जो समस्त सुखों में स्पृहाशून्य है; वह स्वरूपतः कर्मत्याग द्वारा नैष्कर्म्यरूपी श्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त करता है ।”
सिद्धि प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्नोति निबोध मे । समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ।। (५०)
“हे कौन्तेय ! ज्ञान की चरम सीमा ब्रह्म को नैष्कर्म्यरूपी सिद्धि प्राप्त व्यक्ति जिस प्रकार प्राप्त करता है, उस उपाय को तुम मुझसे संक्षेप में ही जानो ।”
बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च । शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च ।। (५१)
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानसः । ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ।। (५२)
अहंकारं बलं दर्प कामं क्रोधं परिग्रहम् । विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। (५३)
“सात्त्विक बुद्धि युक्त होकर, धृति द्वारा मन को वश में करके, शब्दादि विषयों को त्यागकर, राग- द्वेष को दूर करके, निर्जनस्थान में वास करने वाला, अल्पाहारी, शरीर, मन व वाणी को वश में करके, नित्य ध्यानयोग परायण होकर और वैराग्य का आश्रय लेकर, अहंकार, बल, घमण्ड, काम क्रोध और जड़ वस्तुओं की संग्रह प्रवृत्ति को त्यागकर, ममताविहीन शान्त व्यक्ति ही ब्रह्मानुभूतिके योग्य होता है ।”
ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति । समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ।। (५४)
“ब्रह्मभूत अवस्था (त्रिगुणातीत अवस्था) प्राप्त प्रसन्नचित्त व्यक्ति न तो शोक करता है और न ही इच्छा करता है।वह समस्त प्राणियों के प्रति समदर्शी होकर मेरी प्रेमलक्षणा भक्ति प्राप्त करता है ।”
भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्वास्मि तत्त्वतः । ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ।। (५५)
“उस प्रेमलक्षणा भक्ति के द्वारा ही वह ब्रह्मभूत अवस्था प्राप्त व्यक्ति मैं जितना हूँ और जैसा हूँ, तत्त्वतः जान सकता है तथा उस प्रेमलक्षणा भक्ति के द्वारा मुझे तत्त्वतः जानकर तत्काल ही वह मेरे लोक में अथवा मेरी नित्यलीला में प्रवेश करता है ।”
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्यपाश्रयः । मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ।। (५६)
“मेरा भक्त सदा समस्त कर्मों को करता हुआ भी मेरी कृपा से शाश्वत, अव्यय धाम को प्राप्त करता है ।”
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः । बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ।। (५७)
“चित्त द्वारा सभी कर्मों को मुझे अर्पण करके तथा बुद्धियोग का आश्रय लेकर मेरे परायण और सर्वदा मुझमें चित्तवाला होओ ।”
मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादत्तरिष्यसि । अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनक्ष्यसि ।। (५८)
“मुझमें चित्त लगाकर तुम मेरी कृपा से समस्त बाधाओं से पार हो जाओगे और यदि तुम अहंकारवश मेरे वचनों को नहीं सुनोगे तो विनष्ट हो जाओगे ।”
यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ।। (५९)
“अहंकार का अवलम्बन करके तुम जो यह मान रहे हो कि मैं युद्ध नहीं करूँगा, तुम्हारा यह संकल्प मिथ्या ही है, क्योंकि तुम्हारा क्षत्रिय स्वभाव तुम्हें बलपूर्वक युद्ध में लगा देगा ।”
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा । कर्तु नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽ पि तत् ।। (६०)
“हे कौन्तेय ! मोह के वशीभूत होकर जिस कर्म को तुम इस समय करना नहीं चाहते, अपने स्वभाव से उत्पन्न कर्म से बँधकर तुम उसे परवश होकर करोगे ।”
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ।। (६१)
“हे अर्जुन ! अन्तर्यामी परमात्मा समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित है और अपनी माया द्वारा शरीर रूपी यन्त्र में आरूढ़ हुए समस्त जीवों को उनके कर्मों के अनुसार संसार- चक्र में भ्रमण कराता रहता है ।”
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । II तत्प्रसादात्परांशान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ।। (६२)
“हे भरतवंशी ! तुम सब प्रकार से उन ईश्वर की ही शरण में जाओ । उनकी कृपा से तुम परम शान्ति और सनातन परम धाम को प्राप्त करोगे ।”
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया । विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ।। (६३)
“इस प्रकार मेरे द्वारा तुम्हें गोपनीय से भी अति गोपनीय ज्ञान कहा गया है । इसे भलीभाँति विचारकर तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा करो ।”
सर्वगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः । इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम् ।। (६४)
