पद्मपुराण ‘ पेज -11’
चन्द्रमा की उत्पत्ति तथा यदुवंश एवं सहस्रार्जुन के प्रभाव का वर्णन
भीष्मजी ने पूछा-समस्त शास्त्रों के ज्ञाता पुलस्त्य जी ! चन्द्रवंश की उत्पत्ति कैसे हुई ? उस वंश में कौन-कौन-से राजा अपनी कीर्ति का विस्तार करने वाले हुए ! पुलस्स्य जी ने कहा- राजन् ! पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने महर्षि अत्रि को सृष्टि के लिए आज्ञा दी। तब उन्होंने सृष्टि की शक्ति प्राप्त करने के लिये अनुत्तर नाम का तप किया। वे अपने मन और इन्द्रियों के संयम में तत्पर होकर परमानन्दमय ब्रह्म का चिन्तन करने लगे । एक दिन महर्षि के नेत्रों से कुछ जल की बूँदें टपकने लगीं, जो अपने प्रकाश से सम्पूर्ण चराचर जगत को प्रकाशित कर रही थीं। दिशाओं [की अधिष्ठात्री देवियों] ने स्त्री रूप में आकर पुत्र पाने की इच्छा से उस जल को ग्रहण कर लिया। उनके उदर में वह जल गर्भरूप से स्थित हुआ । दिशाएँ उसे धारण करने में असमर्थ हो गई; अतः उन्होंने उस गर्भ को त्याग दिया । तब ब्रह्मा जी ने उनके छोड़े हुए गर्भ को एकत्रित करके उसे एक तरुण पुरुष के रूप में प्रकट किया जो सब प्रकार के आयुधों को धारण करने वाला था । फिर वे उस तरुण पुरुष को देव-शक्ति सम्पन्न सहस्र नामक रथ पर बिठाकर अपने लोक में ले गये । तब ब्रह्मऋषियों ने कहा- “ये हमारे स्वामी हैं”। तदनन्तर ऋषि, देवता, गन्धर्व और अप्सराएँ, उनकी स्तुति करने लगीं । उस समय उनका तेज बहुत बढ़ गया। उस तेज के विस्तार से इस पृथ्वी पर दिव्य ओषधियाँ उत्पन्न हुई। इसी से चन्द्रमा ओषधियों के स्वामी हुए तथा द्विजों में भी उनकी गणना हुई। वे शुक्ल पक्ष में बढ़ते और कृष्ण पक्ष में सदा क्षीण होते रहते हैं। कुछ काल के बाद प्रचेताओं के पुत्र प्रजापति दक्ष ने अपनी सत्ताईस कन्याएँ, जो रूप और लावण्य से युक्त तथा अत्यन्त तेजस्विनी थी: चन्द्रमा को पत्नी- रूप में अर्पण कीं । तत्पश्चात् चन्द्रमा ने केवल श्रीविष्णु के ध्यान में तत्पर होकर चिर काल तक बड़ी भारी तपस्या की। इससे प्रसन्न होकर परमात्मा श्रीनारायण देव ने उनसे वर माँगने को कहा । तब चन्द्रमा ने यह वर माँगा — ‘मैं इन्द्रलोक में राजसूय यश करूँगा । उसमें आपके साथ ही सम्पूर्ण देवता मेरे मन्दिर में प्रत्यक्ष प्रकट होकर यज्ञभाग ग्रहण करें । शूलधारी भगवान् श्रीशङ्कर मेरे यज्ञ की रक्षा करें ।’ ‘तथास्तु’ कहकर भगवान् श्रीविष्णु ने स्वयं ही राजसूय यज्ञ का समारोह किया। उसमें अत्रि होता, भृगु अध्वर्यु और ब्रह्माजी उद्गाता हुए। साक्षात् भगवान् श्रीहरि ब्रह्मा बनकर यज्ञ के द्रष्टा हुए तथा सम्पूर्ण देवताओं ने सदस्य का काम सँभाला। यज्ञ पूर्ण होने पर चन्द्रमा को दुर्लभ ऐश्वर्य मिला और वे अपनी तपस्या के प्रभाव से सातों लोकों के स्वामी हुए । चन्द्रमा से बुध की उत्पत्ति हुई । ब्रह्मर्षियों के साथ ब्रह्मा- जी ने बुध को भूमण्डल के राज्य पर अभिषिक्त करके उन्हें ग्रहों की समानता प्रदान की । बुध ने इला के गर्भ से एक धर्मात्मा पुत्र उत्पन्न किया, जिसने सौ से भी अधिक अश्वमेघ यज्ञों का अनुष्ठान किया। वह पुरूरवा के नाम