(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य) दूसरा अध्याय
(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य)
भक्ति का दुःख दूर करने के लिये नारद जी का उद्योग
नारदजी ने कहा – बाले ! तुम व्यर्थ ही अपने को क्यों खेद में डाल रही हो ? अरे ! तुम इतनी चिन्तातुर क्यों हो ? भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करो, उनकी कृपा से तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा ॥१॥ जिन्होंने कौरवों के अत्याचार से द्रौपदी की रक्षा की थी और गोप सुन्दरियों को सनाथ किया था, वे श्रीकृष्ण कहीं चले थोड़े ही गये हैं ॥२॥ फिर तुम तो भक्ति हो और सदा उन्हें प्राणों से भी प्यारी हो; तुम्हारे बुलाने पर तो भगवान नीचों के घरों में भी चले जाते हैं। ॥३॥ सत्य, त्रेता और द्वापर – इन तीन युगों में ज्ञान और वैराग्य मुक्ति के साधन थे; किन्तु कलियुग में तो केवल भक्ति ही ब्रह्मसायुज्य (मोक्ष) की प्राप्ति कराने वाली है ॥४ यह सोचकर ही परमानन्द चिन्मूर्ति ज्ञानस्वरूप श्रीहरि ने अपने सत्यस्वरूप से तुम्हें रचा है; तुम साक्षात श्रीकृष्णचन्द्र की प्रिया और परम सुन्दरी हो ॥५॥ एक बार जब तुमने हाथ जोड़कर पूछा था कि ‘मैं क्या करूँ ?’ तब भगवान ने तुम्हें यही आज्ञा दी थी कि ‘मेरे भक्तों का पोषण करो।’ ॥६॥ तुमने भगवान की वह आज्ञा स्वीकार कर ली; इससे तुम पर श्रीहरि बहुत प्रसन्न हुए और तुम्हारी सेवा करने के लिये मुक्ति को तुम्हें दासी के रूप में दे दिया और इन ज्ञान – वैराग्य को पुत्रों के रूप में ॥७॥ तुम अपने साक्षात स्वरूप से वैकुण्ठ धाम में ही भक्तों का पोषण करती हो, भूलोक में तो तुमने उनकी पुष्टि के लिये केवल छाया रूप धारण कर रखा है ॥८॥ तब तुम मुक्ति, ज्ञान और वैराग्य को साथ लिये पृथ्वीतल पर आयी और सत्य युग से द्वापर पर्यन्त बड़े आनन्द से रही ॥९॥ कलियुग में तुम्हारी दासी मुक्ति पाखण्डरूप रोग से पीड़ित होकर क्षीण होने लगी थी, इसलिये वह तो तुरंत ही तुम्हारी आज्ञा से वैकुण्ठ लोक को चली गयी ॥१०॥ इस लोक में भी तुम्हारे स्मरण करने से ही वह आती है और फिर चली जाती है । किंतु इन ज्ञान वैराग्य को तुमने पुत्र मानकर अपने पास ही रख छोड़ा है ॥११॥ फिर भी कलियुग में इनकी उपेक्षा होने के कारण तुम्हारे ये पुत्र उत्साह हीन और वृद्ध हो गये हैं, फिर भी तुम चिन्ता न करो, मैं इनके नव जीवन का उपाय सोचता हूँ ॥१२ सुमुखि ! कलि के समान कोई भी युग नहीं है, इस युग में मैं तुम्हें घर–घर में प्रत्येक पुरुष के हृदय में स्थापित कर दूंगा ॥१३॥ देखो, अन्य सब धर्मो को दबाकर और भक्ति विषयक महोत्सवों को आगे रखकर यदि मैंने लोक में तुम्हारा प्रचार न किया तो मैं श्रीहरि का दास नहीं ॥१४॥ इस कलियुग में जो जीव तुमसे युक्त होंगे, वे पापी होने पर भी बेखटके भगवान श्रीकृष्ण के अभय धाम को प्राप्त होंगे ।१५।। जिनके हृदय में निरन्तर प्रेम रूपिणी भक्ति निवास करती है, वे शुद्धान्तः करण पुरुष स्वप्न में भी यमराज को नहीं देखते ॥१६॥ जिन के हृदय में भक्ति महारानी का निवास है, उन्हें प्रेत, पिशाच, राक्षस या दैत्य आदि स्पर्श करने में भी समर्थ नहीं हो सकते ॥१७॥ भगवान तप, वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म आदि किसी भी साधन से वश में नहीं किये जा सकते; वे केवल भक्ति से ही वशीभूत होते हैं । इसमें श्रीगोपीजन प्रमाण हैं ॥१८॥ मनुष्यों का सहस्रों जन्म के पुण्य प्रताप से भक्ति में अनुराग होता है । कलियुग में केवल भक्ति, केवल भक्ति ही सार है । भक्ति से तो साक्षात श्रीकृष्णचन्द्र सामने उपस्थित हो जाते हैं ॥१९॥ जो लोग भक्ति से द्रोह करते हैं, वे तीनों लोकों में दु:ख-ही दु:ख पाते हैं । पूर्वकाल में भक्त का तिरस्कार करने वाले दुर्वासा ऋषि को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा था ॥२०॥ बस, बसव्रत, तीर्थ, योग, यज्ञ और ज्ञान–चर्चा आदि बहुत–से साधनों की कोई आवश्यकता नहीं है; एक मात्र भक्ति ही मुक्ति देने वाली है ॥२१॥
सूतजी कहते हैं– इस प्रकार नारदजी के निर्णय किये हुए अपने माहात्म्य को सुनकर भक्ति के सारे अंगपुष्ट हो गये और वे उनसे कहने लगीं ॥२२॥ भक्ति ने कहा- नारदजी ! आप धन्य हैं । आप की मुझ में निश्चल प्रीति है ।मैं सदा आपके हृदय में रहूँगी, कभी आपको छोड़कर नहीं जाऊँगी ॥२३॥ साधो ! आप बड़े कृपालु हैं । आफ्ने क्षण भर में ही मेरा सारा दुःख दूर कर दिया । किन्तु अभी मेरे पुत्रों में चेतना नहीं आयी है; आप इन्हें शीघ्र ही सचेत कर दीजिये, जगा दीजिये ॥२४॥ सूतजी कहते हैं- भक्ति के ये वचन सुनकर नारदजी को बड़ी करुणा आयी और वे उन्हें हाथ से हिलाडुलाकर जगाने लगे ।॥२५॥ फिर उनके कान के पास मुँह लगा कर जोर से कहा, ‘ओ ज्ञान ! जल्दी जग पड़ो; ओ वैराग्य ! जल्दी जग पड़ो।’ ॥२६॥ फिर उन्होंने वेद ध्वनि, वेदान्त घोष और बार–बार गीता पाठ कर के उन्हें जगाया; इससे वे जैसे–तैसे बहुत जोर लगाकर उठे ॥२७॥ किन्तु आलस्य के कारण वे दोनों जंभाई लेते रहे, नेत्र उघाड़ कर देख भी नहीं सके । उनके बाल बगुलों की तरह सफेद हो गये थे, उनके अंग प्रायः सूखे काठ के समान निस्तेज और कठोर हो गये थे ॥२८॥ इस प्रकार भूखप्यास के मारे अत्यन्त दुर्बल होने के कारण उन्हें फिर सोते देख नारदजी को बड़ी चिन्ता हुई और वे सोचने लगे, ‘अब मुझे क्या करना चाहिये ? ॥२९॥ इनकी यह नींद और इससे भी बढ़कर इनकी वृद्धावस्था कैसे दूर हो ?’ शौनकजी ! इस प्रकार चिन्ता करते – करते वे भगवान का स्मरण करने लगे ॥३०॥ उसी समय यह आकाशवाणी हुई कि ‘मुने ! खेद मत करो, तुम्हारा यह उद्योगनि: संदेह सफल होगा॥३१।।देवर्षे ! इसके लिये तुम एक सत्कर्म करो, वह कर्म तुम्हें संतशिरोमणि महानुभाव बतायेंगे ॥३२॥ उस सत्कर्म का अनुष्ठान करते ही क्षण भर में उनकी नींद और वृद्धावस्था चली जायँगी तथा सर्वत्र भक्ति का प्रसार होगा’ ॥३३॥ यह आकाशवाणी वहाँ सभी को साफ–साफ सुनाई दी ।इस से नारदजी को बड़ा विस्मय हुआ और वे कहने लगे, ‘मुझे तो इसका कुछ आशय समझ में नहीं आया’ ।।३४॥ नारदजी बोले- इस आकाशवाणी ने भी गुप्त रूप में ही बात कही है । यह नहीं बताया कि वह कौन– सा साधन किया जाय, जिससे इन का कार्य सिद्ध हो ॥३५॥ वे संत न जाने कहाँ मिलेंगे और किस प्रकार उस साधन को बतायेंगे ? अब आकाशवाणी ने जो कुछ कहा है, उस के अनुसार मुझे क्या करना चाहिये ? ॥३६॥
