पद्मपुराण ‘ पेज -9’

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पद्मपुराण ‘ पेज -9’

पितरों तथा श्राद्ध के विभिन्न अङ्गों का वर्णन

भीष्मजीने कहा– भगवन् ! अब मैं पितरों के उत्तम वंश का वर्णन सुनना चाहता हूँ । पुलस्त्यजी बोले- राजन् ! बड़े हर्ष की बात है मैं तुम्हें आरम्भ से ही पितरों के बंश का वर्णन सुनाता हूँ सुनो । स्वर्ग में पितरों के सात गण हैं । उनमें तीन तो मूर्ति रहित हैं और चार मूर्तिमान् । ये सब के सब अमित तेजस्वी हैं । इनमें जो मूर्ति रहित पितृगण हैं, वे वैराज प्रजापति की सन्तान हैं; अतः वैराज नाम से प्रसिद्ध हैं । देवगण उनका यजन करते हैं । अब पितरों की लोक- सृष्टिका वर्णन करता हूँ, श्रवण करो । सोमपथ नाम से प्रसिद्ध कुछ लोक हैं, जहाँ कश्यप के पुत्र पितृगण निवास करते हैं । देवता लोग सदा उनका सम्मान किया करते हैं । अग्निष्वात्त नाम से प्रसिद्ध यज्वा पितृगण उन्हीं लोकों में निवास करते हैं । स्वर्ग में विभ्राज नाम के जो दूसरे तेजस्वी लोक हैं, उनमें बर्हिषद् संज्ञक पितृगण निवास करते हैं । वहाँ मोरों से जुते हुए सम्पन्न हजारों विमान हैं तथा संकल्पमय वृक्ष भी हैं, जो संकल्प के अनुसार फल प्रदान करने वाले हैं । जो लोग इस लोक में अपने पितरों के लिये श्राद्ध करते हैं, वे उन विभ्राज नाम के लोकों में जाकर समृद्धिशाली भवनों में आनन्द भोगते हैं तथा वहाँ मेरे सैकड़ों पुत्र विद्यमान रहते हैं, जो तपस्या और योगबल से महात्मा महान् सौभाग्यशाली और भक्तों को अभयदान देने वाले हैं । मार्तण्ड मण्डल नामक लोक में मरीचिगर्भ नाम के पितृगण निवास करते हैं । वे अङ्गिरा मुनि के पुत्र हैं और लोक में हविष्मान् नाम से विख्यात हैं; वे राजाओं के पितर हैं और स्वर्ग तथा मोक्षरूप फल प्रदान करने वाले हैं । तीर्थों में श्राद्ध करने वाले श्रेष्ठ क्षत्रिय उन्हींके लोक में जाते हैं कामदुघ नाम से प्रसिद्ध जो लोक हैं, वे इच्छानुसार भोग की प्राप्ति कराने वाले हैं । उनमें सुस्वध नाम के पितर निवास करते हैं । लोक में वे आज्यप नाम से विख्यात हैं और प्रजापति कर्दम के पुत्र हैं । पुलह के बड़े भाई से उत्पन्न वैश्यगण उन पितरों की पूजा करते हैं । श्राद्ध करने वाले पुरुष उस लोक में पहुँचने पर एक ही साथ हजारों जन्मों के परिचित माता, भाई, पिता, सास, मित्र, सम्बन्धी तथा बन्धुओं का दर्शन करते हैं । इस प्रकार पितरों के तीन गण बताये गये । अब चौथे गण का वर्णन करता हूँ । ब्रह्मलोक के ऊपर सुमानस नाम के लोक स्थित हैं, जहाँ सोमप नाम से प्रसिद्ध सनातन पितरों का निवास है । वे सब के सब धर्ममय स्वरूप धारण करने वाले तथा ब्रह्मानी से भी श्रेष्ठ हैं । स्वधा से उनकी उत्पत्ति हुई है । वे योगी हैं; अतः ब्रह्मभाव को प्राप्त होकर सृष्टि आदि करके सब इस समय मानसरोवर में स्थित हैं । इन पितरों की कन्या नर्मदा नाम की नदी है, जो अपने जल से समस्त प्राणियों को पवित्र करती हुई पश्चिम समुद्र में जा मिलती है । उन सोमप नाम वाले पितरों से ही सम्पूर्ण प्रजा सृष्टि का विस्तार हुआ है, ऐसा जानकर मनुष्य सदा धर्मभाव से उनका श्राद्ध करते हैं । उन्हींके प्रसाद से योग का विस्तार होता है । आदि सृष्टि के समय इस प्रकार पितरों का