विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 19-20)

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विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 19-20)

पार्थिवलिंग के निर्माण की रीति तथा वेद-मन्त्रों द्वारा उसके पूजन की विस्तृत एवं संक्षिप्त विधि का वर्णन

तदनन्तर पार्थिवलिंग की श्रेष्ठता तथा महिमा का वर्णन करके सूतजी कहते हैं महर्षियो ! अब मैं वैदिक कर्म के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखने वाले लोगों के लिये वेदोक्त मार्ग से ही पार्थिव पूजा की पद्धति का वर्णन करता हूँ। यह पूजा भोग और मोक्ष दोनों को देने वाली है। आह्निक सूत्रों में बतायी हुई विधि के अनुसार विधिपूर्वक स्नान और संध्योपासना करके पहले ब्रह्मयज्ञ करे। तत्पश्चात् देवताओं, ऋषियों, सनकादि मनुष्यों और पितरों का तर्पण करे। अपनी रुचि के अनुसार सम्पूर्ण नित्यकर्म को पूर्ण करके शिवस्मरण पूर्वक भस्म तथा रुद्राक्ष धारण करे। तत्पश्चात् सम्पूर्ण मनोवांछित फल की सिद्धि के लिये ऊँची भक्ति भावना के साथ उत्तम पार्थिवलिंग की वेदोक्त विधि से भली-भाँति पूजा करे। नदी या तालाब के किनारे, पर्वत पर, वन में, शिवालय में अथवा और किसी पवित्र स्थान में पार्थिव पूजा करने का विधान है। ब्राह्मणो ! शुद्ध स्थान से निकाली हुई मिट्टी को यत्नपूर्वक लाकर बड़ी सावधानी के साथ शिवलिंग का निर्माण करे। ब्राह्मण के लिये श्वेत, क्षत्रिय के लिये लाल, वैश्य के लिये पीली और शूद्र के लिये काली मिट्टी से शिवलिंग बनाने का विधान है अथवा जहाँ जो मिट्टी मिल जाय, उसी से शिवलिंग बनाये । शिवलिंग बनाने के लिये प्रयत्नपूर्वक मिट्टी का संग्रह करके उस शुभ मृत्तिका को अत्यन्त शुद्ध स्थान में रखे। फिर उसकी शुद्धि करके जल से सानकर पिण्डी बना ले और वेदोक्त मार्ग से धीरे-धीरे सुन्दर पार्थिवलिंग की रचना करे। तत्पश्चात् भोग और मोक्षरूपी फल की प्राप्ति के लिये भक्तिपूर्वक उसका पूजन करे। उस पार्थिवलिंग के पूजन की जो विधि है, उसे मैं विधानपूर्वक बता रहा हूँ; तुम सब लोग सुनो। ‘ॐ नमः शिवाय’ इस मन्त्र का उच्चारण करते हुए समस्त पूजन-सामग्री का प्रोक्षण करे-उस पर जल छिड़के। इसके बाद ‘भूरसि० मन्त्र (भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृह पृथिवीं मा हिसीः) से क्षेत्रसिद्धि करे, फिर ‘आपोऽस्मान्० (आपो अस्मान् मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु । विश्व रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा (यजु० १३ । १८) पूत एमि । दीक्षातपसोस्तनूरसि तां त्वा शिवा शग्मां परि दधे भद्रं वर्णं पुष्यन् । (यजु० ४।२)) इस मन्त्र का जल का संस्कार करे। इसके बाद ‘नमस्ते रुद्र०” (नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः बाहुभ्यामुत ते नमः । (यजु० १६ । १)) इस मन्त्र से स्फाटिकाबन्ध (स्फटिक शिला का घेरा) बनाने की बात कही गयी है। ‘नमः शम्भवाय०” (नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च। (यजु० १६ । ४१) इस मन्त्र से क्षेत्रशुद्धि और पंचामृत का प्रोक्षण करे। तत्पश्चात् शिवभक्त पुरुष ‘नमः’ पूर्वक ‘नीलग्रीवाय०’ (नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीदुषे । अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः । (यजु० १६| ८) मन्त्र से शिवलिंग की उत्तम प्रतिष्ठा करे। इसके बाद वैदिक रीति से पूजन-कर्म करने वाला उपासक भक्तिपूर्वक ‘एतते (एतत्ते रुद्रावसं तेन परो मूजवतोऽतीहि । अवततधन्वा पिनाकावसः कृत्तिवासा अहिःसन्नः शिवोऽतीहि । (यजु० ३।