विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 21 -22 )
पार्थिव पूजा की महिमा, शिवनैवेद्यभक्षण के विषय में निर्णय तथा बिल्व का माहात्म्य
(तदनन्तर ऋषियों के पूछने पर किस कामना की पूर्ति के लिये कितने पार्थिवलिंगों की पूजा करनी चाहिये, इस विषय का वर्णन करके)
सूतजी बोले– महर्षियो! पार्थिव लिंगों की पूजा कोटि-कोटि यज्ञों का फल देने वाली है। कलियुग में लोगों के लिये शिवलिंग पूजन जैसा श्रेष्ठ दिखायी देता है वैसा दूसरा कोई साधन नहीं है- यह समस्त शास्त्रों का निश्चित सिद्धान्त है। शिवलिंग भोग और मोक्ष देने वाला है। लिंग तीन प्रकार के कहे गये हैं-उत्तम, मध्यम और अधम । जो चार अंगुल ऊँचा और देखने में सुन्दर हो तथा वेदी से युक्त हो, उस शिवलिंग को शास्त्रज्ञ महर्षियों ने ‘उत्तम’ कहा है। उससे आधा ‘मध्यम’ और उससे आधा ‘अधम’ माना गया है। इस तरह तीन प्रकार के शिवलिंग कहे गये हैं, जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा विलोम संकर- कोई भी क्यों न हो, वह अपने अधिकार के अनुसार वैदिक अथवा तान्त्रिक मन्त्र से सदा आदरपूर्वक शिवलिंग की पूजा करे। ब्राह्मणो! महर्षियो ! अधिक कहने से क्या लाभ? शिवलिंग का पूजन करने में स्त्रियों का तथा अन्य सब लोगों का भी अधिकार है। द्विजों के लिये वैदिक पद्धति से ही शिवलिंग की पूजा करना श्रेष्ठ है; परंतु अन्य लोगों के लिये वैदिक मार्ग से पूजा करने की सम्मति नहीं है। वेदज्ञ द्विजों को वैदिक मार्ग से ही पूजन करना चाहिये, अन्य मार्ग से नहीं- यह भगवान् शिव का कथन है। दधीचि और गौतम आदि के शाप से जिनका चित्त दग्ध हो गया है, उन द्विजों की वैदिक कर्म में श्रद्धा नहीं होती। जो मनुष्य वेदों तथा स्मृतियों में कहे हुए सत्कर्मों की अवहेलना करके दूसरे कर्म को करने लगता है, उसका मनोरथ कभी सफल नहीं होता। इस प्रकार विधिपूर्वक भगवान् शंकर का नैवेद्यान्त पूजन करके उनकी त्रिभुवन मयी आठ मूर्तियों का भी वहीं पूजन करे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा तथा यजमान- ये भगवान् शंकर की आठ मूर्तियाँ कही गयी हैं। इन मूर्तियों के साथ साथ शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, ईश्वर, महादेव तथा पशुपति– इन नामों की भी अर्चना करे। तदनन्तर चन्दन, अक्षत और बिल्वपत्र लेकर वहाँ ईशान आदि के क्रम से भगवान् शिव के परिवार का उत्तम भक्तिभाव से पूजन करे। ईशान, नन्दी, चण्ड, महाकाल, भृंगी, वृष, स्कन्द, कपर्दीश्वर, सोम तथा शुक्र-ये दस शिव के परिवार हैं, जो क्रमशः ईशान आदि दसों दिशाओं में पूजनीय हैं। तत्पश्चात् भगवान् शिव के समक्ष वीरभद्र का और पीछे कीर्तिमुख का पूजन करके विधिपूर्वक ग्यारह रुद्रों की पूजा करे। इसके बाद पंचाक्षरमन्त्र का जप करके शतरुद्रिय स्तोत्र का, नाना प्रकार की स्तुतियों का तथा शिवपंचांग का पाठ करे। तत्पश्चात् परिक्रमा और नमस्कार करके शिवलिंग का विसर्जन करे। इस प्रकार मैंने शिवपूजन की सम्पूर्ण विधिका आदरपूर्वक वर्णन किया। रात्रि में देवकार्य को सदा उत्तराभिमुख होकर ही करना चाहिये। इसी प्रकार शिवपूजन भी पवित्रभाव से सदा उत्तराभिमुख होकर ही करना उचित है। जहाँ शिवलिंग स्थापित हो, उससे पूर्वदिशा का आश्रय लेकर नहीं बैठना या खड़ा होना चाहिये; क्योंकि वह दिशा भगवान् शिव के आगे या सामने पड़ती है (इष्टदेव का सामना रोकना ठीक नहीं)। शिवलिंग से उत्तरदिशा में भी न बैठे; क्योंकि उधर भगवान् शंकर का वामांग है, जिसमें शक्तिस्वरूपा देवी उमा विराजमान हैं। पूजक को शिवलिंग से पश्चिम दिशा में भी नहीं बैठना चाहिये; क्योंकि वह आराध्यदेव का पृष्ठभाग है ( पीछे की ओर से पूजा करना उचित नहीं है) । अतः अवशिष्ट दक्षिण दिशा ही ग्राह्य है । उसी का आश्रय लेना चाहिये । तात्पर्य यह कि शिवलिंग से दक्षिण दिशा में उत्तराभिमुख होकर बैठे और पूजा करे। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि वह भस्म का त्रिपुण्ड्र लगाकर, रुद्राक्ष की माला लेकर तथा बिल्वपत्र का संग्रह करके ही भगवान् शंकर की पूजा करे, इनके बिना नहीं । मुनिवरो! शिवपूजन आरम्भ करते समय यदि भस्म न मिले तो मिट्टी से भी ललाट में त्रिपुण्ड्र अवश्य कर लेना चाहिये। ऋषि बोले- मुने! हमने पहले से यह बात सुन रखी है कि भगवान् शिव का नैवेद्य नहीं ग्रहण करना चाहिये। इस विषय में शास्त्र का निर्णय क्या है, यह बताइये। साथ ही बिल्व का माहात्म्य भी प्रकट कीजिये । सूतजी ने कहा- मुनियो ! आप शिव सम्बन्धी व्रत का पालन करने वाले हैं। अतः आप सबको शतशः धन्यवाद है। मैं प्रसन्नता पूर्वक सब कुछ बताता हूँ, आप सावधान होकर सुनें। जो भगवान् शिव का भक्त है, बाहर-भीतर से पवित्र और शुद्ध है, उत्तम व्रत का पालन करने वाला तथा दृढ़ ‘निश्चय से ‘युक्त है, वह शिव-नैवेद्य का अवश्य भक्षण करे। भगवान् शिव का नैवेद्य अग्राह्य है, इस भावना को मन से निकाल दे। शिव के नैवेद्य को देख लेने मात्र से भी सारे पाप दूर भाग जाते हैं, उसको खा लेनेपर तो करोड़ों पुण्य अपने भीतर आ जाते हैं। आये हुए शिव- नैवेद्य को सिर झुकाकर प्रसन्नता के साथ ग्रहण करे और प्रयत्न करके शिव-स्मरणपूर्वक उसका भक्षण करे। आये हुए शिव-नैवेद्य को जो यह कहकर कि मैं इसे दूसरे समय में ग्रहण करूँगा, लेने में विलम्ब कर देता है, वह मनुष्य निश्चय ही पाप से बँध जाता है। जिसने शिव की दीक्षा ली हो, उस शिवभक्त के लिये यह शिव-नैवेद्य अवश्य भक्षणीय है-ऐसा कहा जाता है। शिव की दीक्षा से युक्त शिवभक्त पुरुष के लिये सभी शिवलिंगों का नैवेद्य शुभ एवं ‘महाप्रसाद’ है; अतः वह उसका अवश्य भक्षण करे। परंतु जो अन्य देवताओं की दीक्षा से युक्त हैं और शिवभक्ति में भी मन को लगाये हुए हैं, उनके लिये शिव- नैवेद्य-भक्षण के विषय में क्या निर्णय है- इसे आप लोग प्रेमपूर्वक सुनें । ब्राह्मणो! जहाँ से शालग्रामशिला की उत्पत्ति होती है, वहाँ के उत्पन्न लिंग में, रस लिंग (पारदलिंग)-में, पाषाण, रजत तथा सुवर्ण से निर्मित लिंग में, देवताओं तथा सिद्धों द्वारा प्रतिष्ठित लिंग में, केसर-निर्मित लिंग में, स्फटिकलिंग में, रत्ननिर्मित लिंग में तथा समस्त ज्योतिर्लिंगों में विराजमान भगवान् शिव के नैवेद्य का भक्षण चान्द्रायणव्रत के समान पुण्यजनक है। ब्रह्महत्या करने वाला पुरुष भी यदि पवित्र होकर शिव-निर्माल्य का भक्षण करके उसे (सिर पर) धारण करे तो उसका सारा पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। पर जहाँ चण्डका अधिकार है, वहाँ जो शिव-निर्माल्य हो, उसे साधारण मनुष्यों को नहीं खाना चाहिये । जहाँ चण्डका अधिकार नहीं है, वहाँ के शिव-निर्माल्य का सभी को भक्तिपूर्वक भोजन करना चाहिये। बाणलिंग (नर्मदेश्वर), लोह-निर्मित (स्वर्णादि धातुमय) लिंग, सिद्धलिंग (जिन लिंगों की उपासना से किसी ने सिद्धि प्राप्त की है अथवा जो सिद्धों द्वारा स्थापित हैं वे लिंग, स्वयम्भूलिंग – इन सब लिंगों में तथा शिव की प्रतिमाओं (मूर्तियों) में चण्डका अधिकार नहीं है। जो मनुष्य शिवलिंग को विधिपूर्वक स्नान कराकर उस स्नान के जल का तीन बार आचमन करता है, उसके कायिक, वाचिक और मानसिक-तीनों प्रकार के पाप यहाँ शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। जो शिव नैवेद्य, पत्र, पुष्प, फल और जल अग्राह्य है, वह सब भी शालग्रामशिला के स्पर्श से पवित्र ग्रहण के योग्य हो जाता है। मुनीश्वरो ! शिवलिंग के ऊपर चढ़ा हुआ जो द्रव्य है, वह अग्राह्य है। जो वस्तु लिंगस्पर्श से रहित है अर्थात् जिस वस्तु को अलग रखकर शिवजी को निवेदित किया जाता है-लिंग के ऊपर चढ़ाया नहीं जाता, उसे अत्यन्त पवित्र जानना चाहिये। मुनिवरो ! इस प्रकार नैवेद्य के विषय में शास्त्र का निर्णय बताया गया। अब तुम लोग सावधान हो आदरपूर्वक बिल्व का माहात्म्य सुनो। यह बिल्ववृक्ष महादेव का ही रूप है। देवताओं ने भी इसकी स्तुति की है। फिर जिस किसी तरह से इसकी महिमा कैसे जानी जा सकती है। तीनों लोकों में जितने पुण्य-तीर्थ प्रसिद्ध हैं, वे सम्पूर्ण तीर्थ बिल्व के मूलभाग में निवास करते हैं। जो पुण्यात्मा मनुष्य बिल्व के मूल में लिंगस्वरूप अविनाशी महादेव जी का पूजन करता है, वह निश्चय ही शिवपद को प्राप्त होता है। जो बिल्व की जड़ के पास जल से अपने मस्तक को सींचता है, वह सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान का फल पा लेता है और वही इस भूतल पर पावन माना जाता है । इस बिल्व की जड़ के परम उत्तम थाले को जल से भरा हुआ देखकर महादेव जी पूर्णतया संतुष्ट होते हैं। जो मनुष्य गन्ध, पुष्प आदि से बिल्व के मूलभाग का पूजन करता है, वह शिवलोक को पाता है और इस लोक में भी उसकी सुख-संतति बढ़ती है। जो बिल्व की जड़ के समीप आदरपूर्वक दीपावली जलाकर रखता है, वह तत्त्वज्ञान से सम्पन्न हो भगवान् महेश्वर में मिल जाता है। जो बिल्व की शाखा थामकर हाथ से उसके नये-नये पल्लव उतारता और उनसे उस बिल्व की पूजा करता है, वह सब पापों से मुक्त हो जाता है। जो बिल्व की जड़ के समीप भगवान् शिव में अनुराग रखने वाले एक भक्त को भी भक्तिपूर्वक भोजन कराता है, उसे कोटिगुना पुण्य प्राप्त होता है। जो बिल्व की जड़ के पास शिवभक्त को खीर और घृत से युक्त अन्न देता है, वह कभी दरिद्र नहीं होता । ब्राह्मणो ! इस प्रकार मैंने सांगोपांग शिवलिंग-पूजन का वर्णन किया। यह प्रवृत्तिमार्गी तथा निवृत्तिमार्गी पूजकों के भेद से दो प्रकार का होता है। प्रवृत्तिमार्गी लोगों के लिये पीठ-पूजा इस भूतलपर सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओं को देने वाली होती है। प्रवृत्त पुरुष सुपात्र गुरु आदि के द्वारा ही सारी पूजा सम्पन्न करे और अभिषेक के अन्त में अगहनी के चावल से बना हुआ नैवेद्य निवेदन करे । पूजा के अन्त में शिवलिंग को शुद्ध सम्पुट में विराजमान करके घर के भीतर कहीं अलग रख दे । निवृत्तिमार्गी उपासकों के लिये हाथ पर ही शिवपूजन का विधान है। उन्हें भिक्षा आदि से प्राप्त हुए अपने भोजन को ही नैवेद्यरूप में निवेदित कर देना चाहिये । निवृत्त पुरुषों के लिये सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता है। वे विभूति से पूजन करें और विभूति को ही नैवेद्यरूप से निवेदित भी करें। पूजा करके उस लिंग को सदा अपने मस्तक पर धारण करें।
(अध्याय २१-२२)
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