श्राद्ध प्रचलित हुआ । श्राद्ध में उन सबके लिये चाँदी के पात्र अथवा चाँदी से युक्त पात्र का उपयोग होना चाहिये । ‘स्वधा’ शब्द के उच्चारण पूर्वक पितरों के उद्देश्य से किया हुआ श्राद्ध- दान पितरों को सर्वदा सन्तुष्ट करता है । विद्वान् पुरुषों को चाहिये कि वे अग्निहोत्री एवं सोमपायी ब्राह्मणों के द्वारा अग्नि में हवन कराकर पितरों को तृप्त करै । अग्नि के अभाव में ब्राह्मण के हाथ में अथवा जल में या शिवजी के स्थान के समीप पितरों के निमित्त दान करे; ये ही पितरों के लिये निर्मल स्थान हैं। पितृकार्य में दक्षिण दिशा उत्तम मानी गयी है । यज्ञोपवीत को अपसव्य अर्थात् दाहिने कंधे पर करके किया हुआ तर्पण, तिलदान तथा ‘स्वधा’ के उच्चारण पूर्वक किया हुआ श्राद्ध- ये सदा पितरों को तृप्त करते हैं । कुटा, उड़द, ‘साठी धान का चावल, गाय का दूध, मधु, गाय का घी,’ सावाँ, अगहनी का चावल, जौ, तीना का चावल, मूंग, गन्ना फूल- ये सब वस्तुएँ पितरों को सदा प्रिय है ।।

 अब ऐसे पदार्थ बताता हूँ, जो श्राद्ध में सर्वदा वर्जित राजमाष, कुलथी, कमल, बिल्व, मदार, धतूरा, पारिभद्राट, रूपक, भेड़- बकरी का दूध, कोदो, दारवरट, कैथ, महुआ और अलसी- ये सब निषिद्ध हैं । अपनी उन्नति चाहने वाले पुरुष को श्राद्ध में इन वस्तुओं का उपयोग कभी नहीं करना चाहिये । जो भक्ति भाव से पितरों को प्रसन्न करता है, उसे पितर भी सन्तुष्ट करते हैं । वे पुष्टि, आरोग्य, सन्तान एवं स्वर्ग प्रदान करते हैं । पितृकार्य देवकार्य से भी बढ़कर है: अतः देवताओं को तृप्त करने से पहले पितरों को ही सन्तुष्ट करना श्रेष्ठ माना गया है । कारण, पितृगण शीघ्र ही प्रसन्न हो जाते हैं, सदा प्रिय वचन बोलते हैं, भक्तों पर प्रेम रखते हैं और उन्हें सुख देते हैं । पितर पर्व के देवता हैं अर्थात् प्रत्येक पर्व पर पितरों का पूजन करना उचित है । हविष्मान्संज्ञक पितरों के अधिपति सूर्यदेव ही श्राद्ध के देवता माने गये हैं । भीष्मजी ने कहा- ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ पुलस्त्य जी ! आपके मुँह से यह सारा विषय सुनकर मेरी इसमें बड़ी भक्ति हो गयी है; अतः अब मुझे श्राद्ध का समय, उसकी विधि तथा श्राद्ध का स्वरूप बतलाइये । श्राद्ध में कैसे ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिये ? तथा किन को छोड़ना चाहिये ? श्राद्ध में दिया हुआ अन्न पितरों के पास कैसे पहुँचता है ? किस विधि से श्राद्ध करना उचित है ! और वह किस तरह उन पितरों को तृप्त करता है ? पुलस्त्य जी बोले- राजन् ! अन्न और जल से अथवा दूध एवं फल- मूल आदि से पितरों को सन्तुष्ट करते हुए प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिये । श्राद्ध तीन प्रकार का होता है– नित्य, नैमित्तिक और काम्य । पहले नित्य श्राद्ध का वर्णन करता हूँ । उसमें अर्घ्य और आवाहन की क्रिया नहीं होती । उसे अदैव समझना चाहिये- उसमें विश्वदेवों को भाग नहीं दिया जाता । पर्व के दिन जो श्राद्ध किया जाता है, उसे पार्वण कहते हैं । पार्वण- श्राद्ध में जो ब्राह्मण निमन्त्रित करने योग्य हैं, उनका वर्णन करता हूँ; श्रवण करो ! जो पञ्चाग्नि का सेवन करने वाला, स्नातक, त्रिसोर्पण, वेद के व्याकरण आदि छहों अङ्गों