६१) इस मन्त्र से रमणीय आसन दे। ‘ मा नो महान्तम्०’ (मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्। मा नो वधीः पितरं मोत मातरं प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः । (यजु० १६ । १५) इस मन्त्र से आवाहन करे, “या ते रुद्र०” (या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी। या नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि । (यजु० १६ । २) इस मन्त्र से भगवान् शिव को आसन पर समासीन करे । ‘यामिषु०’ (यामिषु गिरिशन्त हस्ते विभष्यंस्तवे। शिवां गिरित्र तां कुरु मा हिसीः पुरुषं जगत्। (यजु० १६ । ३) इस मन्त्र से शिव के अंगों में न्यास करे। ‘अध्यवोचत्० (अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक् । अहीरश्च सर्वाज्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराची: परा सुव। (यजु० १६।५) इस मन्त्र से प्रेम पूर्वक अधि वासन करे । ‘असौ यस्ताम्रो० (असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः । ये चैनरुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशोऽवैषा में हेड ईमहे । (यजु० १६ । ६) इस मन्त्र से   शिवलिंग में इष्टदेवता शिव का न्यास करे । ‘असौ योऽवसर्पति० (असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः । उत्तैनं गोपा अदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्यः स दृष्टो मूडयाति नः । (यजु० १६ । ७) इस मन्त्र से  उपसर्पण (देवताके समीप गमन) करे। इसके बाद ‘नमोऽस्तु नीलग्रीवाय० ((नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मीदुषे । अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः । (यजु० १६| ८) इस मन्त्र से इष्टदेव को पाद्य समर्पित करे। ‘रुद्रगायत्री०’ (तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ।) से अर्घ्य दे ।’ त्र्यम्बकं० (त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धि पतिवेदनम्। उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः । (यजु० ३।६०) मन्त्र से आचमन कराये। ‘पयः पृथिव्यां०’ (पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः पयस्वती: प्रदिशः सन्तु माम् । (यजु० १८ । ३६) इस मन्त्र से दुग्धस्नान कराये। ‘दधिक्राव्णो० (दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः । सुरभि नो मुखा करत्प्रणआयुषि तारिषत् । (यजु० २३ । ३२) इस मन्त्र से दधिस्नान कराये। ‘घृतं घृतपावा०’ (घृत घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा । दिशः प्रदिश आदिशो विदिशउद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा ।(यजु० ६ । १९)   इस मन्त्र से घृतस्नान कराये।’ मधु वाता० ‘मधुनकतं ३, ” मधमान्नो’ (मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ।(यजु० १३ ।