(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य) छठा अध्याय
(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य)
सप्ताहयज्ञकी विधि
श्रीसनकादि कहते हैं– नारदजी! अब हम आपको सप्ताहश्रवण की विधि बताते हैं । यह विधि प्रायः लोगों की सहायता और धन से साध्य कही गयी है ॥१॥ पहले तो यत्नपूर्वक ज्योतिषी को बुलाकर मुहूर्त पूछना चाहिये तथा विवाह के लिये जिस प्रकार धन का प्रबन्ध किया जाता है उस प्रकार ही धन की व्यवस्था इसके लिये करनी चाहिये ॥२॥ कथा आरम्भ करने में भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, आषाढ़ और श्रावण ये छः महीने श्रोताओं के लिये मोक्ष की प्राप्ति के कारण हैं ॥ ३ ॥ देवर्षे! इन महीनों में भी भद्रा व्यतीपात आदि कुयोगों को सर्वथा त्याग देना चाहिये। तथा दूसरे लोग जो उत्साही हों, उन्हें अपना सहायक बना लेना चाहिये ॥ ४ ॥ फिर प्रयत्न करके देश-देशान्तरों में यह संवाद भेजना चाहिये कि यहाँ कथा होगी, सब लोगों को सपरिवार पधारना चाहिये ॥ ५ ॥ स्त्री और शूद्रादि भगवत्कथा एवं संकीर्तन से दूर पड़ गये हैं। उनको भी सूचना हो जाय, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये ॥ ६ ॥ देश-देश में जो विरक्त वैष्णव और हरिकीर्तन के प्रेमी हों, उनके पास निमन्त्रणपत्र अवश्य भेजे। उसे लिखने की विधि इस प्रकार बतायी गयी है॥७॥ ‘महानुभावो! यहाँ सात दिन तक सत्पुरुषों का बड़ा दुर्लभ समागम रहेगा और अपूर्व रसमयी श्रीमद्भागवत की कथा होगी ॥ ८ ॥ आप लोग भगवद्रस के रसिक हैं, अतः श्रीभागवतामृत का पान करने के लिये प्रेमपूर्वक शीघ्र ही पधारने की कृपा करें ॥ ९ ॥ यदि आपको विशेष अवकाश न हो, तो भी एक दिन के लिये तो अवश्य ही कृपा करनी चाहिये; क्योंकि यहाँ का तो एक क्षण भी अत्यन्त दुर्लभ है।’ ॥ १० ॥ इस प्रकार विनयपूर्वक उन्हें निमन्त्रित करे और जो लोग आयें, उनके लिये यथोचित निवासस्थान का प्रबन्ध करे ॥ ११ ॥
कथा का श्रवण किसी तीर्थ में, वन में अथवा अपने घरपर भी अच्छा माना गया है। जहाँ लंबा चौड़ा मैदान हो, वहीं कथा स्थल रखना चाहिये ॥ १२ ॥ भूमिका शोधन, मार्जन और लेपन करके रंग बिरंगी धातुओं से चौक पूरे। घर की सारी सामग्री उठाकर एक कोने में रख दे ॥ १३ ॥ पाँच दिन पहले से ही यत्नपूर्वक बहुत से बिछाने के वस्त्र एकत्र कर ले तथा केले के खंभों से सुशोभित एक ऊँचा मण्डप तैयार कराये ॥ १४ ॥ उसे सब ओर फल, पुष्प, पत्र और चँदोवे से अलंकृत करे तथा चारों ओर झंडियाँ लगाकर तरह-तरह के सामानों से सजा दे॥ १५ ॥ उस मण्डप में कुछ ऊँचाई पर सात विशाल लोकों की कल्पना करे और उनमें विरक्त ब्राह्मणों को बुला-बुलाकर बैठाये ॥ १६ ॥ आगे की ओर उनके लिये वहाँ यथोचित आसन तैयार रखे। इनके पीछे वक्ता के लिये भी एक दिव्य सिंहासन का प्रबन्ध करे ॥ १७॥ यदि वक्ता का मुख उत्तर की ओर रहे, तो श्रोता पूर्वाभिमुख होकर बैठे और यदि वक्ता पूर्वाभिमुख रहे तो श्रोता को उत्तर की ओर मुख करके बैठना चाहिये ॥ १८ ॥ अथवा वक्ता और श्रोता को पूर्वमुख होकर बैठना चाहिये। देश-काल आदि को जानने वाले महानुभावों ने श्रोता के लिये ऐसा ही नियम बताया है ॥ १९ ॥ जो वेद-शास्त्र की स्पष्ट व्याख्या करने में समर्थ हो, तरह-तरह के दृष्टान्त दे सकता हो तथा विवेकी और अत्यन्त निःस्पृह हो, ऐसे विरक्त और विष्णुभक्त ब्राह्मण को वक्ता बनाना चाहिये॥ २० ॥ श्रीमद्भागवत के प्रवचन में ऐसे लोगों को नियुक्त नहीं करना चाहिये जो पण्डित होनेपर भी अनेक धर्मो के चक्कर में पड़े हुए, स्त्री लम्पट एवं पाखण्ड के प्रचारक हों ॥ २१ ॥ वक्ता के पास ही उसकी सहायता के लिये एक वैसा ही विद्वान् और स्थापित करना चाहिये। वह भी सब प्रकार के संशयों की निवृत्ति करने में समर्थ और लोगों को समझाने में कुशल हो ॥ २२ ॥ कथा-प्रारम्भ के दिन से एक दिन पूर्व व्रत ग्रहण करने के लिये वक्ता को क्षौर करा लेना चाहिये। तथा अरुणोदय के समय शौच से निवृत्त होकर अच्छी तरह स्नान करे ॥ २३ ॥ और संध्यादि अपने नित्यकर्मों को संक्षेप से समाप्त करके कथा के विघ्नों की निवृत्ति के लिये गणेशजी का पूजन करे ॥ २४ ॥ तदनन्तर पितृगण का तर्पण कर पूर्व पापों की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त करे और एक मण्डल बनाकर उसमें श्रीहरि को स्थापित करे ॥ २५ ॥ फिर भगवान् श्रीकृष्ण को लक्ष्य करके मन्त्रोच्चारणपूर्वक क्रमशः षोडशोपचारविधि से पूजन करे और उसके पश्चात् प्रदक्षिणा तथा नमस्कारादि कर इस प्रकार स्तुति करे ॥ २६ ॥ ‘करुणानिधान ! मैं संसार-सागर में डूबा हुआ और बड़ा दीन हूँ। कर्मों के मोहरूपी ग्राह ने मुझे पकड़ रखा है। आप इस संसार-सागर से मेरा उद्धार कीजिये’ ॥ २७ ॥ इसके पश्चात् धूप-दीप आदि सामग्रियों से श्रीमद्भागवत की भी बड़े उत्साह और प्रीतिपूर्वक विधि-विधान से पूजा करे ॥ २८ ॥ फिर पुस्तक के आगे नारियल रखकर नमस्कार करे और प्रसन्नचित्त से इस प्रकार स्तुति करे – ॥ २९ ॥ ‘श्रीमद्भागवत के रूप में आप साक्षात् श्रीकृष्णचन्द्र ही विराजमान हैं। नाथ ! मैंने भवसागर से छुटकारा पाने के लिये आपकी शरण ली है ॥ ३० ॥ मेरा यह मनोरथ आप बिना किसी विघ्न-बाधा के सांगोपांग पूरा करें। केशव! मैं आपका दास हूँ’ ॥ ३१ ॥ इस प्रकार दीन वचन कहकर फिर वक्ता का पूजन करे। उसे सुन्दर वस्त्राभूषणों से विभूषित करे और फिर पूजा के पश्चात् उसकी इस प्रकार स्तुति करे- ॥ ३२ ॥ ‘शुकस्वरूप भगवन् ! आप समझाने की कला में कुशल और सब शास्त्रों में पारंगत हैं; कृपया इस कथा को प्रकाशित करके मेरा अज्ञान दूर करें’ ॥ ३३ ॥ फिर अपने कल्याण के लिये प्रसन्नतापूर्वक उसके सामने नियम ग्रहण करे और सात दिनों तक यथाशक्ति उसका पालन करे ॥ ३४ ॥ कथा में विघ्न न हो, इसके लिये पाँच ब्राह्मणों को और वरण करे; वे द्वादशाक्षर मन्त्रद्वारा भगवान् के नामों का जप करें ॥ ३५ ॥ फिर ब्राह्मण, अन्य विष्णुभक्त एवं कीर्तन करनेवालों को नमस्कार करके उनकी पूजा करे और उनकी आज्ञा पाकर स्वयं भी आसनपर बैठ जाय ॥ ३६ ॥ जो पुरुष लोक, सम्पत्ति, धन, घर और पुत्रादि की चिन्ता छोड़कर शुद्धचित्त से केवल कथा में ही ध्यान रखता है, उसे इसके श्रवण का उत्तम फल मिलता है ॥ ३७॥ बुद्धिमान् वक्ता को चाहिये कि सूर्योदय से कथा आरम्भ करके साढ़े तीन पहर तक मध्यम स्वर से अच्छी तरह कथा बाँचे ॥ ३८ ॥ दोपहर के समय दो घड़ी तक कथा बंद रखे। उस समय कथा के प्रसंग के अनुसार वैष्णवों को भगवान् के गुणों का कीर्तन करना चाहिये-व्यर्थ बातें नहीं करनी चाहिये ॥ ३९ ॥ कथा के समय मल-मूत्र के वेग को काबूमें रखने के लिये अल्पाहार सुखकारी होता है, इसलिये श्रोता केवल एक ही समय हविष्यान्न भोजन करे ॥ ४० ॥ यदि शक्ति हो तो सातों दिन निराहार रहकर कथा सुने अथवा ” केवल घी या दूध पीकर सुखपूर्वक श्रवण करे ॥ ४१ ॥ अथवा फलाहार या एक समय ही भोजन करे। जिससे जैसा नियम सुभीते से सध सके, उसी को कथा श्रवण के लिये ग्रहण करे ॥ ४२ ॥ मैं तो उपवास की अपेक्षा भोजन करना अच्छा समझता हूँ, यदि वह कथा श्रवण में सहायक हो। यदि उपवास से श्रवण में बाधा पहुँचती हो तो वह किसी काम का नहीं ॥ ४३ ॥ नारदजी! नियम से सप्ताह सुनने वाले पुरुषों के नियम सुनिये। विष्णुभक्त की दीक्षा से रहित पुरुष कथा श्रवण का अधिकारी नहीं है ॥ ४४॥ जो पुरुष नियम से कथा सुने, उसे ब्रह्मचर्य से रहना, भूमि पर सोना और नित्यप्रति कथा समाप्त होने पर पत्तल में भोजन करना चाहिये ॥ ४५ ॥ दाल, मधु, तेल, गरिष्ठ अन्न, भावदूषित पदार्थ और बासी अन्न इनका उसे सर्वदा ही त्याग करना चाहिये ॥ ४६॥ काम, क्रोध, मद, मान, मत्सर, लोभ, दम्भ, मोह और द्वेष को तो अपने पास भी नहीं फटकने देना चाहिये ॥४७॥ वह वेद, वैष्णव, ब्राह्मण, गुरु, गोसेवक तथा स्त्री, राजा और महापुरुषों की निन्दा से भी बचे॥ ४८ ॥ नियम से कथा सुननेवाले पुरुष को रजस्वला स्त्री, अन्त्यज, म्लेच्छ, पतित, गायत्रीहीन द्विज, ब्राह्मणों से द्वेष करनेवाले तथा वेद को न मानने वाले पुरुषों से बात नहीं करनी चाहिये ॥ ४९ ॥ सर्वदा सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय और उदारता का बर्ताव करना चाहिये ॥ ५० ॥ धनहीन, क्षयरोगी, किसी अन्य रोग से पीड़ित, भाग्यहीन, पापी, पुत्रहीन और मुमुक्षु भी यह कथा श्रवण करे ॥ ५१ ॥ जिस स्त्री का रजोदर्शन रुक गया हो, जिसके एक ही संतान होकर रह गयी हो, जो बाँझ हो, जिसकी संतान होकर मर जाती हो अथवा जिसका गर्भ गिर जाता हो, वह यत्नपूर्वक इस कथा को सुने ॥ ५२ ॥ ये सब यदि विधिवत् कथा सुनें तो इन्हें अक्षय फल की प्राप्ति हो सकती है। यह अत्युत्तम दिव्य कथा करोड़ों यज्ञों का फल देने वाली है ॥ ५३ ॥ इस प्रकार इस व्रत की विधियों का पालन करके फिर उद्यापन करे। जिन्हें इसके विशेष फल की इच्छा हो, वे जन्माष्टमी-व्रत के समान ही इस कथाव्रत का उद्यापन करें ॥ ५४॥ किन्तु जो भगवान् के अकिंचन भक्त हैं, उनके लिये उद्यापन का कोई आग्रह नहीं है। वे श्रवण से ही पवित्र हैं; क्योंकि वे तो निष्काम भगवद्भक्त हैं ॥ ५५ ॥ इस प्रकार जब सप्ताहयज्ञ समाप्त हो जाय, तब श्रोताओं को अत्यन्त भक्तिपूर्वक पुस्तक वक्ता की पूजा करनी चाहिये ॥ ५६ ॥ फिर वक्ता और श्रोताओं को प्रसाद, तुलसी और प्रसादी मालाएँ दे तथा सब लोग मृदंग और झाँझकी मनोहर ध्वनि से सुन्दर कीर्तन करें ॥ ५७ ॥ जय-जयकार, नमस्कार और शंखध्वनिका घोष कराये तथा ब्राह्मण और याचकों को धन और अन्न दे ॥ ५८ ॥ श्रोता विरक्त हो तो कर्म की शान्ति के लिये दूसरे दिन गीतापाठ करे; गृहस्थ हो तो हवन करे ॥ ५९ ॥ उस हवन में दशमस्कन्ध का एक-एक श्लोक पढ़कर विधिपूर्वक खीर, मधु, घृत, तिल और अन्नादि सामग्रियों से आहुति दे ॥ ६० ॥ अथवा एकाग्र चित्त से गायत्री मन्त्रद्वारा हवन करे; क्योंकि तत्त्वतः यह महापुराण गायत्री स्वरूप ही है ॥ ६१ ॥ होम करने की शक्ति न हो तो उसका फल प्राप्त करने के लिये ब्राह्मणों को हवनसामग्री दान करे तथा नाना प्रकार की त्रुटियों को दूर करने के लिये और विधि में फिर जो न्यूनाधिकता रह गयी हो, उसके दोषों की शान्ति के लिये विष्णुसहस्रनाम का पाठ करे। उससे सभी कर्म सफल हो जाते हैं; क्योंकि कोई भी कर्म इससे बढ़कर नहीं है ॥ ६२-६३ ।। फिर बारह ब्राह्मणों को खीर और मधु आदि उत्तम-उत्तम पदार्थ खिलाये तथा व्रत की पूर्ति के लिये गौ और सुवर्ण का दान करे ॥ ६४ ॥ सामर्थ्य हो तो तीन तोले सोने का एक सिंहासन बनवाये, उसपर सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई श्रीमद्भागवत की पोथी रखकर उसकी आवाहनादि विविध उपचारों से पूजा करे और फिर जितेन्द्रिय आचार्य को – उसका वस्त्र, आभूषण एवं गन्धादि से पूजनकर- दक्षिणा के सहित समर्पण कर दे ॥ ६५-६६ ।। यों करने से वह बुद्धिमान् दाता जन्म-मरण के बन्धनों से मुक्त हो जाता है। यह सप्ताहपारायण की विधि सब पापों की निवृत्ति करनेवाली है। इसका इस प्रकार ठीक-ठीक पालन करने से यह मंगलमय भागवतपुराण अभीष्ट फल प्रदान करता है तथा अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष-चारों की प्राप्ति का साधन हो जाता है – इसमें सन्देह नहीं ॥ ६७-६८।। सनकादि कहते हैं- नारदजी ! इस प्रकार तुम्हें यह सप्ताह- श्रवण की विधि हमने पूरी-पूरी सुना दी, अब और क्या सुनना चाहते हो? इस श्रीमद्भागवत से भोग और मोक्ष दोनों ही हाथ लग जाते हैं ॥ ६९ ॥ सूतजी कहते हैं- शौनकजी! यों कहकर महामुनि सनकादिने एक सप्ताहतक विधिपूर्वक इस सर्वपापनाशिनी, परम पवित्र तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाली भागवतकथा का प्रवचन किया। सब प्राणियों ने नियमपूर्वक इसे श्रवण किया। इसके पश्चात् उन्होंने विधिपूर्वक भगवान् पुरुषोत्तम की स्तुति की ॥ ७०-७१ ॥ कथा के अन्त में ज्ञान-वैराग्य और भक्ति को बड़ी पुष्टि मिली और वे तीनों एकदम तरुण होकर सब जीवों का चित्त अपनी ओर आकर्षित करने लगे ॥ ७२ ॥ अपना मनोरथ पूरा होने से नारदजी को भी बड़ी प्रसन्नता हुई, उनके सारे शरीर में रोमांच हो आया और वे परमानन्द से पूर्ण हो गये ॥ ७३ ॥ इस प्रकार कथा श्रवण कर भगवान् के प्यारे नारदजी हाथ जोड़कर प्रेमगद्गद वाणी से सनकादि से कहने लगे ॥ ७४ ॥
नारदजी ने कहा- मैं धन्य हूँ, आप लोगों ने करुणा करके मुझे बड़ा ही अनुगृहीत किया है, आज मुझे सर्वपापहारी भगवान् श्रीहरि की ही प्राप्ति हो गयी ॥ ७५ ॥ तपोधनो! मैं श्रीमद्भागवत श्रवण को ही सब धर्मों से श्रेष्ठ मानता हूँ; क्योंकि इसके श्रवण से वैकुण्ठ( गोलोक) – विहारी श्रीकृष्ण की प्राप्ति होती है ॥७६॥
सूतजी कहते हैं- शौनकजी! वैष्णव श्रेष्ठ नारदजी यों कह ही रहे थे कि वहाँ घूमते-फिरते योगेश्वर शुकदेवजी आ गये ॥ ७७ ॥ कथा समाप्त होते ही व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी वहाँ पधारे। सोलह वर्ष की-सी आयु, आत्मलाभ से पूर्ण, ज्ञानरूपी महासागर का संवर्धन करने के लिये चन्द्रमा के समान वे प्रेम से धीरे-धीरे श्रीमद्भागवत का पाठ कर रहे थे ॥ ७८ ॥ परम तेजस्वी शुकदेवजी को देखकर सारे सभासद् झटपट खड़े हो गये और उन्हें एक ऊँचे आसनपर बैठाया। फिर देवर्षि नारदजी ने उनका प्रेमपूर्वक पूजन किया। उन्होंने सुखपूर्वक बैठकर कहा- ‘आप लोग मेरी निर्मल वाणी सुनिये’ ॥ ७९ ॥ श्रीशुकदेवजी बोले – रसिक एवं भावुक जन! यह श्रीमद्भागवत वेदरूप कल्पवृक्ष का परिपक्व फल है। श्रीशुकदेवरूप शुक के मुखका संयोग होने से अमृतरस से परिपूर्ण है। यह रस-ही-रस है— इसमें न छिलका है न गुठली । यह इसी लोक में सुलभ है। जबतक शरीर में चेतना रहे, तबतक आपलोग बार-बार इसका पान करें ।।८०।। महामुनि व्यासदेव ने श्रीमद्भागवतमहापुराण की रचना की है। इसमें निष्कपट- निष्काम परमधर्म का निरूपण है। इसमें शुद्धान्तःकरण सत्पुरुषों के जानने योग्य कल्याणकारी वास्तविक वस्तु का वर्णन है, जिससे तीनों तापों की शान्ति होती है। इसका आश्रय लेनेपर दूसरे शास्त्र अथवा साधन की आवश्यकता नहीं रहती। जब कभी पुण्यात्मा पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, तभी ईश्वर अविलम्ब उनके हृदय में अवरुद्ध हो जाता है ॥ ८१ ॥ यह भागवत पुराणों का तिलक और वैष्णवों का धन है। इसमें परमहंसों के प्राप्य विशुद्ध ज्ञान का ही वर्णन किया गया है तथा ज्ञान, वैराग्य और भक्ति के सहित निवृत्तिमार्ग को प्रकाशित किया गया है। जो पुरुष भक्तिपूर्वक इसके श्रवण, पठन और मनन में तत्पर रहता है, वह मुक्त हो जाता है ॥ ८२ ॥ यह रस स्वर्गलोक, सत्यलोक, कैलास और वैकुण्ठ में भी नहीं है। इसलिये भाग्यवान् श्रोताओ! तुम इसका खूब पान करो; इसे कभी मत छोड़ो, मत छोड़ो ॥ ८३ ॥
सूतजी कहते हैं— श्रीशुकदेवजी इस प्रकार कह ही रहे थे कि उस सभा के बीचोबीच प्रह्लाद, बलि, उद्धव, और अर्जुन आदि पार्षदों के सहित साक्षात् श्रीहरि प्रकट हो गये। तब देवर्षि नारद ने भगवान् और उनके भक्तों की यथोचित पूजा की ॥ ८४ ॥ भगवान् को प्रसन्न देखकर देवर्षि ने उन्हें एक विशाल सिंहासन पर बैठा दिया और सब लोग उनके सामने संकीर्तन करने लगे। उस कीर्तन को देखने के लिये श्रीपार्वतीजी के सहित महादेवजी और ब्रह्माजी भी आये ॥ ८५ ॥ कीर्तन आरम्भ हुआ। प्रह्लादजी तो चंचलगति (फुर्तीले) होने के कारण करताल बजाने लगे, उद्धवजी ने झाँझें उठा लीं, देवर्षि नारद वीणा की ध्वनि करने लगे, स्वर- विज्ञान (गान-विद्या) – में कुशल होने के कारण अर्जुन राग अलापने लगे, इन्द्र ने मृदंग बजाना आरम्भ किया, सनकादि बीच-बीच में जयघोष करने लगे और इन सबके आगे शुकदेवजी तरह-तरह की सरस अंगभंगी करके भाव बताने लगे ॥ ८६ ॥ इन सबके बीच में परम तेजस्वी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य नटों के समान नाचने लगे। ऐसा अलौकिक कीर्तन देखकर भगवान् प्रसन्न हो गये और इस प्रकार कहने लगे- ॥ ८७ ॥ ‘मैं तुम्हारी इस कथा और कीर्तन से बहुत प्रसन्न हूँ, तुम्हारे भक्तिभाव ने इस समय मुझे अपने वश में कर लिया है। अतः तुम लोग मुझसे वर माँगो’। भगवान् के ये वचन सुनकर सब लोग बड़े प्रसन्न हुए प्रेमार्द्र चित्त से भगवान् से कहने लगे ॥ ८८ ॥ ‘भगवन्! और हमारी यह अभिलाषा है कि भविष्य में भी जहाँ कहीं सप्ताह-कथा हो, वहाँ आप इन पार्षदों के सहित अवश्य पधारें। हमारा यह मनोरथ पूर्ण कर दीजिये’ । भगवान् ‘तथास्तु’ कहकर अन्तर्धान हो गये ॥ ८९ ॥ इसके पश्चात् नारदजी ने भगवान् तथा पार्षदों के चरणों को लक्ष्य करके प्रणाम किया फिर शुकदेवजी आदि तपस्वियों को भी नमस्कार किया। कथामृत का पान करने से सब लोगो को बड़ा ही आनन्द हुआ, उनका सारा मोह नष्ट हो गया। फिर वे सब लोग अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ ९० ॥ उस समय शुकदेवजी ने भक्ति को उसके पुत्रों सहित अपने शास्त्र में स्थापित कर दिया। इसीसे भागवत का सेवन करने से श्रीहरि वैष्णवों के हृदय में आ विराजते हैं ॥ ९१ ॥ जो लोग दरिद्रता के दुःखज्वर की ज्वाला से दग्ध हो रहे हैं, जिन्हें माया पिशाची ने रौंद डाला है तथा जो संसार-समुद्र में डूब रहे हैं, उनका कल्याण करने के लिये श्रीमद्भागवत सिंहनाद कर रहा है ॥ ९२ ॥
