श्रीशिवपुराण-माहात्म्य (अध्याय 6-7)

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श्रीशिवपुराण-माहात्म्य (अध्याय 6-7)

शिवपुराणके श्रवणकी विधि तथा श्रोताओंके पालन करनेयोग्य नियमोंका वर्णन

शौनकजी कहते हैं– महाप्राज्ञ व्यासशिष्य सूतजी ! आपको नमस्कार है। आप धन्य हैं, शिवभक्तों में श्रेष्ठ हैं। आपके महान् गुण वर्णन करने योग्य हैं। अब आप कल्याणमय शिवपुराण के श्रवण की विधि बतलाइये, जिससे सभी श्रोताओं को सम्पूर्ण उत्तम फल की प्राप्ति हो सके। सूतजी ने कहा- मुने शौनक ! अब मैं तुम्हें सम्पूर्ण फल की प्राप्ति के लिये शिव पुराण के श्रवण की विधि बता रहा हूँ। पहले किसी ज्योतिषी को बुलाकर दान मान से संतुष्ट करके अपने सहयोगी लोगों के साथ बैठकर बिना किसी विघ्न-बाधा के कथा की समाप्ति होने के उद्देश्य से शुद्ध मुहूर्त का अनुसंधान कराये और प्रयत्नपूर्वक देश-देश में -स्थान-स्थान पर यह संदेश भेजे कि ‘हमारे यहाँ शिवपुराण की कथा होनेवाली है। अपने कल्याण की इच्छा रखनेवाले लोगों को उसे सुनने के लिये अवश्य पधारना चाहिये।’ कुछ लोग भगवान् श्रीहरि की कथा से बहुत दूर पड़ गये हैं। कितने ही स्त्री, शूद्र आदि भगवान् शंकर के कथा कीर्तन से वंचित रहते हैं। उन सबको भी सूचना हो जाय, ऐसा प्रबन्ध करना चाहिये । देश-देश में जो भगवान् शिव के भक्त हों तथा शिवकथा के कीर्तन और श्रवण के लिये उत्सुक हों, उन सबको आदरपूर्वक बुलवाना चाहिये और आये हुए लोगों का सब प्रकार से आदर-सत्कार करना चाहिये। शिवमन्दिर में, तीर्थ में, वनप्रान्त में अथवा घर में शिवपुराण की कथा सुनने के लिये उत्तम स्थान का निर्माण करना चाहिये। केले के खम्भों से सुशोभित एक ऊँचा कथामण्डप तैयार कराये । उसे सब ओर फल-पुष्प आदि से तथा सुन्दर चँदोवे से अलंकृत करे और चारों ओर ध्वजा-पताका लगाकर तरह- तरह के सामानों से सजाकर सुन्दर शोभासम्पन्न बना दे । भगवान् शिव के प्रति सब प्रकार से उत्तम भक्ति करनी चाहिये। वही सब तरह से आनन्द का विधान करनेवाली है। परमात्मा भगवान् शंकर के लिये दिव्य आसन का निर्माण करना चाहिये तथा कथावाचक के लिये भी एक ऐसा दिव्य आसन बनाना चाहिये, जो उनके लिये सुखद हो सके। मुने! नियमपूर्वक कथा सुननेवाले श्रोताओंके लिये भी यथायोग्य सुन्दर स्थानों की व्यवस्था करनी चाहिये। अन्य लोगों के लिये साधारण स्थान ही रखने चाहिये। जिसके मुख से निकली हुई वाणी देहधारियों के लिये कामधेनु के समान अभीष्ट फल देनेवाली होती है, उस पुराणवेत्ता विद्वान् वक्ता के प्रति तुच्छबुद्धि कभी नहीं करनी चाहिये। संसार में जन्म तथा गुणों के कारण बहुत-से गुरु होते हैं। परंतु उन सब में पुराणों का ज्ञाता विद्वान् ही परम गुरु माना गया है। पुराणवेत्ता पवित्र, दक्ष, शान्त, ईर्ष्यापर विजय पानेवाला, साधु और दयालु होना चाहिये। ऐसा प्रवचन कुशल विद्वान् इस पुण्यमयी कथा को कहे। सूर्योदय से आरम्भ करके साढ़े तीन पहर तक उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् पुरुष को शिवपुराण की कथा सम्यक् रीति से बाँचनी चाहिये। मध्याह्नकाल में दो घड़ीतक कथा बंद रखनी चाहिये, जिससे कथा-कीर्तन से अवकाश पाकर लोग मल-मूत्र का त्याग कर सकें। कथा – प्रारम्भ के दिन से एक दिन पहले व्रत ग्रहण करने के लिये वक्ता को क्षौर करा लेना चाहिये। जिन दिनों कथा हो रही