२७)३. मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव रेजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता ।(यजु० १३ । २८)४.मधुमान्नो वनस्पतिर्मधूमा अस्तु सूर्य्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ।(यजु० १३ । २९)   इन तीन ऋचाओं से मधु-स्नान और शर्करा स्नान कराये। इन दुग्ध आदि पाँच वस्तुओं को पंचामृत कहते हैं। अथवा पाद्य-समर्पण के लिये कहे गये’ नमोऽस्तु नीलग्रीवाय०’ (बहुत-से विद्वान् ‘मधु वाता०’ आदि तीन ऋचाओं का उपयोग केवल मधुस्नान में ही करते हैं और शर्करा स्नान कराते समय निम्नांकित मन्त्र बोलते हैं-अपाँ समुद्वयस सूर्ये सन्त समाहितम् । अपाय सस्य यो रसस्तं वो गृह्णाभ्युत्तममुपयामगृही-तोऽसीन्द्राय त्वां जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम् ।(यजु० ९।३)   इत्यादि मन्त्र द्वारा पंचामृत से स्नान कराये। तदनन्तर ‘मा नस्तोके (मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः। मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तःसदमित् त्वा हवामहे ।(यजु० १६ । १६ ) इस मन्त्र से प्रेम पूर्वक भगवान् शिव को कटिबन्ध (करधनी) अर्पित करे।  नामों धृष्णवे०  (नमो धृष्णवे च प्रमृशाय च नमो निषङ्गिणे चेषुधिमते च नमस्तीक्ष्णेषवे चायुधिने च नमः स्वायुधाय चसुधन्वने च ।(यजु० १६ । ३६) ‘इस मन्त्र का उच्चारण करके आराध्य देवता को उत्तरीय धारण कराये। ‘या ते हेतिः” (या ते हेतिर्मीढुष्टम हस्ते बभूव ते धनुः । तयास्मान्विश्वतस्त्वमयक्ष्मया परि भुज (११) । परि ते धन्वनोहेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः । अथो य इषधिस्तवारे अस्मन्नि धेहि तम् (१२)। अवतत्य धनुष्ट्व, सहस्राक्ष‍शतेषुधे। निशीर्य्य शल्यानां मुखा शिवो न सुमना भव (१३) । नमस्त आयुधायानातताय धृष्णवे|उभाभ्यामृत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने (१४) ।(यजु० १६)  इत्यादि चार ऋचाओं को पढ़कर वेदज्ञ भक्त प्रेम से विधिपूर्वक भगवान् शिव के लिये वस्त्र (एवं यज्ञोपवीत) समर्पित करे। इसके बाद नमः श्वभ्य: (नमः श्वभ्यः श्वपतिभ्यश्च वो नमो नमो भवाय च रुद्राय च नमः शवाय च पशुपतये च नमो नीलग्रीवायच शितिकण्ठाय च ।भ्रम(यजु० १६ । २८) इत्यादि मन्त्र को पढ़कर शुद्ध बुद्धि वाला भक्त पुरुष भगवान्‌ को प्रेम पूर्वक गन्ध (सुगन्धित चन्दन एवं रोली) चढ़ाये। ‘नमस्तक्षभ्यो० (नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वो नमो नमः कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश्च वो नमो नमो निषादेभ्यः पुञ्जिष्ठेभ्यश्च वोनमो नमः श्वनिभ्यो मृगयुभ्यश्च वो नमः।(यजु० १६ । २७) इस मन्त्र से अक्षत अर्पित करे । ‘नमः पार्याय० (नमः पार्याय चावार्याय च नमः प्रतरणाय चोत्तरणाय च नमस्तीर्थ्याय च कूल्याय च नमः शष्याय चफेन्याय च ।(यजु० १६ । ४२) इस मन्त्र से फूल चढ़ाये। ‘नमः पर्णाय० १'(नमः पर्णाय च पर्णशदाय च नम उद्गुरमाणाय चाभिघ्नते च नम आखिदते च प्रखिदते च नम इषुकृद्भ्यो धनष्कद्भ्यश्च वो नमो नमो वः किरिकेभ्यो देवाना हृदयेभ्यो नमो विचिन्वत्केभ्यो नमो नम आनिर्हतेभ्यः। (यजु० १६ । ४६ .) इस मन्त्र से बिल्वपत्र समर्पण करे । ‘नमः कपर्दिनेच.