शौनकजी ने पूछा – सूतजी ! शुकदेवजी ने राजा परीक्षित् को, गोकर्णने धुन्धुकारी को और सनकादि ने नारदजी को किस-किस समय यह ग्रन्थ सुनाया था मेरा यह संशय दूर कीजिये ! ॥ ९३ ॥
सूतजीने कहा – भगवान् श्रीकृष्ण के स्वधामगमन के बाद कलियुग के तीस वर्ष से कुछ अधिक बीत जानेपर भाद्रपदमास की शुक्ला नवमी को शुकदेवजी ने कथा आरम्भ की थी ॥ ९४ ॥ राजा परीक्षित् के कथा सुनने के बाद कलियुग के दो सौ वर्ष बीत जानेपर आषाढ़मास की शुक्ला नवमी को गोकर्णजी ने यह कथा सुनाई थी॥९५॥ इसके पीछे कलियुग के तीस वर्ष और निकल जानेपर कार्तिक शुक्ला नवमी से सनकादि ने कथा आरम्भ की थी ॥ ९६ ॥ निष्पाप शौनकजी! आपने जो कुछ पूछा था, उसका उत्तर मैंने आपको दे दिया। इस कलियुग में भागवत की कथा भवरोग की रामबाण औषध है ॥ ९७ ॥ संतजन! आपलोग आदरपूर्वक इस कथामृत का पान कीजिये। यह श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय, सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाला, मुक्ति का एकमात्र कारण और भक्ति को बढ़ानेवाला है। लोक में अन्य कल्याणकारी साधनों का विचार करने और तीर्थों का सेवन करने से क्या होगा ॥ ९८ ॥ अपने दूत को हाथ में पाश लिये देखकर यमराज उसके कान में कहते हैं—’देखो, जो भगवान् की कथावार्ता में मत्त हो रहे हों, उनसे दूर रहना; मैं औरों को ही दण्ड देने की शक्ति रखता हूँ, वैष्णवों को नहीं ॥ ९९ ॥ इस असार संसार में विषयरूप विष की आसक्ति के कारण व्याकुल बुद्धिवाले पुरुषो! अपने कल्याण के उद्देश्य से आधे क्षण के लिये भी इस शुककथारूप अनुपम सुधा का पान करो। प्यारे भाइयो! निन्दित कथाओं से युक्त कुपथ में व्यर्थ ही क्यों भटक रहे हो ? इस कथा के कान में प्रवेश करते ही मुक्ति हो जाती है, इस बात के साक्षी राजा परीक्षित् हैं ॥ १०० ॥ श्रीशुकदेवजी ने प्रेमरस के प्रवाह में स्थित होकर इस कथा को कहा था। इसका जिसके कण्ठ से सम्बन्ध हो जाता है, वह वैकुण्ठ का स्वामी बन जाता है ॥ १०१ ॥ शौनकजी! मैंने अनेक शास्त्रों को देखकर आपको यह परम गोप्य रहस्य अभी अभी सुनाया है। सब शास्त्रों के सिद्धान्तों का यही निचोड़ है। संसार में इस शुकशास्त्र से अधिक पवित्र और कोई वस्तु नहीं है; अतः आप लोग परमानन्द की प्राप्ति के लिये इस द्वादशस्कन्धरूप रस का पान करें ॥ १०२ ॥ जो पुरुष नियमपूर्वक इस कथा का भक्ति-भाव से श्रवण करता है, और जो शुद्धान्तःकरण भगवद्भक्तों के सामने इसे सुनाता है, वे दोनों ही विधि का पूरा-पूरा पालन करने के कारण इसका यथार्थ फल पाते हैं—उनके लिये त्रिलोकी में कुछ भी असाध्य नहीं रह जाता ॥ १०३ ॥
॥ श्रीमद्भागवतमाहात्म्य समाप्त ॥
हरिः ॐ तत्सत्
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