का ज्ञाता, श्रोत्रिय (वेदज्ञ), श्रोत्रिय का पुत्र, वेद के विधिवाक्यों का विशेषज्ञ, सर्वज्ञ (सब विषयो का ज्ञाता), वेद का स्वाध्यायी, मन्त्र जपने वाला, शास्त्रों में भी ज्ञानवान्, त्रिणाचिकेत, त्रिमधु, अन्य परिनिष्ठित, पुराणों का विद्वान्, स्वाध्यायशील, ब्राह्मणभक्त, पिता की सेवा करने वाला, सूर्यदेवता का भक्त, वैष्णव, ब्रह्मवेत्ता, योगशास्त्र का ज्ञाता, शान्त, आत्मज्ञ, अत्यन्त शीलवान् तथा शिव भक्ति परायण हो, ऐसा ब्राह्मण श्राद्ध में निमन्त्रण पाने का अधिकारी है । ऐसे ब्राह्मणों को यत्नपूर्वक श्राद्ध में भोजन कराना चाहिये । अब जो लोग श्राद्ध में वर्जनीय है, उनका वर्णन सुनो । पतित, पतित का पुत्र, नपुंसक, चुगलखोर और अत्यन्त रोगी- ये सब श्राद्ध के समय धर्मज्ञ पुरुषों द्वारा त्याग देने योग्य हैं । श्राद्ध के पहले दिन अथवा श्राद्ध के ही दिन विनयशील ब्राह्मणों को निमन्त्रित करे । निमन्त्रण दिये हुए ब्राह्मणों के शरीर में पितरोंका आवेश हो जाता है । वे वायुरूप से उनके भीतर प्रवेश करते हैं और ब्राह्मणों के बैठने पर स्वयं भी उनके साथ बैठे रहते हैं । किसी ऐसे स्थान को, जो दक्षिण दिशा को ओर नीचा हो, गोबर से लीपकर वहाँ श्राद्ध आरम्भ करे अथवा गोशाला में या जल के समीप श्राद्ध करे । आहिताग्नि पुरुष पितरौ के लिये चरु (खीर) बनाये और यह कहकर कि इससे पितरो का श्राद्ध करूंगा, वह सब दक्षिण दिशा में रख दे । तदनन्तर उसमें घृत और मधु आदि मिलाकर अपने सामने की ओर तीन निर्वापस्थान (पिण्डदान की वेदियाँ) बनाये । उनकी लंबाई एक बित्ता और चौड़ाई चार अङ्गुल की होनी चाहिये । साथ ही, खैरकी तीन द्रवीं (कलबुल) बनवावे, जो चिकनी हो तथा जिनमें चाँदी का संसर्ग हो । उनकी लंबाई एक-एक रनि की और आकार हाथ के समान सुन्दर होना उचित है । जलपात्र, कास्यपात्र, प्रोक्षण, समिधा, कुश, तिलपात्र, उत्तम वस्त्र, गन्ध, धूप, चन्दन ये सब वस्तुएँ धीरे- धीरे दक्षिण दिशा में रखे । उस समय जनेऊ दाहिने कंधे पर होना चाहिये । इस प्रकार सब सामान एकत्रित करके घर के पूर्व गोबर से लिपी हुई पृथ्वी पर गोमुत्र से मण्डल बनावे और अक्षत तथा फूल सहित जल लेकर तथा जनेऊ को क्रमशः बायें एवं दाहिने कंधे पर छोड़कर ब्राह्मणों के पैर धोये तथा बारंबार उन्हें प्रणाम करे । तदनन्तर, विधिपूर्वक आचमन कराकर उन्हें बिछाये हुए दर्भयुक्त आसनों पर बिठावे और उनसे मन्त्रोचारण करावे । सामर्थ्यशाली पुरुष भी देवकार्य (वैश्वदेव श्राद्ध) में दो और पितृकार्य में तीन ब्राह्मणों को ही भोजन कराये अथवा दोनों श्राद्धों में एक- एक ब्राह्मण को ही जिमाये । विद्वान् पुरुष को श्राद्ध में अधिक विस्तार नहीं करना चाहिये । पहले विश्वेदेव- सम्बन्धी और फिर पितृ- सम्बन्धी विद्वान् ब्राह्मणों की अर्घ्य आदि से विधिवत् पूजा करे तथा उनकी आशा लेकर अग्नि में यथाविधि हवन करे । विद्वान् पुरुष गृह्यसूत्र में बतायी हुई विधि के अनुसार घृतयुक्त चरु का अमि और सोम की तृप्ति के उद्देश्य से समय पर करे । इस प्रकार देवताओं की तृप्ति करके वह श्राद्धकर्ता श्रेष्ठ ब्राह्मण साक्षात् अग्नि का स्वरूप माना जाता है । देवता के उद्देश्य से किया जाने वाला हवन आदि प्रत्येक कार्य जनेऊ को बायें कंधेपर