विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 3-4)

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विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 3-4)

साध्य-साधन आदि का विचार तथा श्रवण, कीर्तन और मनन- इन तीन साधनों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन

व्यासजी कहते हैं – सूतजी का यह वचन सुनकर वे सब महर्षि बोले- ‘अब आप हमें वेदान्तसार- सर्वस्वरूप अद्भुत शिवपुराण की कथा सुनाइये।’ सूतजी ने कहा- आप सब महर्षिगण रोग शोक से रहित कल्याणमय भगवान् शिव का स्मरण करके पुराणप्रवर शिवपुराण की, जो वेद के सार-तत्त्व से  प्रकट हुआ है, कथा सुनिये। शिवपुराण में भक्ति, ज्ञान और वैराग्य- इन तीनों का प्रीतिपूर्वक गान किया गया है और वेदान्तवेद्य सद्वस्तु का विशेषरूप से वर्णन है। इस वर्तमान कल्प में जब सृष्टिकर्म आरम्भ हुआ था, उन दिनों छः कुलों के महर्षि परस्पर वाद-विवाद करते हुए कहने लगे-‘अमुक वस्तु सबसे उत्कृष्ट है और अमुक नहीं है।’ उनके इस विवाद ने अत्यन्त महान् रूप धारण कर लिया। तब वे सब-के-सब अपनी शंका के समाधान के लिये सृष्टिकर्ता अविनाशी ब्रह्माजी के पास गये और हाथ जोड़कर विनयभरी वाणी में बोले-‘प्रभो! आप सम्पूर्ण जगत को धारण-पोषण करने वाले तथा समस्त कारणों के भी कारण हैं। हम यह जानना चाहते हैं कि सम्पूर्ण तत्त्वों से  परे परात्पर पुराणपुरुष कौन हैं ?’ ब्रह्माजी ने कहा जहाँ से मनसहित वाणी उन्हें न पाकर लौट आती है तथा जिनसे ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इन्द्र आदि से युक्त यह सम्पूर्ण जगत् समस्त भूतों एवं इन्द्रियों के साथ पहले प्रकट हुआ है, वे ही ये देव, महादेव सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं। ये ही सबसे उत्कृष्ट हैं। भक्ति से ही इनका साक्षात्कार होता है। दूसरे किसी उपाय से कहीं इनका दर्शन नहीं होता। रुद्र, हरि, हर तथा अन्य देवेश्वर सदा उत्तम भक्तिभाव से उनका दर्शन करना चाहते हैं। भगवान् शिव में भक्ति होने से मनुष्य संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है। देवता के कृपाप्रसाद से उनमें भक्ति होती है और भक्ति से देवता का कृपाप्रसाद प्राप्त होता है-ठीक उसी तरह, जैसे यहाँ अंकुर से बीज और बीज से अंकुर पैदा होता है। इसलिये तुम सब ब्रह्मर्षि भगवान् शंकर का कृपाप्रसाद प्राप्त करने के लिये भूतल पर जाकर वहाँ सहस्त्रों वर्षों तक चालू रहने वाले एक विशाल यज्ञ का आयोजन करो। इन यज्ञपति भगवान् शिव की ही कृपा से वेदोक्त विद्या के सारभूत साध्य-साधन का ज्ञान होता है।

