(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य)

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(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य)

भागवत पुराण हिन्दुओं के अट्ठारह पुराणों में से एक है। इसे श्रीमद् भागवत या केवल भागवतम् भी कहते हैं। इसका मुख्य  विषय भक्ति योग है, जिसमें श्रीकृष्ण को सभी देवों का देव या स्वयं भगवान के रूप में चित्रित किया गया है। इस पुराण में रस भाव की भक्ति का निरूपण भी किया गया है। भगवान की विभिन्न कथाओं का सार है, श्रीमद्भागवत मोक्ष दायिनी है। इसके श्रवण से परीक्षित को मोक्ष की प्राप्ति हुई और कलियुग में आज भी इसका प्रत्यक्ष प्रमाण देखने को मिलते हैं।श्रीमदभागवत कथा सुनने से प्राणी को मुक्ति प्राप्त होती है।

सत्संग व कथा के माध्यम से मनुष्य भगवान की शरण में पहुंचता है, वरना वह इस संसार में आकर मोहमाया के चक्कर में पड़ जाता है, इसीलिए मनुष्य को समय निकालकर श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण करना चाहिए। बच्चों को संस्कारवान बनाकर सत्संग कथा के लिए प्रेरित करें। भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला के दर्शन करने के लिए भगवान शिवजी को गोपी का रूप धारण करना पड़ा। आज हमारे यहां भागवत रूपी रास चलता है, परंतु मनुष्य दर्शन करने को नहीं आते। वास्तव में भगवान की कथा के दर्शन हर किसी को प्राप्त नहीं होते। कलियुग में भागवत साक्षात श्रीहरि का रूप है। पावन हृदय से इसका स्मरण मात्र करने पर करोड़ों पुण्यों का फल प्राप्त हो जाता है। इस कथा को सुनने के लिए देवी देवता भी तरसते हैं और दुर्लभ मानव प्राणी को ही इस कथा का श्रवण लाभ प्राप्त होता है। श्रीमद्भागवत कथा के श्रवण मात्र से ही प्राणी मात्र का कल्याण संभव है।

सप्ताह पारायण के विश्राम स्थल

पहला विश्राम -तृतीय स्कन्ध के बाईसवें अध्याय तक ।

दूसरा विश्राम -पंचम स्कन्ध के आठवें अध्याय तक ।

तीसरा विश्राम- सप्तम स्कन्ध की समाप्ति तक ।

चौथा विश्राम-दशम स्कन्ध के (पूर्वार्ध) तीसरे अध्याय तक।

पाँचवाँ विश्राम-दशम स्कन्ध के (उत्तरार्ध) चौवनवें अध्याय तक ।

छठा विश्राम- एकादश स्कन्ध के तेरहवें अध्याय तक ।

सातवाँ विश्राम – द्वादश स्कन्ध की समाप्ति तक ।

कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्

                    

सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे।

तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ।।

श्रीमद्भागवतमाहात्म्य   

पहला अध्याय    

देवर्षि नारद की भक्ति से भेंट:-    

       सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण को हम नमस्कार करते हैं, जो जगत की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के हेतु तथा आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक, तीनों प्रकार के तापों का नाश करने वाले हैं॥१॥ जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत संस्कार भी नहीं हुआ था तथा लौकिक एवम् वैदिक कर्मो के अनुष्ठान का अवसर भी नहीं आया था, तभी उन्हें अकेले ही संन्यास लेने के लिये घर से जाते देखकर उनके पिता व्यासजी विरह से कातर होकर पुकारने लगे “बेटा! बेटा! तुम कहाँ जा रहे हो?” उस समय वृक्षों ने तन्मय होने के कारण श्रीशुकदेवजी की ओर से उत्तर दिया था। ऐसे सर्वभूत, हृदयस्वरूप श्रीशुकदेवमुनि को मैं नमस्कार करता हूँ ॥२॥ एक बार भगवत्कथामृत का रसास्वादन करने में कुशल मुनिवर शौनकजी ने नैमिषारण्य क्षेत्र में विराजमान महामति सूतजी को नमस्कार करके उनसे पूछा ॥३॥ शौनकजी बोले, सूतजी! आपका ज्ञान अज्ञानान्धकार को नष्ट करने के लिये करोड़ों सूर्यों के समान है । आप हमारे कानों के लिये रसायन अमृतस्वरूप सारगर्भित कथा कहिये ॥४॥ भक्ति, ज्ञान और वैराग्य से प्राप्त होने वाले महान् विवेक की वृद्धि किस प्रकार होती है तथा वैष्णव लोग किस तरह इस माया के मोह से अपना पीछा छुड़ाते हैं ? ॥५॥ इस घोर कलिकाल में जीव प्रायः आसुरी स्वभाव के हो गये हैं, विविध क्लेशों से आक्रान्त इन जीवों को शुद्ध बनाने का सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या है ? ॥६॥ सूतजी ! आप हमें कोई ऐसा शाश्वत साधन बताइये, जो सबसे अधिक कल्याणकारी तथा पवित्र करने वालों में भी पवित्र हो तथा जो भगवान् श्रीकृष्ण की प्राप्ति करा दे ॥७॥ चिन्तामणि केवल लौकिक सुख दे सकती है और कल्पवृक्ष अधिक से अधिक स्वर्गीय सम्पत्ति दे सकता है, परन्तु गुरुदेव प्रसन्न होकर भगवान का योगिदुर्लभ नित्य वैकुण्ठ धाम दे देते हैं ॥८॥

सूतजी ने कहा– शौनकजी! तुम्हारे हृदय में भगवान का प्रेम है, इसलिये मैं विचारकर तुम्हें सम्पूर्ण सिद्धान्तों का निष्कर्ष सुनाता हूँ, जो जन्म मृत्यु के भय का नाश कर देता है ॥९॥ जो भक्ति के प्रवाह को बढ़ाता है और भगवान् श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का प्रधान कारण है, मैं तुम्हें वह साधन बतलाता हूँ, उसे सावधान होकर सुनो ॥१०॥ श्रीशुकदेवजी ने कलियुग में जीवों के कालरूपी सर्प के मुख का ग्रास होने के त्रास का आत्यन्तिक नाश करने के लिये श्रीमद्भागवतशास्त्र का प्रवचन किया है ॥११॥ मन की शुद्धि के लिये इससे बढ़कर कोई साधन नहीं है । जब मनुष्य के जन्म-जन्मान्तर का पुण्य उदय होता है, तभी उसे इस भागवतशास्त्र की प्राप्ति होती है ॥१२॥ जब शुकदेव जी राजा परीक्षित को यह कथा सुनाने के लिये सभा में विराजमान हुए, तब देवतालोग उनके पास अमृत का कलश लेकर आये ॥१३॥ देवता अपना काम बनाने में बड़े कुशल होते हैं, अतः यहाँ भी सब ने शुकदेवमुनि को नमस्कार करके कहा, आप यह अमृत लेकर बदले में हमें कथामृत का दान दीजिये ॥१४॥ इस प्रकार परस्पर विनिमय हो जाने पर राजा परीक्षित् अमृत का पान करें और हम सब श्रीमद्भागवतरूप अमृत का पान करेंगे’ ॥१५॥ इस संसार में कहाँ काँच और कहाँ महामूल्य मणि तथा कहाँ सुधा और कहाँ कथा ? श्रीशुकदेवजी ने यह सोचकर उस समय देवताओं की हँसी उड़ा दी ॥१६॥ उन्हें भक्तिशून्य (कथा का अनधिकारी) जानकर कथामृत का दान नहीं किया । इस प्रकार यह श्रीमद्भागवत की कथा देवताओं को भी दुर्लभ है ॥१७॥ पूर्वकाल में श्रीमद्भागवत के श्रवण से ही राजा परीक्षित की मुक्ति देखकर ब्रह्माजी को भी बड़ा आश्चर्य हुआ था । उन्होंने सत्यलोक में तराजू बाँधकर सब साधनों को तौला ॥१८॥ अन्य सभी साधन तौल में हलके पड़ गये, अपने महत्त्व के कारण भागवत ही सबसे भारी रहा । यह देखकर सभी ऋषियों को बड़ा विस्मय हुआ ॥१९॥ उन्होंने कलियुग में इस भगवद्रूप भागवतशास्त्र को ही पढ़ने-सुनने से तत्काल मोक्ष देने वाला निश्चय किया ॥२०॥ सप्ताह-विधि से श्रवण करने पर यह निश्चय भक्ति प्रदान करता है । पूर्वकाल में इसे दयापरायण सनकादि ने देवर्षि नारद को सुनाया था ॥२१॥

