(प्रथम स्कन्ध) चौथा अध्याय
महर्षि व्यास का असन्तोष
व्यासजी कहते हैं—उस दीर्घकालीन सत्र में सम्मिलित हुए मुनियों में विद्या-वयोवृद्ध कुलपति ऋग्वेदी शौनकजी ने सूतजी की पूर्वोक्त बात सुनकर उनकी प्रशंसा की और कहा ॥१॥ शौनकजी बोले –सूतजी ! आप वक्ताओं में श्रेष्ठ हैं तथा बड़े भाग्यशाली हैं। जो कथा भगवान् श्रीशुकदेवजी ने कही थी, वही भगवान की पुण्यमयी कथा कृपा करके आप हमें सुनाइये ॥२॥ वह कथा किस युग में, किस स्थानपर और किस कारण से हुई थी ? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन ने किसकी प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिता का निर्माण किया था ? ॥३॥ उनके पुत्र शुकदेवजी बड़े योगी, समदर्शी, भेदभाव-रहित, संसार-निद्रा से जगे एवं निरन्तर एकमात्र परमात्मा में ही स्थित रहते हैं । वे छिपे रहने के कारण मूढ़-से प्रतीत होते हैं ॥४॥ व्यासजी जब संन्यास के लिये वन की ओर जाते हुए अपने पुत्र का पीछा कर रहे थे, उस समय जल में स्नान करने वाली स्त्रियों ने नंगे शुकदेव को देखकर तो वस्त्र धारण नहीं किया, परन्तु वस्त्र पहने हुए व्यासजी को देखकर लज्जा से कपड़े पहन लिये थे। इस आश्चर्य को देखकर जब व्यासजी ने उन स्त्रियों से इसका कारण पूछा, तब उन्होंने उत्तर दिया कि ‘आपकी दृष्टि में तो अभी स्त्री-पुरुष का भेद बना हुआ है, परन्तु आपके पुत्र की शुद्ध दृष्टि में यह भेद नहीं है’ ॥५॥ कुरुजांगल देश में पहुँचकर हस्तिनापुर में वे पागल, गूँगे तथा जड के समान विचरते होंगे। नगरवासियों ने उन्हें कैसे पहचाना ? ॥६॥ पाण्डव नन्दन राजर्षि परीक्षित् का इन मौनी शुकदेवजी के साथ संवाद कैसे हुआ, जिसमें यह भागवतसंहिता कही गयी ? ॥७॥ महाभाग श्रीशुकदेवजी तो गृहस्थों के घरों को तीर्थस्वरूप बना देने के लिये उतनी ही देर उनके दरवाजे पर रहते हैं, जितनी देर में एक गाय दुही जाती है॥८॥ सूतजी ! हमने सुना है कि अभिमन्युनन्दन परीक्षित् भगवान् के बड़े प्रेमी भक्त थे। उनके अत्यन्त आश्चर्यमय जन्म और कर्मों का भी वर्णन कीजिये ॥९॥ वे तो पाण्डववंश के गौरव बढ़ानेवाले सम्राट् थे। वे भला, किस कारण से साम्राज्यलक्ष्मी का परित्याग करके गंगातट पर मृत्युपर्यन्त अनशन का व्रत लेकर बैठे थे ? ॥१०॥ शत्रुगण अपने भले के लिये बहुत-सा धन लाकर उनके चरण रखने की चौकी को नमस्कार करते थे। वे एक वीर युवक थे। उन्होंने उस दुस्त्यज लक्ष्मी को, अपने प्राणों के साथ भला, क्यों त्याग देने की इच्छा की ॥११॥ जिन लोगों का जीवन भगवान के आश्रित है, वे तो संसार के परम कल्याण, अभ्युदय और समृद्धि के लिये ही जीवन धारण करते हैं। उसमें उनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता। उनका शरीर तो दूसरों के हित के लिये था, उन्होंने विरक्त होकर उसका परित्याग क्यों किया ? ॥१२॥ वेदवाणी को छोड़कर अन्य समस्त शास्त्रों के आप पारदर्शी विद्वान् हैं। सूतजी। इसलिये इस समय जो कुछ हमने आपसे पूछा है, वह सब कृपा करके हमें कहिये ॥१३॥ सूतजी ने कहा – इस वर्तमान चतुर्युगी के तीसरे युग द्वापर में महर्षि पराशर के द्वारा वसु- कन्या सत्यवती के गर्भ से भगवान् के कलावतार योगिराज व्यासजी का जन्म हुआ ॥१४॥ एक दिन वे सूर्योदय के समय सरस्वती के पवित्र जल में स्नानादि करके एकान्त पवित्र स्थानपर बैठे हुए थे ॥