रखकर ही करना चाहिये । तत्पश्चात् पितरों के निमित्त करने योग्य पर्युक्षण (सेचन) आदि सारा कार्य विद्वान पुरुष को जनेऊ को दायें कंधे पर करके करना उचित है । हवन तथा विश्वेदेवों को अर्पण करने से बचे हुए अन्न को लेकर उसके कई पिण्ड बनावे और एक- एक पिण्ड को दाहिने हाथ में लेकर तिल और जल के साथ उसका दान करना चाहिये । संकल्प के समय जल- पात्र में रखे हुए जल को बायें हाथ की सहायता से दायें हाथ में ढाल लेना चाहिये । श्राद्ध काल में पूर्ण प्रयत्न के साथ अपने मन और इन्द्रियों को काबू में रखे और मात्सर्य का त्याग कर दे । [पिण्डदान की है–] पिण्ड देने के लिये बनायी हुई हवन अपसव्य भावस विधि इस प्रकार वेदियो पर यत्न पूर्वक रेखा बनाये । इसके बाद अवनेजन- पात्र में जल लेकर उसे खाङ्कित वेदी पर गिरावे । [यह अवनेजन अर्थात् स्थान- शोधन की क्रिया है ।] फिर दक्षिणाभिमुख होकर वेदी पर कुश बिछावे और एक- एक करके सब पिण्डों को क्रमशः उन कुशों पर रखे । उस समय [पिता- पितामह आदि में से जिस- जिस के उद्देश्य से पिण्ड दिया जाता हो, उस उस] पितर के नाम- गोत्र आदि का उच्चारण करते हुए संकल्प पढ़ना चाहिये । पिण्डदान के पश्चात् अपने दायें हाथ को पिण्डाधारभूत कुशो पर पोछना चाहिये । यह लेपभागभोजी पितरों का भाग है । उस समय ऐसे ही मन्त्र का जप अर्थात् लेपभागभुजः पितरस्तृप्यन्तु’ इत्यादि वाक्यों का उच्चारण करना उचित है । इसके बाद पुनः प्रत्यवनेजन करे अर्थात् अवनेजनपात्र में जल लेकर उससे प्रत्येक पिण्ड को नहलाये । फिर जलयुक्त पिण्डों को नमस्कार करके श्राद्धकल्योक्त वेद मन्त्रों के द्वारा पिण्डों पर पितरों का आवाहन करे और चन्दन, धूप आदि पूजन- सामग्रियों के द्वारा उनकी पूजा करे । तत्पश्चात् आहवनीयादि अग्नियों के प्रतिनिधिभूत एक- एक ब्राह्मण को जल के साथ एक- एक देवी प्रदान करे । फिर विद्वान् पुरुष पितरों के उद्देश्य से पिण्डों के ऊपर कुश रखे तथा पितगेका विसर्जन करे । तदनन्तर क्रमशः सभी पिण्डो मे से थोड़ा- थोड़ा अंश निकालकर सबको एकत्र करे और ब्राह्मणों को यत्नपूर्वक पहले वही भोजन करावे; क्योंकि उन पिण्डों का अंश ब्राह्मण लोग ही भोजन करते हैं । इसीलिये अमावास्यां के दिन किये हुए पार्वण श्राद्ध को ‘अन्वाहार्य’ कहा गया है | पहले अपने हाथ में पवित्री सहित तिल और जल लेकर पिण्डों के आगे छोड़ दे और कहे- ‘एषां स्वधा अस्तु’ (ये पिण्ड स्वधा स्वरूप हो जायँ) । इसके बाद परम पवित्र और उत्तम अन्न परोसकर उसकी प्रशंसा करते हुए उन ब्राह्मणो को भोजन करवाएं । उस समय भगवान् श्रीनारायण का स्मरण करता रहे और क्रोधी स्वभाव को सर्वथा त्याग दे । ब्राह्मणों को तृप्त जानकर विकिरान्न दान करे; यह सब वर्णों के लिये उचित है । विकिरान- दान की विधि यह है । तिल सहित अन्न और जल लेकर उसे कुश के ऊपर पृथ्वी पर रख दे । जब ब्राह्मण आचमन कर लें तो पुनः पिण्डों पर जल गिरावे । फूल, अक्षत, जल छोड़ना और स्वधावाचन आदि सारा कार्य पिण्ड के ऊपर करे । ‘पहले देवश्राद्ध की समाप्ति करके फिर पितृश्राद्ध की समाप्ति करें, अन्यथा श्राद्ध का नाश हो जाता है । इसके बाद नतमस्तक होकर ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा करके उनका विसर्जन करे | यह आहिताग्नि पुरुषों के लिये अन्वाहार्य पार्वण श्राद्ध बतलाया गया । अमावास्या के पर्व पर किये जाने के कारण यह पार्वण कहलाता है । यही नैमित्तिक श्राद्ध है । श्राद्ध के पिण्ड गाय या बकरीको खिला दे अथवा ब्राह्मणों को दे दे अथवा अमि या जल में छोड़ दे । यह भी न हो तो खेत में बिखेर दे अथवा जल की धारा में बहा दे । [सन्तान की इच्छा रखने वाली] पत्नी विनीत भाव से आकर मध्यम अर्थात् पितामह के पिण्ड को ग्रहण करे और उसे खा जाय । उस समय ‘आधत्त पितरो गर्भम्’ इत्यादि मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये । श्राद्ध और पिण्डदान आदि की स्थिति तभी तक रहती है, जब तक ब्राह्मणों का विसर्जन नहीं हो जाता । इनके विसर्जन के पश्चात् पितृकार्य समाप्त हो जाता है । उसके बाद बलिवैश्वदेव करना चाहिये । तदनन्तर अपने बन्धु- बान्धवों के साथ पितरों द्वारा सेवित प्रसादस्वरूप अन्न भोजन करे । श्राद्ध करने वाले यजमान तथा श्राद्धभोजी ब्राह्मण दोनों को उचित है कि वे दुबारा भोजन न करें, राह न चलें, मैथुन न करें । साथ ही उस दिन स्वाध्याय, कलह और दिन में शयन- इन सब को सर्वथा त्याग दें । इस विधि से किया हुआ श्राद्ध धर्म, अर्थ और काम- तीनों की सिद्धि करने वाला होता है । कन्या, कुम्भ और वृष राशि पर सूर्य के रहते कृष्णपक्ष में प्रतिदिन श्राद्ध करना चाहिये । जहाँ- जहाँ सपिण्डीकरणरूप श्राद्ध करना हो, वहाँ अग्निहोत्र करने वाले पुरुष को सदा इसी विधि से करना चाहिये । अब मैं ब्रह्माजी के बताये हुए साधारण श्राद्ध का वर्णन करूँगा, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करने वाला है । उत्तरायण और दक्षिणायन के प्रारम्भ के दिन, विषुव नामक योग (तुला और मेष की संक्रान्ति) में [जब कि दिन और रात बराबर होते हैं], प्रत्येक अमावास्या को, प्रति संक्रान्ति के दिन, अष्ट का (पौष, माघ, फाल्गुन तथा आश्विन मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी तिथि) में, पूर्णिमा को, आर्द्रा, मघा और रोहिणी- इन नक्षत्रों में, श्राद्ध के योग्य उत्तम पदार्थ और सुपात्र ब्राह्मण के प्राप्त होनेपर, व्यतीपात, विष्टि और वैधृति योग के दिन, वैशाख की तृतीया को, कार्तिक की नवमी को, माघ की पूर्णिमा तथा भाद्रपद की त्रयोदशी तिथि को भी श्राद्ध का अनुष्ठान करना चाहिये । उपर्युक्त तिथियाँ युगादि कहलाती है । ये पितरों का उपकार करने वाली हैं । इसी प्रकार मन्वन्तरादि तिथियों में भी विद्वान् पुरुष श्राद्ध का अनुष्ठान करे । आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक शुक्ला द्वादशी, चैत्र तथा भाद्रपद की शुक्ला तृतीया, फाल्गुन की अमावास्या, पौष की शुक्ला एकादशी, आषाढ़ शुक्ला दशमी, माघ शुक्ला सप्तमी, श्रावण कृष्णा अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन और ज्येष्ठ की पूर्णिमा- इन तिथियों को मन्वन्तरादि कहते हैं । ये दिये हुए दान को अक्षय कर देने वाली हैं । विद्वान पुरुष को चाहिये कि वैशाख की पूर्णिमा को, ग्रहण के दिन, किसी उत्सव के अवसर पर और महालय (आश्विन कृष्णपक्ष) में तीर्थ, मन्दिर, गोशाला, द्वीप, उद्यान तथा घर आदि में लिपे- पुते एकान्त स्थान में श्राद्ध करे । ‘[अब श्राद्ध के