 यद्यपि देवर्षि ने पहले ब्रह्माजी के से मुख से इसे श्रवण कर लिया था, तथापि सप्ताहश्रवण की विधि तो उन्हें सनकादि ने ही बतायी थी॥२२॥

शौनकजी ने पूछा– सांसारिक प्रपंच से मुक्त एवं विचरणशील नारदजी का सनकादि के साथ संयोग कहाँ हुआ और विधि-विधान के श्रवण में उनकी प्रीति कैसे हुई?॥२३॥ सूतजी ने कहा- अब मैं तुम्हें वह भक्तिपूर्ण कथानक सुनाता हूँ, जो श्रीशुकदेवजी मुझे अपना अनन्य शिष्य जानकर  एकान्त में सुनाया था॥२४॥ एक दिन विशालापुरी में वे चारों निर्मल ऋषि सत्संग के लिये आये। वहाँ उन्होंने नारदजी को देखा॥२५॥ सनकादि ने पूछा- ब्रह्मन्! आपका मुख उदास क्यों हो रहा है ? आप चिन्तातुर कैसे। इतनी जल्दी-जल्दी आप कहाँ जा रहे हैं ? और आपका आगमन कहाँ से हो रहा है? ॥२६॥ इस समय तो आप उस पुरुष के समान व्याकुल जान पड़ते हैं जिसका सारा धन लुट गया हो, आप जैसे आसक्ति रहित पुरुषों के लिये यह उचित नहीं है । इसका कारण बताइये॥२७॥ नारदजी ने कहा -मैं सर्वोत्तम लोक समझना पृथ्वी में आया था । यहाँ पुष्कर, प्रयाग, काश गोदावरी (नासिक), हरिद्वार, कुरुक्षेत्र, श्रीरंग और सेतुबन्ध आदि कई तीर्थो में मैं इधर- उधर विचरता रहा; किन्तु मुझे कहीं भी मन को संतोष देने वाली शान्ति नहीं मिली । इस समय अधर्म ने सहायक कलियुग ने सारी पृथ्वी को पीड़ित कर रखा है ।।२८-३०॥ अब यहाँ सत्य, तप, शौच (बाहर-भीतर की पवित्रता), दया, दान आदि कुछ भी नहीं है । बेचारे जीव केवल अपना पेट पालने में लगे हुए हैं; वे असत्यभाषी, आलसी, मन्दबुद्धि, भाग्यहीन, उपद्रव ग्रस्त हो गये हैं । जो साधु-संत कहे जाते हैं, वे पूरे पाखण्डी हो गये हैं; देखने में तो वे विरक्त हैं, किन्तु स्त्री-धन आदि सभी का परिग्रह करते हैं। घरों में स्त्रियों का राज्य है, साले सलाहकार बने हुए हैं, लोभ से लोग कन्या विक्रय करते हैं और स्त्री-पुरुषों कलह मचा रहता है।।३१-३३॥ महात्माओं के आश्रम, तीर्थ और नदियों पर यवनों (विधर्मियों का) अधिकार हो गया है, उन दुष्टों ने बहुत से देवालय भी नष्ट कर दिये हैं ॥ ३४॥ इस समय यहाँ न कोई योगी है न सिद्ध है; न ज्ञानी है और सत्कर्म करने वाला ही है । सारे साधन इस समय कलिरूप दावानल से जलकर भस्म हो गये हैं ॥३५॥ इस कलियुग में सभी देशवासी बाजारों में अन्न बेचने लगे हैं, ब्राह्मण लोग पैसा लेकर वेद पढ़ाते हैं और स्त्रियाँ वेश्यावृत्ति से निर्वाह करने लगी हैं ।।३६॥ इस तरह कलियुग के दोष देखता और पृथ्वीपर विचरता हुआ मैं यमुनाजी के तटपर पहुंचा, जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण की अनेकों लीलाएँ हो चुकी हैं ॥ ३७॥ मुनिवरो ! सुनिये, वहाँ मैंने एक बड़ा आश्चर्य देखा । वहाँ एक युवती स्त्री खिन्न मन से बैठी थी ॥३८॥ उसके पास दो वृद्ध पुरुष अचेत अवस्था में पड़े जोर-जोर से साँस ले रहे थे । वह तरुणी उनकी सेवा करती हुई कभी उन्हें चेत कराने का प्रयत्न करती और कभी उनके आगे रोने लगती थी ॥३९॥ वह अपने शरीर के रक्षक परमात्मा को दसों दिशाओं में देख रही थी । उसके चारों ओर सैकड़ों स्त्रियाँ उसे पंखा झल रही थीं और बार बार समझाती जाती थीं ॥४०॥ दूर से यह सब चरित देखकर मैं कुतूहलवश उसके पास चला गया । मुझे देखकर वह युवती खड़ी हो गयी और बड़ी व्याकुल होकर कहने लगी ॥४१॥ युवती ने कहा-अजी महात्माजी ! क्षणभर ठहर जाइये और मेरी चिन्ता को भी नष्ट कर दीजिये । आपका दर्शन तो संसार के सभी पापों को सर्वथा नष्ट कर देनेवाला है ॥४२॥ आपके वचनों से मेरे दुःख की भी बहुत कुछ शान्ति हो जायगी । मनुष्य का जब बड़ा भाग्य होता है, तभी आपके दर्शन हुआ करते हैं ॥४३॥ नारदजी कहते हैं – तब मैंने उस स्त्री से पूछा -देवि ! तुम कौन हो ? ये दोनों पुरुष तुम्हारे क्या होते हैं ? और तुम्हारे पास ये कमलनयनी देवियाँ कौन हैं ? तुम हमें विस्तार से अपने दुःख का कारण बताओ ॥४४ ॥ युवती ने कहा – मेरा नाम भक्ति है, ये ज्ञान और वैराग्य नामक मेरे पुत्र हैं । समय के फेर से ये ऐसे जर्जर हो गये हैं ॥ ४५ ॥ ये देवियाँ गंगाजी आदि नदियाँ हैं । ये सब मेरी सेवा करने के लिये ही आयी हैं । इस प्रकार साक्षात् देवियों के द्वारा सेवित होने पर भी मुझे सुख – शान्ति नहीं है ॥ ४६ ॥ तपोधन ! अब ध्यान देकर मेरा वृत्तान्त सुनिये । मेरी कथा वैसे तो प्रसिद्ध है, फिर भी उसे सुनकर आप मुझे शान्ति प्रदान करें ॥४७ ॥ मैं द्रविड़ देश में उत्पन्न हुई, कर्णाटक में बढ़ी, कहीं-कहीं महाराष्ट्र में सम्मानित हुई; किन्तु गुजरात में मुझको बुढ़ापे ने आ घेरा ॥४८॥ वहाँ घोर कलियुग के प्रभाव से पाखण्डियों ने मुझे अंग भंग कर दिया । चिरकाल तक यह अवस्था रहने के कारण मैं अपने पुत्रों के साथ दुर्बल और निस्तेज हो गयी ॥४९॥ अब जब से मैं वृन्दावन आयी, तब से पुनः परम सुन्दरी सुरूपवती नवयुवती हो गयी हूँ ॥५०॥ किन्तु सामने पड़े हुए ये दोनों मेरे पुत्र थके – माँदै दुःखी हो रहे हैं । अब मैं यह स्थान छोड़कर अन्यत्र जाना चाहती हूँ ॥५१॥ ये दोनों बूढ़े हो गये हैं – इसी दुःखसे मैं दुःखी हूँ । मैं तरुणी क्यों और ये दोनों मेरे पुत्र बूढ़े क्यों ? ।।५२॥ हम तीनों साथ – साथ रहने वाले हैं । फिर यह विपरीतता क्यों ? होना तो यह चाहिये कि माता बूढ़ी हो और पुत्र तरुण ॥५३॥ इसीसे मैं आश्चर्यचकित चित्त से अपनी इस अवस्था पर शोक करती रहती हूँ । आप परम बुद्धिमान् एवं योगनिधि हैं; इसका क्या कारण हो सकता है, बताइये ? ॥५४॥ नारदजी ने कहा – साध्वि ! मैं अपने हृदय में ज्ञानदृष्टि से तुम्हारे सम्पूर्ण दु:ख का कारण देखता हूँ, तुम्हें विषाद नहीं करना चाहिये । श्रीहरि तुम्हारा कल्याण करेंगे ॥५५ ॥ सूतजी कहते हैं – मुनिवर नारदजी ने एक क्षण में ही उसका कारण जानकर कहा ॥५६॥ नारदजी ने कहा – देवि ! सावधान होकर सुनो । यह दारुण कलियुग है । इसीसे इस समय सदाचार, योगमार्ग और तप आदि सभी लुप्त हो गये हैं ॥५७॥ लोग शठता और दुष्कर्म में लगकर अघासुर बन रहे हैं । संसार में जहाँ देखो, वहीं सत्पुरुष दुःख से म्लान हैं और दुष्ट सुखी हो रहे हैं । इस समय जिस बुद्धिमान् पुरुष का धैर्य बना रहे, वही बड़ा ज्ञानी या पण्डित है ॥५८॥ पृथ्वी क्रमशः प्रतिवर्ष शेषजी के लिये भाररूप होती जा रही है । अब यह छूने योग्य तो क्या, देखने योग्य भी नहीं रह गयी है और न इसमें कहीं मंगल ही दिखायी देता है ॥५९॥ अब किसी को पुत्रों के साथ तुम्हारा दर्शन भी नहीं होता । विषयानुराग के कारण अंधे बने हुए जीवों से उपेक्षित होकर तुम जर्जर हो रही थी ॥६०॥ वृन्दावन के संयोग से तुम फिर नवीन तरुणी हो गयी हो । अतः यह वृन्दावनधाम धन्य है, जहाँ भक्ति सर्वत्र नृत्य कर रही है ॥६१॥ परंतु तुम्हारे इन दोनों पुत्रों का यहाँ कोई ग्राहक नहीं है, इसलिये इनका बुढ़ापा नहीं छूट रहा है । यहाँ इनको कुछ आत्मसुख (भगवत्स्पर्शजनित आनन्द) की प्राप्ति होने के कारण ये सोते – से जान पड़ते हैं ॥६२॥ भक्ति ने कहा – राजा परीक्षित् ने इस पापी कलियुग को क्यों रहने दिया ? इसके आते ही सब वस्तुओं का सार न जाने कहाँ चला गया ? ॥६३॥ करुणामय श्रीहरि से भी यह अधर्म कैसे देखा जाता है ? मुने ! मेरा यह संदेह दूर कीजिये, आपके वचनों से मुझे बड़ी शान्ति मिली है ॥६४॥ नारदजी ने कहा – बाले ! यदि तुमने पूछा है, तो प्रेम से सुनो, कल्याणी ! मैं तुम्हें सब बताऊँगा और तुम्हारा दुःख दूर हो जायगा ॥६५॥ जिस दिन भगवान् श्रीकृष्ण इस भूलोक को छोड़कर अपने परमधाम को पधारे, उसी दिन से यहाँ सम्पूर्ण साधनों में बाधा डालने वाला कलियुग आ गया ॥