 शिवपद की प्राप्ति ही साध्य है। उनकी सेवा ही साधन है तथा उनके प्रसाद से जो नित्य नैमित्तिक आदि फलों की ओर से निःस्पृह होता है, वही साधक है। वेदोक्त कर्म का अनुष्ठान करके उसके महान् फल को भगवान् शिव के चरणों में समर्पित कर देना ही परमेश्वरपद की प्राप्ति है। वही सालोक्य आदि के क्रम से प्राप्त होने वाली मुक्ति है। उन-उन पुरुषों की भक्ति के अनुसार उन सबको उत्कृष्ट फल की प्राप्ति होती है। उस भक्ति के साधन अनेक प्रकार के हैं, जिनका साक्षात् महेश्वर ने ही प्रतिपादन किया है। उनमें से सारभूत साधन को संक्षिप्त करके मैं बता रहा हूँ। कान से भगवान्‌ के नाम-गुण और लीलाओं का श्रवण, वाणी द्वारा उनका कीर्तन तथा मन के द्वारा उनका मनन- इन तीनों को महान् साधन कहा गया है। * तात्पर्य यह कि महेश्वर का श्रवण, कीर्तन और मनन करना चाहिये – यह श्रुति का वाक्य हम सबके लिये प्रमाणभूत है। इसी साधन से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि में लगे हुए आपलोग परम साध्य को प्राप्त हों। लोग प्रत्यक्ष वस्तु को आँख से देखकर उसमें प्रवृत्त होते हैं। परंतु जिस वस्तुका कहीं भी प्रत्यक्ष दर्शन नहीं होता, उसे श्रवणेन्द्रियद्वारा जान-सुनकर मनुष्य उसकी प्राप्ति के लिये चेष्टा करता है। अतः पहला साधन श्रवण ही है। उसके द्वारा गुरु के मुख से तत्त्व को सुनकर श्रेष्ठ बुद्धिवाला विद्वान् पुरुष अन्य साधन – कीर्तन एवं मनन की सिद्धि करे। क्रमशः मननपर्यन्त इस साधन की अच्छी तरह साधना कर लेनेपर उसके द्वारा सालोक्य आदि के क्रम से धीरे-धीरे भगवान् शिव का संयोग प्राप्त होता है। पहले सारे अंगों के रोग नष्ट हो जाते हैं। फिर सब प्रकार का लौकिक आनन्द भी विलीन हो जाता है। भगवान् शंकर की पूजा, उनके नामों के जप तथा उनके गुण, रूप, विलास और नामों का युक्तिपरायण चित्त के द्वारा जो निरन्तर परिशोधन या चिन्तन होता है, उसी को मनन कहा गया है; वह महेश्वर की कृपादृष्टि से उपलब्ध होता है। उसे समस्त श्रेष्ठ साधनों में प्रधान या प्रमुख कहा गया है। सूतजी कहते हैं- मुनीश्वरो ! इस साधन का माहात्म्य बताने के प्रसंग में मैं आप लोगों के लिये एक प्राचीन वृत्तान्त का वर्णन करूँगा, उसे ध्यान देकर आप सुनें। पहले की बात है, पराशर मुनि के पुत्र मेरे गुरु व्यासदेव जी सरस्वती नदी के सुन्दर तटपर तपस्या कर रहे थे। एक दिन सूर्यतुल्य तेजस्वी विमान से  यात्रा करते हुए भगवान् सनत्कुमार अकस्मात् वहाँ जा पहुँचे। उन्होंने मेरे गुरु को वहाँ देखा। वे ध्यान में मग्न थे। उससे जगने पर उन्होंने ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारजी को अपने सामने उपस्थित देखा। देखकर वे बड़े वेग से उठे और उनके चरणों में प्रणाम करके मुनि ने उन्हें अर्घ्य दिया और देवताओं के बैठने योग्य आसन भी अर्पित किया। तब प्रसन्न हुए भगवान् सनत्कुमार विनीतभाव से खड़े हुए व्यासजी से गम्भीर वाणी में बोले ‘मुने! तुम सत्य वस्तु का चिन्तन करो। वह सत्य पदार्थ भगवान् शिव ही हैं, जो तुम्हारे साक्षात्कार के विषय होंगे। भगवान्  – शंकर का श्रवण, कीर्तन, मनन- ये तीन महत्तर साधन कहे गये हैं। ये तीनों ही वेदसम्मत हैं। पूर्वकाल में मैं दूसरे दूसरे साधनों के सम्भ्रम में पड़कर घूमता-घामता मन्दराचलपर जा पहुँचा और वहाँ तपस्या करने लगा। तदनन्तर महेश्वर शिव की आज्ञा से भगवान् नन्दिकेश्वर वहाँ आये। उनकी मुझपर बड़ी दया थी। वे सबके साक्षी तथा शिवगणों के स्वामी भगवान् नन्दिकेश्वर मुझे स्नेहपूर्वक मुक्ति का उत्तम साधन बताते हुए बोले- भगवान् शंकर का श्रवण, कीर्तन और मनन – ये तीनों साधन वेदसम्मत हैं और मुक्ति के साक्षात् कारण हैं; यह बात स्वयं भगवान् शिव ने मुझसे कही है। अतः ब्रह्मन् ! तुम श्रवणादि तीनों साधनों का ही अनुष्ठान करो।’ व्यासजी से बारंबार ऐसा कहकर अनुगामियोंसहित ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार परम सुन्दर ब्रह्मधाम को चले गये। इस प्रकार पूर्वकाल के इस उत्तम वृत्तान्त का मैंने संक्षेप से वर्णन किया है।

          ऋषि बोले– सूतजी ! श्रवणादि तीन साधनों को आपने मुक्ति का उपाय बताया है। किंतु जो श्रवण आदि तीनों साधनों में असमर्थ हो, वह मनुष्य किस उपाय का अवलम्बन करके मुक्त हो सकता है। किस साधनभूत कर्म के द्वारा बिना यत्न के ही मोक्ष मिल सकता है ?

(अध्याय ३-४)