क्रम का वर्णन किया जाता है-] पहले विश्वेदेवों के लिये आसन देकर जौ और पुष्पों से उनकी पूजा करे । [विश्वेदेवों के दो आसन होते हैं; एक पर पिता- पितामहादि सम्बन्धी विश्वेदेवों का आवाहन होता है और दूसरे पर मातामहादि सम्बन्धी विश्वेदेवों का उनके लिये दो अर्घ्य पात्र (सिकोरे या दोने) जौ और जल आदि से भर दे और उन्हें कुश की पवित्री पर रखे । शन्नोदेवीरभीष्टये इत्यादि मन्त्र से जल तथा यवोऽसि- ‘इत्यादि के द्वारा जौ के दोनों को उन पात्रों में छोड़ना चाहिये । फिर गन्ध- पुष्य आदि से पूजा करके वहाँ विश्वेदेवों की स्थापना करे और मन्त्र को विश्वे देवास- ‘इत्यादि दो मन्त्रों से विश्वेदेवों का आवाहन करके उनके ऊपर जौ छोड़े । जौ छोड़ते समय इस प्रकार कहे- ‘जौ ! तुम सब अन्नों के राजा हो । तुम्हारे देवता वरुण हैं- वरुण से ही तुम्हारी उत्पत्ति हुई है; तुम्हारे अंदर मधु का मेल है । तुम सम्पूर्ण पापों को दूर करने वाले, पवित्र एवं मुनियों द्वारा प्रशंसित अन्न हो । फिर अर्घ्यपात्र को चन्दन और फूलों से सजाकर ज्या दिव्या आप:- ‘पढ़ते हुए विश्वेदेवों को अर्घ्य दे । इसके बाद उनकी पूजा करके गन्ध आदि निवेदन कर पितृयज्ञ (पितृश्राद्ध) आरम्भ करे । पहले पिता आदि के लिये कुश के तीन आसनों की कल्पना करके फिर तीन अर्घ्यपात्रो का पूजन करे- उन्हें पुष्प आदि से सजावे । प्रत्येक अर्घ्यपात्र को कुश की पवित्री से युक्त करके ‘शन्नोदेवीरभीष्टये-‘ इस मन्त्र से सबमै जल छोड़े । फिर ‘तिलोऽसि सोमदेवत्यो-‘ इस मन्त्र से तिल छोड़ कर [बिना मन्त्र के ही] चन्दन और पुष्प आदि भी छोडे । अर्घ्यपात्र पीपल आदि की लकड़ी का, पत्ते का या चाँदी का बनवावे अथवा समुद्र से निकले हुए शङ्ख आदि से अर्घ्यपात्र का काम ले । सोने, चाँदी और ताँबे का पात्र पितरों को अभीष्ट होता है । चाँदी की तो चर्चा सुनकर भी पितर प्रसन्न हो जाते है । चाँदी का दर्शन अथवा चाँदी का दान उन्हें प्रिय है । यदि चाँदी के बने हुए अथवा चाँदी से युक्त पात्र में जल भी रखकर पितरों को श्रद्धापूर्वक दिया जाय तो वह अक्षय हो जाता है । इसलिये पितरौं के पिण्डों पर अर्घ्य चढ़ाने के लिये चाँदी का ही पात्र उत्तम माना गया है । चाँदी भगवान् श्रीशङ्कर के नेत्र से प्रकट हुई है, इसलिये वह पितरों को अधिक प्रिय है । इस प्रकार उपर्युक्त वस्तुओं से जो सुलभ हो, उसके अर्घ्यपात्र बनाकर उन्हें ऊपर बताये अनुसार जल, तिल और गन्ध- पुष्प आदि से सुसजित करे; तत्पश्चात् ज्या दिव्या आपः’ इस मन्त्र को पढ़कर पिता के नाम और गोत्र आदि का उच्चारण करके अपने हाथ में कुश ले ले । फिर इस प्रकार कहे- पितृन् आवाहयिष्यामि’ – पितरों का आवाहन करूँगा ।’ तब निमन्त्रण में आये हुए ब्राह्मण ‘तथास्तु’ कहकर श्राद्धकर्ता को आवाहन के लिये आज्ञा प्रदान करें । इस प्रकार ब्राह्मणों की अनुमति लेकर उशन्तस्त्वा निधीमहि- आयन्तु नः पितर:-‘ इन दो ऋचाओं का पाठ करते हुए वह पितरों का आवाहन करे । तदनन्तर, ज्या दिव्या आपः-‘ इस मन्त्र से पितरों को अर्घ्य देकर प्रत्येक के लिये गन्ध- पुष्प आदि पूजोपचार एवं बत्र चढ़ावे तथा पृथक्- पृथक संकल्प पढ़कर उन्हें समर्पित करे । [अर्घ्यदान की प्रक्रिया इस प्रकार है-] पहले अनुलोम क्रम से