से विख्यात हुआ। सम्पूर्ण जगत् के लोगों ने उसके सामने मस्तक झुकाया । पुरूरवा ने हिमालय के रमणीय शिखरपर ब्रह्माजी की आराधना करके लोकेश्वर का पद प्राप्त किया। वे सातों द्वीपों के स्वामी हुए । केशी आदि दैत्यों ने उनकी दासता स्वीकार की । उर्वशी नाम की अप्सरा उनके रूप पर मोहित होकर उनकी पत्नी हो गयी । राजा पुरूरवा सम्पूर्ण लोकों के हितैषी राजा’ थे; उन्होंने सातों द्वीप, वन, पर्वत और काननो सहित समस्त भूमण्डल का धर्म पूर्वक पालन किया । उर्वशी ने पुरूरवा के वीर्य से आठ पुत्रों को जन्म दिया। उनके नाम ये है- आयु, दृढायु, वश्यायु, धनायु, वृत्तिमान्, वसु, दिविजात और सुबाहु ये सभी दिव्य बल और पराक्रम से सम्पन्न थे। इनमें से आयु के पाँच पुत्र हुए- नहुष, वृद्ध शर्मा, रजि, दम्भ और विषाप्मा । ये पाँचों वीर महारथी थे। रजि के सौ पुत्र हुए, जो राजेय के नाम से विख्यात थे। राजन् ! रजि ने तपस्या द्वारा पाप के सम्पर्क से रहित भगवान् श्रीनारायण की आराधना की। इससे सन्तुष्ट होकर श्रीविष्णु ने उन्हें वरदान दिया, जिससे रजि ने देवता, असुर और मनुष्यों को जीत लिया । अब मैं नहुष के पुत्रो का परिचय देता हूँ। उनके सात पुत्र हुए और ये सब के सब धर्मात्मा थे। उनके नाम ये है-यांते, ययाति, तंयाति, उद्भय, पर, वियति और विद्यसाति । ये सातों अपने वंश का यश बढ़ाने वाले थे । उनमें यति कुमारावस्था में ही वानप्रस्थ योगी हो गये । ययाति राज्य का पालन करने लगे । उन्होंने एकमात्र धर्म की ही शरण ले रखी थी। दानव राज वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा तथा शुक्राचार्य की पुत्री सती देवयानी—ये दोनों उनकी पत्नियाँ थीं । ययाति के पाँच पुत्र थे देवयानी ने यदु और तुर्वसु नाम के दो पुत्रों को जन्म दिया तथा शर्मिष्ठा ने द्रुह्यु, अनु और पूरु नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये। उनमें यदु और पूरु- ये दोनों अपने वंश का विस्तार करने वाले हुए। यदु से यादवों की उत्पत्ति हुई, जिनमें पृथ्वी का भार उतारने और पाण्डवों का हित करने के लिये भगवान् बलराम और श्रीकृष्ण प्रकट हुए हैं । यदु के पाँच पुत्र हुए, जो देवकुमारों के समान थे । उनके नाम थे— सहस्रजित् क्रोष्टु, नील, अञ्जिक और रघु । इनमें सहस्रजित् ज्येष्ठ थे । उनके पुत्र राजा शतजित् हुए । शतजित् के हैहय, इय और उत्तालय – ये तीन पुत्र हुए, जो बड़े धर्मात्मा थे । हैहय का पुत्र धर्मनेत्र के नाम से विख्यात हुआ । धर्मनेत्र के कुम्भ, कुम्भि के संहत और संहत के महिष्मान् नामक पुत्र हुआ । महिष्मान् भद्रसेन नामक पुत्र का जन्म हुआ, जो बड़ा प्रतापी था । वह काशीपुरी का राजा था । भद्रसेन के पुत्र राजा दुर्दर्श हुए। दुर्दर्श के पुत्र भीम और भीम के बुद्धिमान् कनक हुए। कनक के कृतानि, कृतवीर्य, कृतधर्मा और कृतौजा-ये चार पुत्र हुए, जो संसार में विख्यात थे । कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन हुआ, जो एक हजार भुजाओं से सुशोभित एवं सातों द्वीपों का राजा था । राजा कार्तवीर्य ने दस हजार वर्षों तक दुष्कर तपस्या करके भगवान् दत्तात्रेय जी की आराधना की। पुरुषोत्तम दत्तात्रेय जी- ने उन्हें चार वरदान दिये । राजाओं में श्रेष्ठ अर्जुन ने पहले तो अपने लिये एक हजार भुजाएँ माँगीं । दूसरे वर के द्वारा उन्होंने यह प्रार्थना की कि ‘मेरे राज्य में लोगों को अधर्म की बात सोचते हुए भी मुझ से भय हो और वे अधर्म के मार्ग से हट जायँ ।’ तीसरा वरदान इस प्रकार था मैं युद्ध में पृथ्वी को जीतकर धर्मपूर्वक बल का संग्रह करूँ।’ चौथे वर के रूप में उन्होंने यह माँगा कि ‘संग्राम में लड़ते लड़ते मैं अपनी अपेक्षा श्रेष्ठ वीर के हाथ से मारा जाऊँ । राजा अर्जुन ने साता द्वीप और नगरों से युक्त तथा सातों समुद्रों से घिरी हुई इस ‘ सारी पृथ्वी को क्षात्रधर्म के अनुसार जीत लिया था । उस बुद्धिमान नरेश के इच्छा करते ही हजार भुजाएँ प्रकट हो जाती थीं । महाबाहु अर्जुन के सभी यज्ञों में पर्याप्त दक्षिणा बाँटी जाती थी। सबमें सुवर्णमय यूप (स्तम्भ) और सोने की ही वेदियों बनायी जाती थीं । उन यज्ञों में सम्पूर्ण देवता सज-धज कर विमानों पर बैठकर प्रत्यक्ष दर्शन देते थे । महाराज कार्तवीर्य ने पचासी हजार वर्षों तक एकछत्र राज्य किया। वे चक्रवर्ती राजा थे। योगी होने के कारण अर्जुन समय-समय पर मेघ के रूप में प्रकट हो वृष्टि के द्वारा प्रजा को सुख पहुँचाते थे । प्रत्यञ्चा के आघात से उनकी भुजाओं की त्वचा कठोर हो गयी थी। जब वे अपनी हजारों भुजाओं के साथ संग्राम में खड़े होते थे, उस समय सहस्रों किरणों से सुशोभित शरत्कालीन सूर्य के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। परम कान्तिमान् महाराज – अर्जुन माहिष्मतीपुरी में निवास करते थे और वर्षाकाल में समुद्र का वेग भी रोक देते थे । उनकी हजारों भुजाओं के आलोडन से समुद्र क्षुब्ध हो उठता था और उस समय पाताल वासी महान् असुर लुक-छिपकर निश्चेष्ट हो जाते थे । एक समय की बात है, वे अपने पाँच बाणों से अभिमानी रावण को सेना सहित मूर्छित करके माहिष्मतीपुरी में ले आये । वहाँ ले जाकर उन्होंने रावण को कैद में डाल दिया । तब मैं ( पुलस्त्य ) अर्जुन को प्रसन्न करने के लिये गया । राजन् ! मेरी बात मानकर उन्होंने मेरे पौत्र को छोड़ दिया और उसके साथ मित्रता कर ली । किन्तु विधाता का बल और पराक्रम अद्भुत है, जिसके प्रभाव से भृगुनन्दन परशुरामजी ने राजा कार्तवीर्य की हजारों भुजाओं को सोने के तालवन की भाँति संग्राम में काट डाला । कार्तवीर्य अर्जुन के सौ पुत्र थे; किन्तु उनमें पाँच महारथी, अस्त्रविद्या में निपुण, बलवान्, शूर, धर्मात्मा और महान् व्रत का पालन करने वाले थे। उनके नाम थे— शूरसेन, शूर, धृष्ट, कृष्ण और जयध्वज । जयध्वज का पुत्र महाबली तालजङ्घ हुआ। तालजङ्घ के सौ पुत्र हुए, जिनकी तालजङ्घ के नाम से ही प्रसिद्धि हुई । उन हैहय वंशीय राजाओं के पाँच कुल हुए वीतिहोत्र, भोज, अवन्ति, तुण्डकेर और विक्रान्त । ये सब-के-सब तालजङ्घ ही कहलाये । वीतिहोत्र का पुत्र अनन्त हुआ, जो बड़ा पराक्रमी था । उसके दुर्जय नामक पुत्र हुआ, जो शत्रुओं का संहार करने वाला था ।
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