हो, उन दिनों प्रयत्नपूर्वक प्रातः काल का सारा नित्यकर्म संक्षेप से ही कर लेना चाहिये । वक्ता के पास उसकी सहायता के लिये एक दूसरा वैसा ही विद्वान् स्थापित करना चाहिये । वह भी सब प्रकार के संशयों को निवृत्त करने में समर्थ और लोगों को समझाने में कुशल हो । कथा में आनेवाले विघ्नों की निवृत्ति के लिये गणेशजी का पूजन करे। कथा के स्वामी भगवान् शिवकी तथा विशेषतः शिवपुराण की पुस्तक की भक्तिभाव से पूजा करे । तत्पश्चात् उत्तम बुद्धिवाला श्रोता तन- मन से शुद्ध एवं प्रसन्नचित्त हो आदरपूर्वक शिवपुराण की कथा सुने। जो वक्ता और श्रोता अनेक प्रकार के कर्मों में भटक रहे हों, काम आदि छः विकारों से युक्त हों, स्त्री में आसक्ति रखते हों और पाखण्डपूर्ण बातें कहते हों, वे पुण्य के भागी नहीं होते। जो लौकिक चिन्ता तथा धन, गृह एवं पुत्र आदि की चिन्ता को छोड़कर कथा में मन लगाये रहते हैं, उन शुद्धबुद्धि पुरुषों को उत्तम फल की प्राप्ति होती है। जो श्रोता श्रद्धा और भक्ति से युक्त होते हैं, दूसरे कर्मों में मन नहीं लगाते और मौन, पवित्र एवं उद्वेगशून्य होते हैं, वे ही पुण्य के भागी होते हैं। सूतजी बोले- शौनक ! अब शिवपुराण सुनने का व्रत लेनेवाले पुरुषों के लिये जो नियम हैं, उन्हें भक्तिपूर्वक सुनो। नियमपूर्वक इस श्रेष्ठ कथा को सुननेसे बिना किसी विघ्न-बाधा के उत्तम फल की प्राप्ति होती है। जो लोग दीक्षा से रहित हैं, उनका कथा-श्रवण में अधिकार नहीं है। अतः मुने! कथा सुनने की इच्छावाले सब लोगों को पहले वक्ता से दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये। जो लोग नियम से कथा सुनें, उनको ब्रह्मचर्य से रहना, भूमिपर सोना, पत्तल में खाना और प्रतिदिन कथा समाप्त होनेपर ही अन्न ग्रहण करना चाहिये। जिसमें शक्ति हो, वह पुराण की समाप्ति तक उपवास करके शुद्धतापूर्वक भक्तिभाव से उत्तम शिवपुराण को सुने। इस कथाका व्रत लेनेवाले पुरुष को प्रतिदिन एक ही बार हविष्यान्न भोजन करना चाहिये। जिस प्रकार से कथा- श्रवण का नियम सुखपूर्वक सध सके, वैसे ही करना चाहिये। गरिष्ठ अन्न, दाल, जला अन्न, सेम, मसूर, भावदूषित तथा बासी अन्न को खाकर कथाव्रती पुरुष कभी कथा को न सुने। जिसने कथा का व्रत ले रखा हो, वह पुरुष प्याज, लहसुन, हींग, गाजर, मादक वस्तु तथा आमिष कही जानेवाली वस्तुओं को त्याग दे । कथा का व्रत लेनेवाला पुरुष काम, क्रोध आदि छः विकारों को, ब्राह्मणों की निन्दा को तथा पतिव्रता और साधु-संतों की निन्दा को भी त्याग दे। कथाव्रती पुरुष प्रतिदिन सत्य, शौच, दया, मौन, सरलता, विनय तथा हार्दिक उदारता – इन सद्गुणों को सदा अपनाये रहे। श्रोता निष्काम हो या सकाम वह नियमपूर्वक कथा सुने । सकाम पुरुष अपनी अभीष्ट कामना को प्राप्त करता है और निष्काम पुरुष मोक्ष पा लेता है। दरिद्र, क्षय का रोगी, पापी, भाग्यहीन तथा संतानरहित पुरुष भी इस उत्तम कथा को सुने । काक-बन्ध्या आदि जो सात प्रकार की दुष्टा स्त्रियाँ हैं, वे तथा जिसका गर्भ गिर जाता हो, वह — इन सभी को शिवपुराण की उत्तम कथा सुननी चाहिये। मुने! स्त्री हो या पुरुष- सबको यत्नपूर्वक विधि विधान से शिवपुराण की यह उत्तम कथा सुननी चाहिये । महर्षे! इस तरह शिवपुराण की कथा के पाठ एवं श्रवण-सम्बन्धी यज्ञोत्सव की समाप्ति होनेपर श्रोताओं को भक्ति एवं प्रयत्नपूर्वक