श्रीशिवपुराण-माहात्म्य (अध्याय 2-3)

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श्रीशिवपुराण-माहात्म्य (अध्याय 2-3)

शिवपुराण के श्रवण से देवराज को शिवलोक की प्राप्ति तथा वहाँ चंचुला का पाप से भय एवं संसार से वैराग्य

श्रीशौनकजी ने कहा– महाभाग सूतजी ! आप धन्य हैं, परमार्थ-तत्त्व के ज्ञाता हैं, आपने कृपा करके हमलोगों को यह बड़ी अद्भुत एवं दिव्य कथा सुनायी है। भूतल पर इस कथा के समान कल्याण का सर्वश्रेष्ठ साधन दूसरा कोई नहीं है, यह बात हमने आज आपकी कृपा से निश्चयपूर्वक समझ ली। सूतजी ! कलियुग में इस कथा के द्वारा कौन कौन-से पापी शुद्ध होते हैं? उन्हें कृपापूर्वक बताइये और इस जगत् को कृतार्थ कीजिये ।

सूतजी बोले– मुने ! जो मनुष्य पापी, दुराचारी, खल तथा काम-क्रोध आदि में निरन्तर डूबे रहनेवाले हैं, वे भी इस पुराण के श्रवण-पठन से अवश्य ही शुद्ध हो जाते हैं। इसी विषय में जानकार मुनि इस प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, जिसके श्रवणमात्र से पापों का पूर्णतया नाश हो जाता है। पहले की बात है, कहीं किरातों के नगर में एक ब्राह्मण रहता था, जो ज्ञान में अत्यन्त दुर्बल, दरिद्र, रस बेचनेवाला तथा वैदिक धर्म से विमुख था। वह स्नान संध्या आदि कर्मों से भ्रष्ट हो गया था और वैश्यवृत्ति में तत्पर रहता था । उसका नाम था देवराज। वह अपने ऊपर विश्वास करने वाले लोगों को ठगा करता था। उसने ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों शूद्रों तथा दूसरों को भी अनेक बहानों से मारकर उन उनका धन हड़प लिया था। परंतु उस पापी का थोड़ा-सा भी धन कभी धर्म के काम में नहीं लगा था। वह वेश्यागामी तथा सब प्रकार से आचार भ्रष्ट था । एक दिन घूमता-घामता वह दैवयोग से प्रतिष्ठानपुर (झूसी-प्रयाग) – में जा पहुँचा । वहाँ उसने एक शिवालय देखा, जहाँ बहुत-से साधु-महात्मा एकत्र हुए थे। देवराज उस शिवालय में ठहर गया, किंतु वहाँ उस ब्राह्मण को ज्वर आ गया। उस ज्वर से उसको बड़ी पीड़ा होने लगी। वहाँ एक ब्राह्मणदेवता शिवपुराण की कथा सुना रहे थे। ज्वर में पड़ा हुआ देवराज ब्राह्मण के मुखारविन्द से निकली हुई उस शिव-कथा को निरन्तर सुनता रहा। एक मास के बाद वह ज्वर से अत्यन्त पीड़ित होकर चल बसा। यमराज के दूत आये और उसे पाशों से बाँधकर बलपूर्वक यमपुरी में ले गये। इतने में ही शिवलोक से भगवान् शिव के पार्षदगण आ गये। उनके गौर अंग कर्पूर के समान उज्ज्वल थे, हाथ त्रिशूल से सुशोभित हो रहे थे, उनके सम्पूर्ण अंग भस्म से  उद्भासित थे और रुद्राक्ष की मालाएँ उनके शरीर की शोभा बढ़ा रही थीं। वे सब-के-सब क्रोधपूर्वक यमपुरी में गये और यमराज के दूतों को मार-पीटकर, बारंबार धमकाकर उन्होंने देवराज को उनके चंगुल से छुड़ा लिया और अत्यन्त अद्भुत विमान पर बिठाकर जब वे शिवदूत कैलास जाने को उद्यत हुए, उस समय यमपुरी में बड़ा भारी कोलाहल मच गया। उस कोलाहल को सुनकर धर्मराज अपने भवन से बाहर आये। साक्षात् दूसरे रुद्रों के समान प्रतीत होनेवाले उन चारों दूतों को देखकर धर्मज्ञ धर्मराज ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया और ज्ञानदृष्टि से देखकर सारा वृत्तान्त जान लिया। उन्होंने भय के कारण भगवान् शिव के उन महात्मा दूतों से कोई बात नहीं पूछी, उलटे उन सब की पूजा एवं प्रार्थना की। तत्पश्चात् वे शिवदूत कैलास को चले गये और वहाँ पहुँचकर उन्होंने उस ब्राह्मण को दयासागर साम्ब शिव के हाथों में दे दिया । शौनकजीने कहा- महाभाग सूतजी ! आप सर्वज्ञ हैं। महामते ! आपके कृपाप्रसाद से मैं बारंबार कृतार्थ हुआ। इस इतिहास को सुनकर मेरा मन अत्यन्त आनन्द में निमग्न हो रहा है। अतः अब भगवान् शिव में प्रेम बढ़ानेवाली शिव सम्बन्धिनी दूसरी कथाको भी कहिये ।