२ (नम: कपर्दिने च व्युप्तकेशाय च नमः सहस्राक्षाय च शतधन्वने च नमो गिरिशयाय च शिपिविष्टायचनमो मीढुष्टमाय चेषुमते च ।(यजु० १६ । २९) इत्यादि मन्त्र से विधि पूर्वक धूप दे। ‘नम आशवे०३’ (नम आशवे चाजिरायनमःशीघ्रयाय च शीम्याय च नम ऊर्म्याय चावस्वन्याय च नमो नादेयाय चद्वीप्याय च ।(यजु० १६ । ३१) इस ऋचा से शास्त्रोक्त विधि के अनुसार दीप निवेदन करे। तत्पश्चात् (हाथ धोकर) ‘नमा ज्येष्ठाय० ४”( नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च नमः पर्वजाय चापरजाय च नमो मध्यमाय चापगल्भाय च नमो जघन्यायच बुध्न्याय च।(यज० १६ । ३२)    इस मन्त्र से उत्तम नैवेद्य अर्पित करे। फिर पूर्वोक्त त्र्यम्बक- मन्त्र से आचमन कराये। ‘इमारुद्राय०५” (इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः । यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामेअस्मिन्ननातुरम् ।(यज० १६ । ४८) इस ऋचा से फल समर्पण करे। फिर ‘नमो व्रज्याय० ६’ (नमो व्रज्याय च गोष्ठ्याय च नमस्तल्य्याय च गेह्याय च नमो हृदय्याय च निवेष्याय च नमः काट्यायच गह्वरेष्ठाय च।(यजु० १६ । ४४) इस मन्त्र से भगवान शिव को अपना सब कुछ समर्पित कर दे । तदनन्तर’ मा नो महान्तम्० ‘ तथा ‘मा नस्तोके ‘इन पूर्वोक्त दो मन्त्रों द्वारा केवल अक्षतों से ग्यारह रुद्रों का पूजन करे। फिर ‘हिरण्यगर्भः (हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवायहविषा विधेम) इत्यादि मन्त्र से जो तीन ऋचाओं के रूप में पठित है, दक्षिणा चढ़ाये (यह मन्त्र यजुर्वेद के अन्तर्गत तीन स्थानों में पठित और तीन मन्त्रों के रूप में परिगणित है। यथा-यज० १३ । ४; २३ । १ तथा २५ । १० में ।) । ‘देवस्य त्वा० (देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्वि नोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । अश्विनोर्भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसायाभिषिञ्चामिसरस्वत्यै भैषज्येन वीर्यायाआद्यायाभि षिञ्चामीन्द्रस्येन्द्रियेण बलाय श्रियै यशसेऽभिषिञ्चामि ।(यजु० २० । ३)   ‘इस मन्त्र से विद्वान् पुरुष आराध्य देव का अभिषेक करे। दीप के लिये बताये हुए ‘नम आशवे०’ इत्यादि मन्त्र से भगवान् शिव की नीराजना (आरती) करें। तत्पश्चात् ‘इमारुद्राय०’ इत्यादि तीन ऋचाओं से भक्ति पूर्वक रुद्रदेव को पुष्पांजलि अर्पित करे । ‘मानो महान्तम्०’ इस मन्त्र से विज्ञ उपासक पूजनीय देवता की परिक्रमा करे। फिर उत्तम बुद्धि वाला उपासक ‘मा नस्तोके० ‘ इस मन्त्र से भगवान्‌ को साष्टांग प्रणाम करे । ‘एष ते० (एष ते रुद्र भागः सह स्वस्त्राम्बिकया तं जुषस्व स्वाहा । एष ते रुद्र भाग आखुस्ते पशुः || (यजु० ३ । ५७) इस मन्त्र से शिव मुद्रा का प्रदर्शन करे । ‘यतो यतः ०१’ (यतो यतः समीहसे ततो अभयं कुरु। शं नः कुरु प्रजाभ्योsभयं नः पशुभ्यः।। यजु० ३६ । २३ ) इस मन्त्र से अभय नामक मुद्रा का, ‘त्र्यम्बकं० ‘ मन्त्र से ज्ञान नामक मुद्रा का तथा ‘नमः सेना० २ (नमः सेनाभ्यः सेनानिभ्यश्च वो नमो नमो रथिभ्यो अरथेभ्यश्च वो नमो नमः । क्षतृभ्यः संग्रहीतृभ्यश्च वो नमो नमो महदुद्भ्यो अर्धकेभ्यश्च वो नमः ॥ (यजु० १६ । २६) ‘ इत्यादि मन्त्र से महामुद्रा का प्रदर्शन करे । ‘नमो गोभ्य०३’ (नमो गोभ्यः श्रीमतीभ्यः सौरभेयीभ्य एव च। नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो नमो नमः ॥ (गोमतीविद्या)  इस ऋचा द्वारा धेनु मुद्रा दिखाये। इस तरह पाँच मुद्राओं का प्रदर्शन करके शिव सम्बन्धी मन्त्रों का जप करे अथवा वेदज्ञ पुरुष ‘शतरुद्रिय०४’ (यजुर्वेदका वह अंश, जिसमें रुद्रके सौ या उससे अधिक नाम आये हैं और उनके द्वारा रुद्रदेव की स्तुति की गयी है। (देखिये यजु० अध्याय १६)   मन्त्र की आवृत्ति करे । तत्पश्चात् वेदज्ञ पुरुष पंचांग पाठ करे। तदनन्तर ‘देवा गातु०५’ (देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित मनसस्पत इमं देव यज्ञःस्वाहा वाते धाः ॥ (यजु० ८।२१)  इत्यादि मन्त्र से भगवान् शंकर का विसर्जन करे। इस प्रकार शिवपूजा की वैदिक विधि का विस्तार से प्रतिपादन किया गया। महर्षियो ! अब संक्षेप से भी पार्थिव पूजन की वैदिक विधि का वर्णन सुनो। ‘सद्यो जातं. ६ (सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः । भवे भवेनातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ॥) ‘ इस ऋचा से पार्थिवलिंग बनाने के लिये मिट्टी ले आये। ‘वामदेवाय” (ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मथाय नमः ।) इत्यादि मन्त्र पढ़ कर उसमें जल डाले । (जब मिट्टी सनकर तैयार हो जाय तब) ‘अघोर०८’ (ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ।)  मन्त्र से लिंग निर्माण करे। फिर ‘तत्पुरुषाय०९’ (ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ।) इस मन्त्र से विधिवत् उसमें भगवान् शिव का आवाहन करे । तदनन्तर ‘ईशान० १०’ (ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणो ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदा शिवोम् ॥) मन्त्र से भगवान् शिव को वेदी पर स्थापित करे। इनके सिवाय अन्य सब विधानों को भी शुद्ध बुद्धि वाला उपासक संक्षेप से ही सम्पन्न करे। इसके बाद विद्वान् पुरुष पंचाक्षर मन्त्र से अथवा गुरु के दिये हुए अन्य किसी शिव सम्बन्धी मन्त्र से सोलह उपचारों द्वारा विधिवत् पूजन करे अथवा भवाय भवनाशाय महादेवाय धीमहि । उग्राय उग्रनाशाय शर्वाय शशिमौलिने ॥ (२० । ४३) – इस मन्त्र द्वारा विद्वान् उपासक भगवान् शंकर की पूजा करे। वह भ्रम छोड़कर उत्तम भाव-भक्ति से शिव की आराधना करे; क्योंकि भगवान् शिव भक्ति से ही मनोवांछित फल देते हैं। ब्राह्मणो ! यहाँ जो वैदिक विधि से पूजन का क्रम बताया गया है, इसका पूर्ण रूप से आदर करता हुआ मैं पूजा की एक दूसरी विधि भी बता रहा हूँ, जो उत्तम होने के साथ ही सर्वसाधारण के लिये उपयोगी है। मुनिवरो ! पार्थिवलिंग की पूजा भगवान् शिव के नामों से बतायी गयी है। वह पूजा सम्पूर्ण अभीष्टों को देने वाली है। मैं उसे बताता हूँ, सुनो ! हर, महेश्वर, शम्भु, शूलपाणि, पिनाकधृक्, शिव, पशुपति और महादेव – ये क्रमशः शिव के आठ नाम कहे गये हैं। इनमें से प्रथम नाम के द्वारा अर्थात् ‘ॐ हराय नमः’ का उच्चारण करके पार्थिव लिंग बनाने के लिये मिट्टी लाये। दूसरे नाम अर्थात् ‘ॐ महेश्वराय नमः’ का उच्चारण करके लिंग-निर्माण करे। फिर ‘ॐ शम्भवे नमः’ बोलकर उस पार्थिव-लिंग की प्रतिष्ठा करे। तत्पश्चात् ‘ ॐ शूलपाणये नमः’ कहकर उस पार्थिव लिंग में भगवान् शिव का आवाहन करे। ‘ॐ पिनाकधृषे नमः’ कहकर उस शिवलिंग को नहलाये । ॐ शिवाय नमः ‘ बोलकर उसकी पूजा करे। फिर ‘ॐ पशुपतये नमः’ कहकर क्षमा-प्रार्थना करे और अन्त में ‘ॐ महादेवाय नमः’ कहकर आराध्य देव का विसर्जन कर दे । प्रत्येक नाम के आदि में ॐकार और अन्त में चतुर्थी विभक्ति के साथ ‘नमः’ पद लगाकर बड़े आनन्द और भक्तिभाव से पूजन सम्बन्धी सारे कार्य करने चाहिये।