विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 10)

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विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 10)

पाँच कृत्यों का प्रतिपादन, प्रणव एवं पंचाक्षर मन्त्र की महत्ता, ब्रह्मा विष्णु द्वारा भगवान् शिव की स्तुति तथा उनका अन्तर्धान

ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा-प्रभो ! सृष्टि आदि पाँच कृत्यों के लक्षण क्या हैं, यह हम दोनों को बताइये । भगवान् शिव बोले- मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यन्त गहन है, तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उनके विषय में बता रहा हूँ। ब्रह्मा और अच्युत ! ‘सृष्टि’, ‘पालन’, ‘संहार’, ‘तिरोभाव’ और ‘अनुग्रह’ – ये पाँच ही मेरे जगत्-सम्बन्धी कार्य हैं, जो नित्यसिद्ध हैं। संसारकी रचना का जो   आरम्भ है, उसी को सर्ग या ‘सृष्टि’ कहते हैं। मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिररूप से रहना ही उसकी ‘स्थिति’ है। उसका विनाश ही ‘संहार’ है। प्राणों के उत्क्रमण को ‘तिरोभाव’ कहते हैं। इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा ‘अनुग्रह’ है। इस प्रकार मेरे पाँच कृत्य हैं। सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करने वाले हैं। पाँचवाँ कृत्य अनुग्रह मोक्ष का हेतु है। वह सदा मुझमें ही अचलभाव से स्थिर रहता है। मेरे भक्तजन इन पाँचों कृत्यों को पाँचों भूतों में देखते हैं। सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और ‘अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी सृष्टि होती है। जल से सबकी वृद्धि एवं जीवन रक्षा होती है। आग सबको जला देती है। वायु सबको एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाती है और आकाश सबको अनुगृहीत करता है। विद्वान् पुरुषों को यह विषय इसी रूप में जानना चाहिये। इन पाँच कृत्यों का भारवहन करने के  लिये ही मेरे पाँच मुख हैं। चार दिशाओं में चार मुख हैं और इनके बीच में पाँचवाँ मुख है। पुत्रो ! तुम दोनों ने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वर से सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं। ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं। इसी प्रकार मेरी विभूतिस्वरूप ‘रुद्र’ और ‘महेश्वर’ में दो अन्य उत्तम कृत्य – संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं। परंतु अनुग्रह नामक कृत्य दूसरा कोई नहीं पा सकता। रुद्र और महेश्वर अपने कर्म को भूले नहीं हैं। इसलिये मैंने उनके लिये अपनी समानता प्रदान की है। वे रूप, वेष, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदि में मेरे समान ही हैं मैंने पूर्वकाल में अपने स्वरूपभूत मन्त्र का उपदेश किया है, जो ओंकार के रूप में प्रसिद्ध है। वह महामंगलकारी मन्त्र है। सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध कराने वाला है। ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ। यह मन्त्र मेरा स्वरूप ही है। प्रतिदिन ओंकार का निरन्तर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है। मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से विन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ। इस प्रकार पाँच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ है। इन सभी अवयवों से एकीभूत होकर वह प्रणव ‘ॐ’ नामक एक अक्षर हो गया। यह नाम-रूपात्मक सारा जगत् तथा वेद उत्पन्न स्त्री-पुरुषवर्ग रूप दोनों कुल इस प्रणव- मन्त्र से व्याप्त हैं। यह मन्त्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है। इसी से पंचाक्षर मन्त्र की उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूप का बोधक है। वह अकारादि क्रम से और मकारादि क्रम से क्रमशः प्रकाश में आया है (‘ॐ नमः शिवाय’ यह पंचाक्षर-मन्त्र है) । इस पंचाक्षर-मन्त्र से मातृ का वर्ण प्रकट हुए हैं, जो पाँच भेदवाले हैं। उसीसे शिरोमन्त्रसहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ है। उस गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदों से करोड़ों मन्त्र निकले हैं। उन-उन मन्त्रों से भिन्न-भिन्न कार्यों की सिद्धि होती है; परंतु इस प्रणव एवं पंचाक्षर से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है। इस मन्त्रसमुदाय से भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते हैं। मेरे सकल स्वरूप से सम्बन्ध रखने वाले सभी मन्त्रराज साक्षात् भोग प्रदान करने वाले और शुभकारक (मोक्षप्रद) हैं।