सूतजी कहते हैं– शौनकजी ! तब ज्ञान वैराग्य दोनों को वहीं छोड़कर नारदमुनि वहाँ से चल पड़े और प्रत्येक तीर्थ में जा–जाकर मार्ग में मिलने वाले मुनीश्वरों से वह साधन पूछने लगे ॥३७॥ उनकी उस बात को सुनते तो सब थे, किंतु उसके विषय में कोई कुछ भी निश्चित उत्तर न देता । किन्हीं ने उसे असाध्य बताया; कोई बोले- ‘इसका ठीक–ठीक पता लगना ही कठिन है ।’ कोई सुनकर चुप रह गये और कोई–कोई तो अपनी अवज्ञा होने के भय से बात को टाल टूल कर खिसक गये ॥३८॥ त्रिलोकी में महान् आश्चर्य जनक हाहाकार मच गया ।लोग आपस में काना फूसी करने लगे- ‘भाई ! जब वेदध्वनि, वेदान्तघोष और बार–बार गीता पाठ सुनाने पर भी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य– ये तीनों नहीं जगाये जा सके, तब और कोई उपाय नहीं है।।३९ -४०॥ स्वयं योगिराज नारद को भी जिस का ज्ञान नहीं है, उसे दूसरे संसारी लोग कैसे बता सकते हैं ?’ ॥४१॥ इस प्रकार जिन–जिन ऋषियों से इसके विषय में पूछा गया, उन्होंने निर्णय करके यही कहा कि यह बात दुःसाध्य ही है ॥४२॥ तब नारदजी बहुत चिन्तातुर हुए और बदरी वन में आये । ज्ञान–वैराग्य को जगाने के लिये वहाँ उन्होंने यही निश्चय किया कि ‘मैं तप करूँगा’ ॥४३॥ इसी समय उन्हें अपने सामने करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी सनकादिमुनीश्वर दिखायी दिये । उन्हें देखकर वे मुनिश्रेष्ठ कहने लगे ॥४४॥ नारदजी ने कहा- महात्माओ ! इस समय बड़े भाग्य से मेरा आप लोगों के साथ समागम हुआ है, आप मुझ पर कृपा करके शीघ्र ही वह साधन बताइये ॥४५॥ आप सभी लोग बड़े योगी, बुद्धिमान् और विद्वान हैं । आप देखने में पाँच – पाँच वर्ष के बालक से जान पड़ते हैं, किंतु हैं पूर्वजों के भी पूर्वज ॥४६॥ आप लोग सदा वैकुण्ठधाम में निवास करते हैं, निरन्तर हरि कीर्तन में तत्पर रहते हैं, भगवल्लीलामृत का रसास्वादन कर सदा उसी में उन्मत्त रहते हैं और एक मात्र भगवत्कथा ही आप के जीवन का आधार है ॥४७॥ हरिःशरणम् ‘(भगवान ही हमारे रक्षक हैं) यह वाक्य (मन्त्र) सर्वदा आप के मुख में रहता है; इसी से काल प्रेरित वृद्धावस्था भी आप को बाधा नहीं पहुँचाती ।।४८॥ पूर्वकाल में आप के भ्रूभंग मात्र से भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय तुरंत पृथ्वी पर गिर गये थे और फिर आपकी ही कृपा से वे पुनः वैकुण्ठ लोक पहुँच गये ॥४९॥ धन्य है, इस समय आपका दर्शन बड़े सौभाग्य से ही हुआ है । मैं बहुत दीन हूँ और आप लोग स्वभाव से ही दयालु हैं; इसलिये मुझपर आपको अवश्य कृपा करनी चाहिये ॥५०॥ बताइये– आकाशवाणी ने जिसके विषय में कहा है, वह कौन– सा साधन है और मुझे किस प्रकार उसका अनुष्ठान करना चाहिये । आप इसका विस्तार से वर्णन कीजिये ॥५१॥ भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को किस प्रकार सुख मिल सकता है ? और किस तरह इन की प्रेम पूर्वक सब वर्णों में प्रतिष्ठा की जा सकती है ? ‘॥५२॥ सनकादि ने कहा- देवर्षे ! आप चिन्ता न करें, मन में प्रसन्न हों; उनके उद्धार का एक सरल उपाय पहले से ही विद्यमान है ॥५३॥ नारदजी ! आप धन्य हैं ।आप विरक्तों के शिरोमणि हैं । श्रीकृष्ण दासों के शाश्वत पथ– प्रदर्शक एवं भक्ति योग के भास्कर हैं ।५४॥ आप भक्ति के लिये जो उद्योग कर रहे हैं , यह आपके लिये कोई आश्चर्य की बात नहीं समझनी चाहिये । भगवान के भक्त के लिये तो भक्ति की सम्यक्स्थापना करना सदा उचित ही है ॥५५॥ ऋषियों ने संसार में अनेकों मार्ग प्रकट किये हैं; किंतु वे सभी कष्ट साध्य हैं और परिणाम में प्राय: स्वर्ग की ही प्राप्ति कराने वाले हैं ।।५६॥ अभी तक भगवान की प्राप्ति कराने वाला मार्ग तो गुप्त ही रहा है । उसका उपदेश करने वाला पुरुष प्रायः भाग्य से ही मिलता है ॥५७॥ आपको आकाशवाणी ने जिस सत्कर्म का संकेत किया है, उसे हम बतलाते हैं; आप प्रसन्न और समाहितचित्त होकर सुनिये ॥