श्रीसूतजी बोले– शौनक ! सुनो, मैं तुम्हारे सामने गोपनीय कथावस्तु का भी वर्णन करूँगा; क्योंकि तुम शिवभक्तों में अग्रगण्य तथा वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ हो। समुद्र के निकटवर्ती प्रदेश में एक वाष्कल नामक ग्राम है, जहाँ वैदिक धर्म से विमुख महापापी द्विज निवास करते हैं। वे सब-के-सब बड़े दुष्ट हैं, उनका मन दूषित विषय-भोगों में ही लगा रहता है। वे न देवताओं पर विश्वास करते हैं न भाग्य पर; वे सभी कुटिल वृत्तिवाले हैं । किसानी करते और भाँति-भाँति के घातक अस्त्र-शस्त्र रखते हैं। वे व्यभिचारी और खल हैं। ज्ञान, वैराग्य तथा सद्धर्म का सेवन ही मनुष्य के लिये परम पुरुषार्थ है इस बात को वे बिलकुल नहीं जानते हैं। वे सभी पशुबुद्धिवाले हैं। (जहाँके द्विज ऐसे हों, वहाँ के अन्य वर्णों के विषय में क्या कहा जाय।) अन्य वर्णों के लोग भी उन्हीं की भाँति कुत्सित विचार रखनेवाले, स्वधर्म विमुख एवं खल हैं;  वे सदा कुकर्म में लगे रहते और नित्य विषयभोगों में ही डूबे रहते हैं । वहाँ की सब स्त्रियाँ भी कुटिल स्वभाव की स्वेच्छाचारिणी, पापासक्त, कुत्सित विचारवाली और व्यभिचारिणी हैं। वे सद्व्यवहार तथा सदाचार से सर्वथा शून्य हैं। हैं। इस प्रकार वहाँ दुष्टों का ही निवास है।