भगवान् शिवकी पूजा की भाँति पुराणपुस्तक की भी पूजा करनी चाहिये । तदनन्तर विधिपूर्वक वक्ता का भी पूजन करना आवश्यक है। पुस्तक को आच्छादित करने के लिये नवीन एवं सुन्दर बस्ता बनावे और उसे बाँधने के लिये दृढ़ एवं दिव्य डोरी लगावे। फिर उसका विधिवत् पूजन करे। मुनिश्रेष्ठ! इस प्रकार महान् उत्सव के साथ पुस्तक और वक्ता की विधिवत् पूजा करके वक्ता की सहायता के लिये स्थापित हुए पण्डितका भी उसीके अनुसार धन आदि के द्वारा उससे कुछ ही कम सत्कार करे। वहाँ आये हुए ब्राह्मणों को अन्न-धन आदि का दान करे। साथ ही गीत, वाद्य और नृत्य आदि के द्वारा महान् उत्सव रचाये। मुने! यदि श्रोता विरक्त हो तो उसके लिये कथासमाप्ति के दिन विशेषरूप से उस गीता का पाठ करना चाहिये, जिसे श्रीरामचन्द्रजी के प्रति भगवान् शिवने कहा था। यदि श्रोता गृहस्थ हो तो उस बुद्धिमान्‌ को उस श्रवणकर्म की शान्ति के लिये शुद्ध हविष्य के द्वारा होम करना चाहिये। मुने! रुद्रसंहिता के प्रत्येक श्लोकद्वारा होम करना उचित है अथवा गायत्री-मन्त्र से होम करना चाहिए; क्योंकि वास्तव में यह पुराण गायत्रीमय ही है। अथवा शिवपंचाक्षर मूलमन्त्र से हवन करना उचित है। होम करने की शक्ति न हो तो विद्वान् पुरुष यथाशक्ति हवनीय हविष्यका ब्राह्मण को दान करे । न्यूनातिरिक्तता रूप दोष की शान्ति के लिये भक्तिपूर्वक शिवसहस्त्रनाम का पाठ अथवा श्रवण करे। इससे सब कुछ सफल होता है, इसमें संशय नहीं है; क्योंकि तीनों लोकों में उससे बढ़कर कोई वस्तु नहीं है। कथा श्रवणसम्बन्धी व्रत की पूर्णता की सिद्धि के लिये ग्यारह ब्राह्मणों को मधु मिश्रित खीर भोजन कराये और उन्हें दक्षिणा दे। मुने! यदि शक्ति हो तो तीन तोले सोने का एक सुन्दर सिंहासन बनवाये और उसपर उत्तम अक्षरों में लिखी अथवा लिखायी हुई शिवपुराण की पोथी विधिपूर्वक स्थापित करे। तत्पश्चात् पुरुष उसकी आवाहन आदि विविध उपचारों से पूजा करके दक्षिणा चढ़ाये। फिर जितेन्द्रिय आचार्य का वस्त्र, आभूषण एवं गन्ध आदि पूजन करके दक्षिणा सहित वह पुस्तक उन्हें समर्पित कर दे। उत्तम बुद्धिवाला श्रोता इस प्रकार भगवान् शिवके संतोष के लिये पुस्तक का दान करे। शौनक ! इस पुराण के उस दान के प्रभाव से भगवान् शिवका अनुग्रह पाकर पुरुष भवबन्धन से मुक्त हो जाता है। इस तरह विधि-विधान का पालन करने पर श्रीसम्पन्न शिवपुराण सम्पूर्ण फल को देनेवाला तथा भोग और मोक्ष का दाता होता है। मुने ! शिवपुराण का वह सारा माहात्म्य, जो सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाला है, मैंने तुम्हें कह सुनाया। अब और क्या सुनना चाहते हो ? श्रीमान् शिवपुराण समस्त पुराणों के भालका तिलक माना गया है। यह भगवान् • शिवको अत्यन्त प्रिय, रमणीय तथा भवरोग का निवारण करनेवाला है। जो सदा भगवान् शिव का ध्यान करते हैं, जिनकी वाणी शिवके गुणों की स्तुति करती है और जिनके दोनों कान उनकी कथा सुनते हैं, इस जीव जगत् में उन्हीं का जन्म लेना सफल है। वे निश्चय ही संसार सागर से पार हो जाते हैं। * भिन्न-भिन्न प्रकार के समस्त गुण जिनके सच्चिदानन्दमय स्वरूप का कभी स्पर्श नहीं करते, जो अपनी महिमा से जगत् के बाहर और भीतर भासमान हैं तथा जो मन के बाहर और भीतर वाणी एवं मनोवृत्तिरूप में प्रकाशित होते हैं, उन अनन्त आनन्दघनरूप परम शिवकी मैं शरण लेता हूँ।

 (अध्याय ६-७ )