१५॥ महर्षि भूत और भविष्य को जानते थे। उनकी दृष्टि अचूक थी। उन्होंने देखा कि जिसको लोग जान नहीं पाते, ऐसे समय के फेर से प्रत्येक युग में धर्मसंकरता और उसके प्रभाव से भौतिक वस्तुओं की भी शक्ति का ह्रास होता रहता है। संसार के लोग श्रद्धाहीन और शक्तिरहित हो जाते हैं। उनकी बुद्धि कर्तव्य का ठीक-ठीक निर्णय नहीं कर पाती और आयु भी कम हो जाती है। लोगों की इस भाग्यहीनता को देखकर उन मुनीश्वर ने अपनी दिव्यदृष्टि से समस्त वर्णों और आश्रमों का हित कैसे हो, इसपर विचार किया ॥१६-१८॥ उन्होंने सोचा कि वेदोक्त चातुर्होत्र कर्म लोगों का हृदय शुद्ध करनेवाला है। इस दृष्टि से यज्ञों का विस्तार करने के लिये उन्होंने एक ही वेद के चार विभाग कर दिये ॥१९॥ व्यासजी के द्वारा ऋक्, यजुः, साम और अथर्व-इन चार वेदों का उद्धार (पृथक्करण) हुआ। इतिहास और पुराणों को पाँचवाँ वेद कहा जाता है ॥२०॥ उनमें से ऋग्वेद के पैल, साम-गान के विद्वान् जैमिनि एवं यजुर्वेद के एकमात्र स्नातक वैशम्पायन हुए ॥२१॥ अथर्ववेद में प्रवीण हुए दरुणनन्दन सुमन्तु मुनि । इतिहास और पुराणों के स्नातक मेरे पिता रोमहर्षण थे ॥२२॥ इन पूर्वोक्त ऋषियों ने अपनी-अपनी शाखा को और भी अनेक भागों में विभक्त कर दिया। इस प्रकार शिष्य, प्रशिष्य और उनके शिष्योंद्वारा वेदों की बहुत-सी शाखाएँ बन गयीं ॥२३॥ कम समझवाले पुरुषों पर कृपा करके भगवान् वेदव्यास ने इसलिये ऐसा विभाग कर दिया कि जिन लोगों को स्मरणशक्ति नहीं है या कम है, वे भी वेदों को धारण कर सकें ॥२४॥ स्त्री, शूद्र और पतित द्विजाति- तीनों ही वेदश्रवण के अधिकारी नहीं हैं। इसलिये वे कल्याणकारी शास्त्रोक्त कर्मों के आचरण में भूल कर बैठते हैं। अब इसके द्वारा उनका भी कल्याण हो जाय, यह सोचकर महामुनि व्यासजी ने बड़ी कृपा करके महाभारत इतिहास की रचना की ॥२५॥ शौनकादि ऋषियो! यद्यपि व्यासजी इस प्रकार अपनी पूरी शक्ति से सदा-सर्वदा प्राणियों के कल्याण में ही लगे रहे, तथापि उनके हृदय को सन्तोष नहीं हुआ ॥२६॥ उनका मन कुछ खिन्न-सा हो गया। सरस्वती नदी के पवित्र तटपर एकान्त में बैठकर धर्मवेत्ता व्यासजी मन-ही-मन विचार करते हुए इस प्रकार कहने लगे – ॥२७॥ ‘मैंने निष्कपट भाव से ब्रह्मचर्यादि व्रतों का पालन करते हुए वेद, गुरुजन और अग्नियों का सम्मान किया है और उनकी आज्ञा का पालन किया है ॥२८॥ महाभारत की रचना के बहाने मैंने वेद के अर्थ को खोल दिया है- जिससे स्त्री, शूद्र आदि भी अपने-अपने धर्म-कर्म का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं ॥२९॥ यद्यपि मैं ब्रह्मतेज से सम्पन्न एवं समर्थ हूँ, तथापि मेरा हृदय कुछ अपूर्णकाम-सा जान पड़ता है ॥३०॥ अवश्य ही अब तक मैंने भगवान् को प्राप्त कराने वाले धर्मों का प्रायः निरूपण नहीं किया है। वे ही धर्म परमहंसों को प्रिय हैं और वे ही भगवान् को भी प्रिय हैं (हो-न-हो मेरी अपूर्णता का यही कारण है) ‘॥३१॥ श्रीकृष्णद्वैपायन व्यास इस प्रकार अपने को अपूर्ण-सा मानकर जब खिन्न हो रहे थे, उसी समय पूर्वोक्त आश्रम पर देवर्षि नारदजी आ पहुँचे ॥३२॥ उन्हें आया देख व्यासजी तुरन्त खड़े हो गये। उन्होंने देवताओं के द्वारा सम्मानित देवर्षि नारद की विधिपूर्वक पूजा की ॥३३॥
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