     उस वाष्कल नामक ग्राम में किसी समय एक बिन्दुग नामधारी ब्राह्मण रहता था, वह बड़ा अधम था । दुरात्मा और महापापी था । यद्यपि उसकी स्त्री बड़ी सुन्दरी थी, तो भी वह कुमार्गपर ही चलता था। उसकी पत्नी का नाम चंचुला था; वह सदा उत्तम धर्म के पालन में लगी रहती थी, तो भी उसे छोड़कर वह दुष्ट ब्राह्मण वेश्यागामी हो गया था। इस तरह कुकर्म में लगे हुए उस बिन्दुग के बहुत वर्ष व्यतीत हो गये। उसकी स्त्री चंचुला काम से पीड़ित होनेपर भी स्वधर्मनाश के भय से क्लेश सहकर भी दीर्घकालतक धर्म से भ्रष्ट नहीं हुई। परंतु दुराचारी पति के आचरण से प्रभावित हो आगे चलकर वह स्त्री भी दुराचारिणी हो गयी। इस तरह दुराचार में डूबे हुए उन मूढ़ चित्तवाले पति-पत्नी का बहुत-सा समय व्यर्थ बीत गया। तदनन्तर शूद्रजातीय वेश्या का पति बना हुआ वह दूषित बुद्धिवादुष्ट ब्राह्मण बिन्दुग समयानुसार मृत्यु को प्राप्त हो नरक में जा पड़ा। बहुत दिनों नरक के दुःख भोगकर यह मूढ़-बुद्धि पापी विन्ध्यपर्वत पर भयंकर पिशाच हुआ। इधर, उस दुराचारी पति बिन्दुग के मर जानेपर वह मूढहृदया चंचुला बहुत समय तक पुत्रों के साथ अपने घर में ही रही ।। एक दिन दैवयोग से किसी पुण्य पर्व के आने पर वह स्त्री भाई-बन्धुओं के साथ गोकर्ण क्षेत्र में गयी । तीर्थ यात्रियों के संग से उसने भी उस समय जाकर किसी तीर्थ के जल में स्नान किया। फिर वह साधारणतया ( मेला देखने की दृष्टि से) बन्धुजनों के साथ यत्र-तत्र घूमने लगी । घूमती – घामती किसी देवमन्दिर में गयी और वहाँ उसने एक दैवज्ञ ब्राह्मण के मुखसे भगवान् शिव की परम पवित्र एवं मंगलकारिणी उत्तम पौराणिक कथा सुनी। कथावाचक ब्राह्मण कह रहे थे कि ‘जो स्त्रियाँ परपुरुषों के साथ व्यभिचार करती हैं, वे मरने के बाद जब यमलोक में जाती हैं, तब यमराज के दूत उनकी योनि में तपे हुए लोहे का परिघ डालते हैं।’ पौराणिक ब्राह्मण के मुख से यह वैराग्य बढ़ानेवाली कथा सुनकर चंचुला भय से व्याकुल हो वहाँ काँपने लगी। जब कथा समाप्त हुई और सुननेवाले सब लोग वहाँ से बाहर चले गये, तब वह भयभीत नारी एकान्त में शिवपुराण की कथा बाँचनेवाले उन ब्राह्मण देवता से बोली । चंचुला ने कहा – ब्रह्मन् ! मैं अपने धर्म को नहीं जानती थी। इसलिये मेरे द्वारा बड़ा दुराचार हुआ है। स्वामिन्! मेरे ऊपर अनुपम कृपा करके आप मेरा उद्धार कीजिये । आज आपके वैराग्य रस से ओतप्रोत इस प्रवचन को सुनकर मुझे बड़ा भय लग रहा है। मैं काँप उठी हूँ और मुझे इस संसार से वैराग्य हो गया है। मुझ मूढ़ चित्तवाली पापिनी को धिक्कार है। मैं सर्वथा निन्दा के योग्य हूँ। कुत्सित विषयों में फँसी हुई हूँ और अपने धर्म से विमुख हो गयी हूँ। हाय! न जाने किस-किस घोर कष्टदायक दुर्गति में मुझे पड़ना पड़ेगा और वहाँ कौन बुद्धिमान् पुरुष कुमार्ग में मन लगानेवाली मुझ पापिनी का साथ देगा। मृत्युकाल में उन भयंकर यमदूतों को मैं कैसे देखूँगी ? जब वे बलपूर्वक मेरे गले में फंदे डालकर मुझे बाँधेंगे, तब मैं कैसे धीरज धारण कर सकूँगी। नरक में जब मेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े किये जायँगे, उस समय विशेष दुःख देनेवाली उस महायातना को मैं वहाँ कैसे सहूँगी ? हाय! मैं मारी गयी! मैं जल गयी! मेरा हृदय विदीर्ण हो गया और मैं सब प्रकार से नष्ट हो गयी; क्योंकि मैं हर तरह से पाप में ही डूबी रही हूँ। ब्रह्मन् ! आप ही मेरे गुरु, आप ही माता और आप ही पिता हैं। आपकी शरण में आयी हुई मुझ दीन अबला का आप ही उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये।

    सूतजी कहते हैं-शौनक ! इस प्रकार खेद और वैराग्य से युक्त हुई चंचुला ब्राह्मणदेवता के दोनों चरणों में गिर पड़ी। तब उन बुद्धिमान् ब्राह्मण ने कृपापूर्वक उसे उठाया और इस प्रकार कहा ।

(अध्याय २-३ )