५८॥ नारदजी ! द्रव्य यज्ञ, तपोयज्ञ, योगयज्ञ और स्वाध्याय रूप ज्ञानयज्ञ– ये सब तो स्वर्गादि की प्राप्ति कराने वाले कर्म की ही ओर संकेत करते हैं ॥५९॥ पण्डितों ने ज्ञान यज्ञ को ही सत्कर्म (मुक्तिदायक कर्म) का सूचक माना है । वह श्रीमद्भागवत का पारायण है, जिस का गान शुकादि महानुभावों ने किया है ॥६०॥ उसके शब्द सुनने से ही भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को बड़ा बल मिलेगा । इस से ज्ञान– वैराग्य का कष्ट मिट जायगा और भक्ति को आनन्द मिलेगा ॥६१॥ सिंह की गर्जना सुनकर जैसे भेड़िये भाग जाते हैं, उसी प्रकार श्रीमद्भागवत की ध्वनि से कलियुग के सारे दोष नष्ट हो जायेंगे ॥६२॥ तब प्रेम रस प्रवाहित करने वाली भक्ति, ज्ञान और वैराग्य को साथ लेकर प्रत्येक घर और व्यक्ति के हृदय में क्रीडा करेगी ॥६३॥
नारदजी ने कहा– मैंने वेद–वेदान्त की ध्वनि और गीता पाठ करके उन्हें बहुत जगाया, किंतु फिर भी भक्ति, ज्ञान और वैराग्य– ये तीनों नहीं जगे ॥६४॥ ऐसी स्थिति में श्रीमद्भागवत सुनाने से वे कैसे जगेंगे ? क्योंकि उस कथा के प्रत्येक श्लोक और प्रत्येक पद में भी वेदों का ही तो सारांश है ॥६५॥ आप लोग शरणागत वत्सल हैं तथा आपका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं होता इसलिये मेरा यह संदेह दूर कर दीजिये, कार्य में विलम्ब न कीजिये ॥६६॥
सनकादि ने कहा– श्रीमद्भागवत कथा और उपनिषदों के सार से बनी है । इसलिये उनसे अलग उनकी फलरूपा होने के कारण वह बड़ी उत्तम जान पड़ती है ।।६७॥ जिसप्रकार से वृक्ष की जड़ से लेकर शाखाग्रपर्यन्त रहता है, किन इस स्थिति में उसका आस्वादन नहीं किया सकता; वही जब अलग होकर फल के रूप में जाता है, तब संसार में सभी को प्रिय लगने लगता ।।६८॥ दूध में घी रहता ही है, किन्तु उस समय उसका अलग स्वाद नहीं मिलता; वही जब उससे अलग हो जाता है, तब देवताओं के लिये भी स्वाद वर्धक हो जाता है ।।६९॥ खाँड ईख के ओर छोर और बीच में भी व्याप्त रहती है तथापि अलग होने पर उसकी कुछ और ही मिठास होती । ऐसी ही यह भागवत की कथा है ॥७०॥ यह भागवत पुराण वेदों के समान है । श्रीव्यास देव ने इसे भक्ति, ज्ञान और वैराग्य की स्थापना के लिये प्रकाशित किया है ॥७१॥ पूर्व काल में जिस समय वेद वेदान्त के पारगामी और गीता की भी रचना करने वाले भगवान व्यासदेव खिन्न होकर अज्ञान समुद्र में गोते खा रहे थे, उस समय आपने ही उन्हें चार श्लोकों में इसका उपदेश किया था । उसे सुनते ही उनकी सारी चिन्ता दूर हो गयी थी ॥७२-७३ फिर इसमें आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है, जो आप हमसे प्रश्न कर रहे हैं ? आपको उन्हें शोक और दुःख का विनाश करने वाला श्रीमद्भागवतपुराण ही सुनाना चाहिये ॥७४॥
नारदजी ने कहा – महानुभावो ! आपका दर्शन जीव के सम्पूर्ण पापों को तत्काल नष्ट कर देता है और जो संसार– दुःखरूप दावानल से तपे हुए हैं, उन पर शीघ्र ही शान्ति की वर्षा करता है । आप निरन्तर शेषजी के सहस्र मुखों से गाये हुए भगवत्कथामृत का ही पान करते रहते हैं । मैं प्रेम लक्षणा भक्ति का प्रकाश करने के उद्देश्य से आप की शरण लेता हूँ ॥७५॥ जब अनेकों जन्मों के संचित पुण्यपुंज का उदय होने से मनुष्य को सत्संग मिलता है, तब वह उसके अज्ञान जनित मोह और मद रूप अन्धकार का नाश करके विवेक उदय होता है ॥७६॥
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