अर्थात् पिता के उद्देश्य से दिये हुए अर्घ्यपात्र का जल पितामह के अर्घ्यपात्र में डाले और फिर पितामह के अर्घ्यपात्र का सारा जल प्रपितामह के अर्घ्यपात्र में डाल दे, फिर विलोमक्रम से अर्थात् प्रपितामह के अर्घ्यपात्र को पितामह के अर्घ्यपात्र में रखे और उन दोनों पात्रों को उठाकर पिता के अर्घ्यपात्र में रखे । इस प्रकार तीनों अर्घ्यपात्रों को एक- दूसरे के ऊपर करके पिता के आमन के उत्तर भाग में ‘पितृभ्यः स्थानमसि’ ऐसा कहकर उन्हें ढलका दे- उलटकर रख दे । ऐसा करके अन्न पगेमने का कार्य करे । परोसने के समय भी पहले अग्निकार्य करना चाहिये अर्थात् थोड़ा- सा अन्न निकालकर ‘अग्नये कव्यवाहनाय म्बाहा’ और ‘सोमाय पितृमते स्वाहा’- इन दो मन्त्रों से अग्नि और सोम देवता के लिये अग्नि में दो बार आहुति डाले । इसके बाद दोनों हाथों से अन्न निकालकर परोसे । परोसते समय उशन्तस्त्वा निधीमहि-‘ इत्यादि मन्त्र का उचारण करता रहे । उत्तम, गुणकारी शाक आदि तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थों के साथ दही, दूध, गौ का घृत और शकर आदि से युक्त अन्न पितरों के लिये तृप्तिकारक होता है । मधु मिलाकर तैयार किया हुआ कोई भी पदार्थ तथा गाय का दूध और घी मिलायी हुई खीर आदि पितरों के लिये दी जाय तो वह अक्षय होती है- ऐसा आदि देवता पितरों ने स्वयं अपने ही मुख से कहा है । इस प्रकार अन्न परोसकर पितृसम्बन्धी ऋचाओं का पाठ सुनावे । इसके सिवा सभी तरह के पुराण, ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और रुद्र सम्बन्धी भाँति- भाँति के स्तोत्र; इन्द्र, रुद्र और सोमदेवता के सूक्त; पावमानी ऋचाएँ; बृहद्रथन्तर; ज्येष्ठसाम का गौरव गान; ‘ शान्तिकाध्याय, मधुब्राह्मण, मण्डलबाह्मण तथा और भी जो कुछ ब्राह्मणों को तथा अपने को प्रिय लगे वह सब सुनाना चाहिये । महाभारत का भी पाठ करना चाहिये । क्योंकि वह पितरों को अत्यन्त प्रिय है । ब्राह्मणों के भोजन कर लेने पर जो अन्न और जल आदि शेष रहे, उसे उनके आगे जमीन पर बिखेर दे । यह उन जीवोंका भाग है, जो संस्कार आदि से हीन होने के कारण अधम गति को प्राप्त हुए हैं । ब्राह्मणों को तृप्त जानकर उन्हें हाथ- मुँह धोने के लिये जल प्रदान करे । इसके बाद गाय के गोबर और गोमूत्र से लिपी हुई भूमि पर दक्षिणाग्र कुश बिछाकर उनके ऊपर यत्नपूर्वक पितृयज्ञ की भाँति विधिवत् पिण्डदान करे पिण्डदान के पहले पितरों के नाम- गोत्र का उच्चारण करके उन्हें अवनेजन के लिये जल देना चाहिये । फिर पिण्ड देने के बाद पिण्डों पर प्रत्यवनेजन का जल गिराकर उनपर पुष्प आदि चढ़ाना चाहिये । सव्यापसव्यका विचार करके प्रत्येक कार्य का सम्पादन करना उचित श्राद्ध की भाँति माता का श्राद्ध भी हाथ में कुश लेकर विधिवत् सम्पन्न करे । दीप जलावे, पुष्प आदि से पूजा करे । ब्राह्मणों के आचमन कर लेने पर स्वयं भी आचमन करके एक- एक बार सबको जल दे । फिर फूल और अक्षत देकर तिलसहित अक्षय्योदक दान करे । फिर नाम और गोत्र का उच्चारण करते हुए शक्ति के अनुसार दक्षिणा दे । गौ, भूमि, सोना, वस्त्र और अच्छे- अच्छे बिछौने दे । कृपणता छोड़कर पितरों की प्रसन्नता का सम्पादन करते हुए जो- जो वस्तु ब्राह्मणों को, अपने को तथा पिता को भी प्रिय हो, वही- वही वस्तु दान करे ।।