“मेरा सर्वाधिक गोपनीय परम उपदेश पुनः सुनो । तुम मेरे अतिशय प्रिय हो, अतः मैं तुम्हें यह हितोपदेश कहूँगा ।”
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ।। (६५)
“मेरा भक्त बनकर अपना मन मुझमें लगाओ, मेरी पूजा करो और मुझे प्रणाम करो । ऐसा करने से तुम मुझे ही प्राप्त करोगे । मैं तुमसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ, क्योंकि तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो ।”
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्ष्ययिष्यामि मा शुचः ।। (६६)
“भक्ति के अतिरिक्त अन्य साधनों और वर्णाश्रमादि सभी धर्मों का परित्याग करके एकमात्र मेरी शरण ग्रहण करो । मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूंगा, तुम शोक मत करो ।”
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ।। (६७)
“यह गीता शास्त्र तुम्हें कभी भी अजितेन्द्रिय, अभक्त, श्रवण में अनिच्छुक और मेरी निन्दा करने वाले को नहीं कहना चाहिए ।”
य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति । भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ।। (६८)
“जो इस परम गोपनीय गीता शास्त्र का उपदेश मेरे भक्तों में करेगा, वह प्रथमतः मेरी प्रेमलक्षणा भक्ति प्राप्त करके तत्पश्चात् मुझे ही प्राप्त होगा- इसमें कोई संशय नहीं है ।”
न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः । भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ।। (६९)
“मनुष्यों में गीताशास्त्र के उपदेशक की अपेक्षा अन्य कोई मेरा अधिक प्रिय कार्य करने वाला नहीं है और इस पृथ्वी पर उसकी अपेक्षा अन्य कोई मेरा अतिप्रिय भविष्य में होगा भी नहीं ।”
अध्येष्यते च य इमं धर्म्य संवादमावयोः । ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ।। (७०)
“और जो व्यक्ति हम दोनों के इस धर्ममय संवाद रूप गीताशास्त्र का अध्ययन करेगा उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ द्वारा पूजित होऊँगा, ऐसा मेरा मत है ।”
श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः । सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्य कर्मणाम् ।। (७१)
“जो व्यक्ति मेरे प्रति श्रद्धावान् और दोषदृष्टि रहित होकर इस गीताशास्त्र का श्रवण भी करेगा, वह भी पापमुक्त होकर अश्वमेध यज्ञादि पुण्य कर्म करने वालों को प्राप्त होने वाले शुभ लोकों को प्राप्त करेगा ।”
कच्चिदेतच्छ्रुतं पार्थ त्वयैकाग्रेण चेतसा । कच्चिदज्ञानसम्मोहः प्रनष्टस्ते धनञ्जय ।। (७२)
“हे पार्थ ! हे धनञ्जय ! क्या तुमने इस गीताशास्त्र को एकाग्रचित्त होकर सुना है ? और क्या तुम्हारा अज्ञानजनित मोह नष्ट हो गया है ?”
अर्जुन उवाच नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत । स्थितोऽस्मि गतसंदेहः करिष्ये वचनं तव ।। (७३)
“अर्जुन ने कहा- हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मुझे आत्मस्वरूप की स्मृति प्राप्त हुई है । अब मैं संशयरहित होकर आपकी शरण में स्थित हूँ । मैं आपके आदेश का पालन करूँगा ।”
सज्जय उवाच इत्यहं वासुदेवस्य पार्थस्य च महात्मनः । संवादमिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम् ।। (७४)
“सञ्जय ने धृतराष्ट्र से कहा- इस प्रकार मैंने वासुदेव श्रीकृष्ण तथा महात्मा अर्जुन के इस आश्चर्यजनक और रोमाञ्चकारी संवाद को सुना ।”
व्यासप्रसादाच्छ्रुतवानेत द्गुह्यमहं परम् । योगं योगेश्वरात्कृष्णात्साक्षात् कथयतः स्वयम् ।। (७५)
“महर्षि श्रीवेदव्यास जी की कृपा से मैंने इस परम गोपनीय योगशास्त्र को स्वयं वर्णन करते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण से सुना है ।”
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम् । केशवार्जुनयोः पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहुः ।। (७६)
“हे राजन् ! श्रीकेशव और अर्जुन के इस पवित्र और विस्मयकारी संवाद को पुनः पुनः स्मरण करके मैं बारम्बार हर्षित हो रहा हूँ ।”
विस्मयो मे महान् तच्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूपमत्यद्भुतं हरेः ।। राजन्हृष्यामि च पुनः पुनः ।। (७७)
“हे राजन् ! श्रीहरि के उस अति विलक्षण रूप को बारम्बार स्मरण करके मुझे महान् आश्चर्य हो रहा है और मैं पुनः पुनः हर्षित हो रहा हूँ ।”
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः । तत्र श्रीविजयो भूतिर्बुवा नीतिर्मतिर्मम ।। (७८)
“जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर राज्यलक्ष्मी, विजय, उत्तरोत्तर ऐश्वर्यवृद्धि और स्थिर न्यायपरायणता है- यही मेरा मत है ।”
“इति श्रीमहाभारते शतसाहस्रयां संहितायां वैयासिक्यां भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूपनि षत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ‘मोक्षसंन्यासयोगो’ नाम अष्टादशोऽध्यायः”
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