( हरो महेश्वरः शम्भुः शूलपाणिः पिनाकधृक् । शिवः पशुपतिश्चैव महादेव इति क्रमात् ॥ मृदाहरणसंघट्टप्रतिष्ठाह्वानमेव च। स्नपनं पूजनं चैव क्षमस्वेति विसर्जनम् ॥ ॐकारादिचतुर्थ्यन्तैर्नमोऽन्तैर्नामभिः क्रमात् । कर्तव्याश्च क्रियाः सर्वा भक्त्या परमया मुदा ॥ (शि० पु० वि० २० ४७-४९)

 षडक्षर-मन्त्र से अंगन्यास और करन्यास की विधि भलीभाँति सम्पन्न करके फिर नीचे लिखे अनुसार ध्यान करे। जो कैलास पर्वत पर एक सुन्दर सिंहासन के मध्यभाग में विराजमान हैं, जिनके वामभाग में भगवती उमा उनसे सटकर बैठी हुई हैं, सनक- सनन्दन आदि भक्तजन जिनकी पूजा कर रहे हैं तथा जो भक्तों के दुःखरूपी दावानल को नष्ट कर देने वाले अप्रमेय शक्तिशाली ईश्वर हैं, उन विश्वविभूषण भगवान् शिव का चिन्तन करना चाहिये । भगवान् महेश्वर का प्रतिदिन इस प्रकार ध्यान करे-उनकी अंग-कान्ति चाँदी के पर्वत की भाँति गौर है। वे अपने मस्तक पर मनोहर चन्द्रमा का मुकुट धारण करते हैं। रत्नों के आभूषण धारण करने से उनका श्रीअंग और भी उद्भासित हो उठा है। उनके चार हाथों में क्रमशः परशु, मृगमुद्रा, वर एवं अभयमुद्रा सुशोभित हैं। वे सदा प्रसन्न रहते हैं। कमल के आसनपर बैठे हैं और देवता लोग चारों ओर खड़े होकर उनकी स्तुति कर रहे हैं। उन्होंने वस्त्र की जगह व्याघ्रचर्म धारण कर रखा है। वे इस विश्व के आदि हैं, बीज (कारण)-रूप हैं। तथा सबका समस्त भय हर लेने वाले हैं। उनके पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुखमण्डल में तीन-तीन नेत्र हैं । २ अंगन्यास और करन्यासका प्रयोग इस प्रकार समझना चाहिये। ॐ ॐ अङ्गुष्ठाभ्यां नमः १। ॐ नं तर्जनीभ्यां नमः २। ॐ मं मध्यमाभ्यां नमः ३। ॐ शिं अनामिकाभ्यां नमः ४। ॐ वां कनिष्ठिकाभ्यां नमः ५। ॐ यं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ६। इति करन्यासः । ॐ ॐ हृदयाय नमः १ ॐ नं शिरसे स्वाहा २ ।

    इस प्रकार ध्यान तथा उत्तम पार्थिव लिंग का पूजन करके गुरु के दिये हुए पंचाक्षर मन्त्र का विधिपूर्वक जप करे । विप्रवरो ! विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह देवेश्वर शिव को प्रणाम करके नाना प्रकार की स्तुतियों द्वारा उनका स्तवन करे तथा शतरुद्रिय (यजु० १६ वें अध्याय के मन्त्रों ) – का पाठ करे। तत्पश्चात् अंजलि में अक्षत और फूल लेकर उत्तम भक्ति भाव से निम्नांकित मन्त्रों को पढ़ते हुए प्रेम और प्रसन्नता के साथ भगवान् शंकर से इस प्रकार प्रार्थना करे-  ॐ मं शिखायै वषट् ३। ॐ शिं कवचाय हुम् ४। ॐ वां नेत्रत्रयाय वौषट् ५। ॐ यं अस्त्राय फट् ६। इति हृदयादिषडङ्गन्यासः। यहाँ करन्यास और हृदयादिषडङ्गन्यासके छः-छः वाक्य दिये गये हैं। इनमें करन्यासके प्रथम वाक्यको पढ़कर दोनों तर्जनी अंगुलियोंसे अंगुष्ठोंका स्पर्श करना चाहिये। शेष वाक्योंको पढ़कर अंगुष्ठोंसे तर्जनी आदि अंगुलियोंका स्पर्श करना चाहिये। इसी प्रकार अंगन्यासमें भी दाहिने हाथसे हृदयादि अंगोंका स्पर्श करने की विधि है। केवल कवचन्यासमें दाहिने हाथसे बायीं भुजा और बायें हाथ से दायीं भुजाका स्पर्शं करना चाहिये। ‘अस्त्राय फट्’ इस अन्तिम वाक्यको पढ़ते हुए दाहिने हाथको सिरके ऊपरसे ले आकर बायीं हथेलीपर ताली बजानी चाहिये। ध्यानसम्बन्धी श्लोक, जिनके भाव ऊपर दिये गये हैं. इस प्रकार हैं कैलासपीठासनमध्यसंस्थं भक्तैः सनन्दादिभिरर्च्यमानम् । भक्तार्तिदावानलहाप्रमेयं ध्यायेदुमालिङ्गितविश्वभूषणम्॥ ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्। पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरगणैर्व्याघ्रकृतिं वसानं विश्वाद्यं विश्ववीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम् ॥ (शि० पु० वि० २० । ५१-५२)

 ‘सबको सुख देने वाले कृपानिधान भूतनाथ शिव ! मैं आपका हूँ। आपके गुणों में ही मेरे प्राण बसते हैं अथवा आप के गुण ही मेरे प्राण- मेरे जीवन सर्वस्व हैं। मेरा चित्त सदा आपके ही चिन्तन में लगा हुआ है। यह जानकर मुझपर प्रसन्न होइये । कृपा कीजिये । शंकर ! मैंने अनजान में अथवा जान-बूझकर यदि कभी आपका जप और पूजन आदि किया हो तो आपकी कृपा से वह सफल हो जाय । गौरीनाथ ! मैं आधुनिक युग का महान् पापी हूँ, पतित हूँ और आप सदा से ही परम महान् पतितपावन हैं। इस बात का विचार करके आप जैसा चाहें, वैसा करें। महादेव! सदाशिव ! वेदों, पुराणों, नाना प्रकार के शास्त्रीय सिद्धान्तों और विभिन्न महर्षियों ने भी अब तक आपको पूर्णरूप से नहीं जाना है। फिर मैं कैसे जान सकता हूँ ? महेश्वर ! मैं जैसा हूँ, वैसा ही, उसी रूप में सम्पूर्ण भाव से आपका हूँ, आपके आश्रित हूँ, इसलिये आपसे रक्षा पाने के योग्य हूँ। परमेश्वर ! आप मुझपर प्रसन्न होइये।’* ( तावकस्त्वद्गुणप्राणस्त्वच्चितोऽहं सदा मृड । कृपानिधे इति ज्ञात्वा भूतनाथ प्रसीद मे ॥ वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं मया कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शङ्कर ॥ अहं पापी महानद्य पावनश्च भवान्महान्। इति विज्ञाय गौरीश यदिच्छसि तथा कुरु ॥ वेदैः पुराणैः सिद्धान्तैऋषिभिर्विविधैरपि। न ज्ञातोऽसि महादेव कुतोऽहं त्वां सदाशिव ॥ त्वदीयोऽस्मि सर्वभावैर्महेश्वर रक्षणीयस्त्वयाहं प्रसीद परमेश्वर ॥ अज्ञानाद्यदि यथा तथा वै (शि० पु० वि० २० । ५६। ६०। )

 मुने ! इस प्रकार प्रार्थना करके हाथ में लिये हुए अक्षत और पुष्प को भगवान् शिव के ऊपर चढ़ाकर उन शम्भुदेव को भक्तिभाव से विधिपूर्वक साष्टांग प्रणाम करे। तदनन्तर शुद्ध बुद्धि वाला उपासक शास्त्रोक्त विधि से इष्टदेव की परिक्रमा करे। फिर श्रद्धापूर्वक स्तुतियों द्वारा देवेश्वर शिव की स्तुति करे। इसके बाद गला बजाकर (गले से अव्यक्त शब्द का उच्चारण करके) पवित्र एवं विनीत चित्तवाला साधक भगवान्‌ को प्रणाम करे। फिर आदरपूर्वक विज्ञप्ति करे और उसके बाद विसर्जन । मुनिवरो ! इस प्रकार विधि पूर्वक पार्थिव पूजा बतायी गयी। वह भोग और मोक्ष देने वाली तथा भगवान् शिव के प्रति भक्तिभाव को बढ़ाने वाली है।

(अध्याय १९-२०)