    नन्दिकेश्वर कहते हैं-तदनन्तर जगदम्बा पार्वती के साथ बैठे हुए गुरुवर महादेवजी ने उत्तराभिमुख बैठे हुए ब्रह्मा और विष्णु को पर्दा करने वाले वस्त्र से आच्छादित करके उनके मस्तक पर अपना करकमल रखकर धीरे-धीरे उच्चारण करके उन्हें उत्तम मन्त्र का उपदेश किया। मन्त्र-तन्त्र में बतायी हुई विधि के पालनपूर्वक तीन बार मन्त्र का उच्चारण करके भगवान् शिव ने उन दोनों शिष्यों को मन्त्र की दीक्षा दी। फिर उन शिष्यों ने गुरुदक्षिणा के रूपमें अपने-आपको ही समर्पित कर दिया और दोनों हाथ जोड़कर उनके समीप खड़े हो उन देवेश्वर जगद्गुरु का स्तवन किया।

    ब्रह्मा और विष्णु बोले– प्रभो! आप निष्कलरूप हैं। आपको नमस्कार है। आप निष्कल तेज से प्रकाशित होते हैं। आपको नमस्कार है। आप सबके स्वामी हैं। आपको नमस्कार है। आप सर्वात्मा को नमस्कार है अथवा सकल-स्वरूप आप महेश्वर को नमस्कार है। आप प्रणव के वाच्यार्थ हैं। आपको नमस्कार है। आप प्रणवलिंग वाले हैं। आपको नमस्कार है। सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह करने वाले आपको नमस्कार है। आपके पाँच मुख हैं। आप परमेश्वर को नमस्कार है। पंचब्रह्म स्वरूप पाँच कृत्य वाले आपको नमस्कार है। आप सबके आत्मा हैं, ब्रह्म हैं। आपके गुण और शक्तियाँ अनन्त हैं, आपको नमस्कार है। आपके सकल और निष्कल दो रूप हैं। आप सद्गुरु एवं शम्भु हैं, आपको नमस्कार है।

इन पद्यों द्वारा अपने गुरु महेश्वर की स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णु ने उनके चरणों में प्रणाम किया।

महेश्वर बोले– ‘आर्द्रा नक्षत्र से युक्त चतुर्दशी को प्रणव का जप किया जाय तो वह अक्षय फल देने वाला होता है। सूर्य की संक्रान्ति से युक्त महा-आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया हुआ प्रणव-जप कोटिगुने जप का फल देता है। ‘मृगशिरा नक्षत्र का अन्तिम भाग तथा ‘पुनर्वसु’ का आदि भाग पूजा, होम और तर्पण आदि के लिये सदा आर्द्रा के समान ही होता है—यह जानना चाहिये। मेरा या मेरे लिंग का दर्शन प्रभातकाल में ही- प्रातः और संगव (मध्याह्न के पूर्व) काल में करना चाहिये । मेरे दर्शन-पूजन के लिये चतुर्दशी तिथि निशीथव्यापिनी अथवा प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिये; क्योंकि परवर्तिनी तिथि से संयुक्त चतुर्दशी की ही प्रशंसा की जाती है। पूजा करनेवालों के लिये मेरी मूर्ति तथा लिंग दोनों समान हैं, फिर भी मूर्ति की अपेक्षा लिंगका स्थान ऊँचा है। इसलिये मुमुक्षु पुरुषों को चाहिये कि वे वेर (मूर्ति)- से भी श्रेष्ठ समझकर लिंग का ही पूजन करें। लिंग का ॐकार मन्त्र से और वेर का पंचाक्षर मन्त्र से पूजन करना चाहिये। शिवलिंग की स्वयं ही स्थापना करके अथवा दूसरों से भी स्थापना करवाकर  उत्तम द्रव्यमय उपचारों से पूजा करनी चाहिये। इससे मेरा पद सुलभ हो जाता है। इस प्रकार उन दोनों शिष्यों को उपदेश देकर भगवान् शिव वहीं अन्तर्धान हो गये।

 (अध्याय १०)