६६॥ दिग्विजय के समय राजा परीक्षित की दृष्टि पड़ने पर कलियुग दीन के समान उनकी शरण में आया । भ्रमर के समान सारग्राही राजा ने यह निश्चय किया कि इसका वध मुझे नहीं करना चाहिये ।।६७॥ क्योंकि जो फल तपस्या, योग एवं समाधि से भी नहीं मिलता, कलियुग में वही फल श्रीहरिकीर्तन से ही भलीभाँति मिल जाता है ॥६८॥ इस प्रकार सारहीन होनेपर भी उसे इस एक ही दृष्टि से सारयुक्त देखकर उन्होंने कलियुग में उत्पन्न होने वाले जीवों के सुख के लिये ही इसे रहने दिया था ॥ ६९॥ इस समय लोगों के कुकर्म में प्रवृत्त होने के कारण सभी वस्तुओं का सार निकल गया है और पृथ्वी के सारे पदार्थ बीजहीन भूसी के समान हो गये हैं ॥७०॥ ब्राह्मण केवल अन्न – धनादि के लोभवश घर -घर एवं जन-जन को भागवत की कथा सुनाने लगे हैं, इसलिये कथा का सार चला गया ॥७१॥ तीर्थों में नाना प्रकार के अत्यन्त घोर कर्म करने वाले, नास्तिक और नारकी पुरुष भी रहने लगे हैं; इसलिये तीर्थों का भी प्रभाव जाता रहा ॥७२॥ जिनका चित्त निरन्तर काम, क्रोध, महान् लोभ और तृष्णा से तपता रहता है, वे भी तपस्या का ढोंग करने लगे हैं, इसलिये तप का भी सार निकल गया ॥७३॥ मन पर काबू न होने के कारण तथा लोभ, दम्भ और पाखण्ड का आश्रय लेने के कारण एवं शास्त्र का अभ्यास न करने से ध्यानयोग का फल मिट गया ॥७४॥ पण्डितों की यह दशा है कि वे अपनी स्त्रियों के साथ भैंसों की तरह रमण करते हैं; उनमें संतान पैदा करने की ही कुशलता पायी जाती है, मुक्तिसाधन में वे सर्वथा अकुशल हैं ॥७५॥ सम्प्रदायानुसार प्राप्त हुई वैष्णवता भी कहीं देखने में नहीं आती । इस  प्रकार जगह -जगह सभी वस्तुओं का सार लुप्त हो गया है ॥७६॥ यह तो इस युग का स्वभाव ही है इसमें किसी का दोष नहीं है । इसीसे पुण्डरीकाक्ष भगवान् बहुत समीप रहते हुए भी यह सब सह रहे हैं ॥७७॥ सूतजी कहते हैं -शौनकजी ! इस प्रकार देवर्षि नारद के वचन सुनकर भक्ति को बड़ा आश्चर्य हुआ; फिर उसने जो कुछ कहा, उसे सुनिये ॥७८॥ भक्ति ने कहा -देवर्षे ! आप धन्य हैं ! मेरा बड़ा सौभाग्य था, जो आपका समागम हुआ । संसार में साधुओं का दर्शन ही समस्त सिद्धियों का परम कारण है ॥७९॥ आपका केवल एक बार का उपदेश धारण करके कयाधूकुमार प्रह्लादने माया पर विजय प्राप्त कर ली थी । ध्रुव ने भी आपकी कृपा से ही ध्रुवपद प्राप्त किया था । आप सर्वमंगलमय और साक्षात् श्रीब्रह्माजी के पुत्र हैं,  मैं आपको नमस्कार करती हूँ ॥८० ॥