तत्पश्चात् स्वधावाचन करके विश्वेदेवों को जल अर्पण करे और ब्राह्मणों से आशीर्वाद ले । विद्वान् पुरुष पूर्वाभिमुख होकर कहे- ‘अघोराः पितरः सन्तु (मेरे पितर शान्त एवं मङ्गलमय हो) ।’ यजमान के ऐसा कहने पर ब्राह्मण लोग  ‘तथा सन्तु (तुम्हारे पितर ऐसे ही हों)- ऐसा कहकर नुमोदन करें | फिर श्राद्धकर्ता कहे- ‘गोत्रं नो वर्धताम्’ ( हमारा गोत्र बढ़े) । यह सुनकर ब्राह्मणों को ‘तथास्तु’ (ऐसा ही हो) इस प्रकार उत्तर देना चाहिये । फिर यजमान कहे- ‘दातारो मेऽभिवर्धन्ताम्’ ‘वेदाः सन्ततिरेव च- एताः सत्या आशिषः सन्तु (मेरे दाता बढ़ें, साथ ही मेरे कुलब में वेदोंब के अध्ययन और सुयोग्य सन्तानब की वृद्धि हो- ये सारे आशीर्वाद सत्य हो) । यह सुनकर ब्राह्मण कहें- ‘सन्तु सत्या आशिषः (ये आशीर्वाद सत्य हों) । इसके बाद भक्तिपूर्वक पिण्डों को उठाकर सूंघे और स्वस्तिवाचन करे । फिर भाई- बन्धु और स्त्री- पुत्र के साथ प्रदक्षिणा करके आठ पग चले । तदनन्तर लौटकर प्रणाम करे । इस प्रकार श्राद्ध की विधि पूरी करके मन्त्रवेत्ता पुरुष अमि प्रज्वलित करने के पश्चात् बलिवैश्वदेव तथा नैत्यिक बलि अर्पण करे । तदनन्तर भृत्य, पुत्र, बान्धव तथा अतिथियों के साथ बैठकर वही अन्न भोजन करे, जो पितरों को अर्पण किया गया हो । जिसका यज्ञोपवीत नहीं हुआ है, ऐसा पुरुष भी इस श्राद्ध को प्रत्येक पर्व पर कर सकता है । इसे साधारण [या नैमित्तिक] श्राद्ध कहते हैं । यह सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाला है । राजन् ! स्त्रीरहित या विदेशस्थित मनुष्य भी भक्तिपूर्ण हृदय से इस श्राद्ध का अनुष्ठान करने का अधिकारी है । यही नहीं, शूद्र भी इसी विधिसे श्राद्ध कर सकता है । अन्तर इतना ही है कि वह वेदमंत्रों का उच्चारण नहीं कर सकता । तीसरा अर्थात् काम्य श्राद्ध आभ्युदयिक है; इसे वृद्धि श्राद्ध भी कहते हैं । उत्सव और आनन्द के अवसरपर, संस्कार के समय, यज्ञ में तथा विवाह आदि माङ्गलिक कार्यों में यह श्राद्ध किया जाता है । इसमें पहले माताओं की अर्थात् माता, पितामही और प्रपितामही की पूजा होती है । इनके बाद पितरों- पिता, पितामह और प्रपितामह का पूजन किया जाता है । अन्त में मातामह आदि की पूजा होती है । अन्य श्राद्धों की भाँति इसमें भी विश्वेदेवों की पूजा आवश्यक है । दक्षिणावर्तक क्रम से पूजोपचार चढ़ाना चाहिये । आभ्युदयिक श्राद्ध, दही, अक्षत, फल और जल से ही पूर्वाभिमुख होकर पितरों को पिण्डदान दिया जाता है | ‘सम्पन्नम्’ का उच्चारण करके अर्घ्य और पिण्डदान देना चाहिये । इसमें युगल ब्राह्मणों को अर्घ्य दान दे तथा युगल (सपत्नी के) ब्राह्मणों की ही वस्त्र और सुवर्ण आदि के द्वारा पूजा करे । तिल का काम जौ से लेना चाहिये तथा सारा कार्य पूर्ववत् करना चाहिये । श्रेष्ठ ब्राह्मणों के द्वारा सब प्रकार के मङ्गलपाठ करावे । इस प्रकार शूद्र भी कर सकता है । यह वृद्धिश्राद्ध सबके लिये सामान्य है । बुद्धिमान् शुद्र पित्रे नमः’ इत्यादि नमस्कार- मन्त्र के द्वारा ही दान आदि कार्य करे । भगवान का कथन है कि शूद्र के लिये दान ही प्रधान है, क्योंकि दान से उसकी समस्त कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं ।