पद्मपुराण ‘ पेज -8’

Home / PADMA-PURANA

पद्मपुराण ‘ पेज -8’

पृथु के चरित्र तथा सूर्यवंश का वर्णन

भीष्मजी ने पूछा -ब्रह्मन् ! सुना जाता है, पूर्वकाल में बहुत- से राजा इस पृथ्वी का उपभोग कर चुके हैं । पृथ्वी के सम्बन्ध से ही राजाओं को पार्थिव या पृथ्वीपति कहते हैं । परन्तु इस भूमि की जो ‘पृथ्वी’ संज्ञा है, वह किसके सम्बन्धसे हुई है ! भूमि को यह पारिभाषिक संज्ञा किस लिये दी गयी अथवा उसका ‘गौ’ नाम भी क्यों पड़ा, यह मुझे बताइये । पुलस्त्यजी ने कहा- स्वायम्भुव मनु के वंश में एक अङ्ग नाम के प्रजापति थे । उन्होंने मृत्यु की कन्या सुनीथा के साथ विवाह किया था । सुनीथा का मुख बड़ा कुरूप था । उससे वेन नामक पुत्र हुआ, जो सदा अधर्म में ही लगा रहता था । वह लोगों की बुराई करता और परायी स्त्रियों को हड़प लेता था । एक दिन महर्षियों ने उसकी भलाई और जगत् के उपकार के लिये उसे बहुत कुछ समझाया-बुझाया; परन्तु उसका अन्तःकरण अशुद्ध होने के कारण उसने उनकी बात नहीं मानी, प्रजा को अभयदान नहीं दिया । तब ऋषियों ने शाप देकर उसे मार डाला । फिर अराजकता के भय से पीड़ित होकर पाप रहित ब्राह्मणों ने वेन के शरीर का बलपूर्वक मन्धन किया । मन्थन करने पर उसके शरीर से पहले म्लेच्छ जातियाँ उत्पन्न हुई, जिनका रङ्ग काले अञ्जन के समान था । तत्पश्चात् उसके दाहिने हाथ से एक दिव्य तेजोमय शरीरघारी धर्मात्मा पुरुष का प्रादुर्भाव हुआ, जो धनुष, बाण और गदा धारण किये हुए थे तथा रसमय कवच एवं अङ्गदादि आभूषणों से विभूषित थे । वे पृथु के नाम से प्रसिद्ध हुए । उनके रूप में साक्षात् भगवान् विष्णु ही अवतीर्ण हुए थे । ब्राह्मणों ने उन्हें राज्य पर अभिषिक्त किया । राजा होने पर उन्होंने देखा कि इस भूतल से धर्म उठ गया है । न कहीं स्वाध्याय होता है, न वषटकार (यशादि) । तब वे क्रोध करके अपने गाण से पृथ्वी को विदीर्ण कर डालने के लिये उद्यत हो गये । यह देख पृथ्वी गौ का रूप धारण करके भाग खड़ी हुई । उसे भागते देख पृथु ने भी उसका पीछा किया । तब वह एक स्थान पर खड़ी होकर बोली -राजन् ! मेरे लिये क्या आज्ञा होती है । पृथु ने कहा -‘सुबते ! सम्पूर्ण चराचर जगत के लिये जो अभीष्ट वस्तु है, उसे शीघ्र प्रस्तुत करो । पृथ्वी ने ‘बहुत अच्छा’ कहकर स्वीकृति दे दी । तब राजा ने स्वायम्भुव मनु को बछड़ा बनाकर अपने हाथ मे पृथ्वी का दूध दुहा । वही दूध अन्न हुआ, जिससे सारी प्रजा जीवन धारण करती है । तत्पश्चात् ऋपियों ने भी भूमिरूपिणी गौ का दोहन किया । उस समय चन्द्रमा बछड़ा बने थे । दुहने वाले थे वनस्पति, दुग्ध का पात्र था वेद और तपस्या ही दूध थी । फिर देवताओं ने भी वसुधा को दुहा । उस समय मित्र देवता दोग्धा हुए । इन्द्र बछड़ा बने तथा ओज और बल ही दूध के रूप में प्रकट हुआ । देवताओं का दोहनपात्र सुवर्ण का था और पितरो का चाँदी का । पितरों की ओर से अन्तक ने दुहने का काम किया, यमराज बछड़ा बने और स्वधा ही दूध के रूप में प्राप्त हुई । नागों ने तूंबी को पात्र बनाया और तक्षक को बछड़ा । धृतराष्ट्र नामक नाग ने दोग्धा बनकर विषरूपी दुग्ध का दोहन किया । असुरों ने लोहे के बर्तन में इस पृथ्वी से मायारूप दूध दुहा । उस समय प्रहाद कुमार विरोचन बछड़ा बने थे और त्रिमूर्षा ने दुहने का काम किया था । यक्ष अन्तर्धान होने की विद्या प्राप्त करना चाहते थे, इसलिये उन्होंने कुबेर को बछड़ा बनाकर कच्चे बर्तन में उस अन्तर्धान-विद्या को ही वसुधाले दुग्ध के रूप में दुहा । गन्धर्वों और अप्सराओं ने चित्ररथ को बछड़ा बनाकर कमल के पत्ते में पृथ्वी से सुगन्धौ का दोहन किया । उनकी ओर से अथर्ववेद के पारगामी विद्वान् सुरुचि ने दूध दुहने का कार्य किया था । इस प्रकार दूसरे लोगों ने भी अपनी-अपनी रुचि के अनुसार पृथ्वी से धन और सुख का दोहन किया । पृथु के शासनकाल में कोई भी मनुष्य न दरिद्र था न रोगी, न निर्धन था न पापी तथा न कोई उपद्रव था न पीडा । सब सदा प्रसन्न रहते थे । किसी को दुःख या शोक नहीं था । महाबली पृथु ने लोगों के हित की इच्छा से अपने धनुष की नोक से बड़े-बड़े पर्वतो को उखाड़कर हटा दिया और पृथ्वी को समतल बनाया । पृथु के राज्य में गाँव बसाने या किले बनवाने की आवश्यकता नहीं थी । किसी को शस्त्र-धारण करने का भी कोई प्रयोजन नहीं था । मनुष्यो को विनाश एवं वैषम्य का दुःख नहीं देखना पड़ता था । अर्थ- शास्त्र में किसी का आदर नहीं था । सब लोग धर्म में ही संलग्न रहते थे । इस प्रकार मैंने तुमसे पृथ्वी के दोहन- पात्रों का वर्णन किया तथा जैसा-जैसा दूध दुहा गया था, वह भी बता दिया । राजा पृथु बड़े विद्वान् थे; जिनकी जैसी रुचि थी, उसी के अनुसार उन्होंने सबको दूध प्रदान किया । यह प्रसङ्ग यज्ञ और श्राद्ध सभी अवसरों पर सुनाने के योग्य है । इसे मैंने तुम्हें सुना दिया । यह भूमि धर्मात्मा पृथु की कन्या मानी गयी । इसी से विद्वान् पुरुष ‘पृथ्वी’ कहकर इसकी स्तुति करते हैं । भीष्मजी ने कहा- ब्रह्मन् ! आप तत्त्व के ज्ञाता हैं । अब क्रमशः सूर्यवंश और चन्द्रवंश का पूरा-पूरा एवं यथार्थ वर्णन कीजिये । पुलस्त्यजी ने कहा- राजन् ! पूर्वकाल में कश्यपजी से अदिति के गर्भ से विवस्वान् नामक पुत्र हुए । विवस्वान  के तीन स्त्रियाँ थी- संशा, राका और प्रभा । राजी ने रैवत नामक पुत्र उत्पन्न किया । प्रभा से प्रभात की उत्पत्ति हुई । संज्ञा विश्वकर्मा की पुत्री थी । उसने वैवस्वत मनु को जन्म दिया । कुछ काल पश्चात् संज्ञा के गर्भ से यम और यमुना नामक दो जुड़वी सन्तानें पैदा हुई । तदनन्तर वह विवस्वान् (सूर्य) के तेजोमय स्वरूप को न सह सकी, अतः उसने अपने शरीर से अपने ही समान रूपवाली एक नारी को प्रकट किया । उसका नाम छाया हुआ । छाया सामने खड़ी होकर बोली – ‘देवि ! मेरे लिये क्या आशा है “संज्ञा ने कहा – ‘छाया ! तुम मेरे स्वामी की सेवा करो, साथ  ही मेरे बच्चों का भी माता की भाँति स्नेहपूर्वक पालन करना । ‘ ‘तथास्तु’ कहकर छाया भगवान् सूर्य के पास गयी । वह उनसे अपनी कामना पूर्ण करना चाहती थी । सूर्य ने भी यह समझकर कि यह उत्तम व्रत का पालन करने वाली संज्ञा ही है, बड़े आदर के साथ उसकी कामना की । छाया ने सूर्य से सावर्ण मनु को उत्पन्न किया । उनका वर्ण भी वैवस्वत मनु के समान होने के कारण उनका नाम सावर्ण मनु पड़ गया । तत्पश्चात् भगवान् भास्कर ने छाया के गर्भसे क्रमशः शनैश्चर नामक पुत्र तथा तपती और विष्टि नामकी कन्याओं को जन्म दिया । एक समय महायशस्वी यमराज वैराग्य के कारण पुष्कर तीर्थ में गये और वहाँ फल, फेन एवं वायु का आहार करते हुए कठोर तपस्या करने लगे । उन्होंने सौ वर्षां तक तपस्या के द्वारा ब्रह्माजी की आराधना की । उनके तप के प्रभाव से देवेश्वर ब्रह्माजी सन्तुष्ट हो गये; तब यमराज ने उनसे लोकपाल का पद, अक्षय पितृलोक का राज्य तथा धर्माधर्ममय जगत् की  देख रेख का अधिकार माँगा । इस प्रकार उन्हें ब्रह्माजी से लोकपाल पदवी प्राप्त हुई । साथ ही उन्हें पितृलोक का राज्य और धर्माधर्म के निर्णय का अधिकार भी मिल गया । छाया के पुत्र शनैश्वर भी तप के प्रभाव से ग्रहों की समानता को प्राप्त हुए । यमुना और तपती- ये दोनों सूर्य- कन्याएँ नदी हो गयौं । विष्टिका स्वरूप बड़ा भयंकर था; वह कालरूप से स्थित हुई । वैवस्वत मनु के दस महाबली पुत्र हुए, उन सबमें ‘इल’ ज्येष्ठ थे । शेष पुत्रों के नाम इस प्रकार हैं -इक्ष्वाकु, कुशनाभ, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करूप, महाबली शर्याति, पृषध्र तथा नाभाग । ये सभी दिव्य मनुष्य थे । राजा मनु अपने ज्येष्ठ और धर्मात्मा पुत्र ‘इल’ को राज्य पर अभिषिक्त करके स्वयं पुष्कर के तपोवन में तपस्या करने के लिये चले गये । तदनन्तर उनकी तपस्या को सफल करने के लिये वरदाता ब्रह्माजी आये और बोले- मनो ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम अपनी इच्छा के अनुसार वर माँगो । ‘मनु ने कहा- स्वामिन् ! आपकी कृपा से पृथ्वी के सम्पूर्ण राजा धर्मपरायण, ऐश्वर्यशाली तथा मेरे अधीन हों । ‘तथास्तु’ कहकर देवेश्वर ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर, मनु अपनी राजधानी में आकर पूर्ववत् रहने लगे । इसके बाद राजा इल अर्थसिद्धि के लिये इस भूमण्डल पर विचरने लगे । वे सम्पूर्ण द्वीपों में घूम-घूमकर वहाँ के राजाओं को अपने वश में करते थे । एक दिन प्रतापी इल रथ में बैठकर भगवान् शङ्कर के महान् उपवन में गये, जो कल्पवृक्ष की लताओंसे ध्याप्त एवं शरवण’ के नाम से प्रसिद्ध था । उसमें देवाधिदेव चन्द्रार्धशेखर भगवान् शिव पार्वतीजी के साथ क्रीडा करते हैं । पूर्वकाल में महादेवजी ने उमा के साथ शरवण ‘ के भीतर प्रतिज्ञापूर्वक यह बात कही थी कि ‘पुरुष नामधारी जो कोई भी जीव हमारे वन में आ जायेगा, वह इस दस योजन के घेरे में पैर रखते ही स्त्रीरूप हो जायगा । ‘राजा इल इस प्रतिज्ञा को नहीं जानते थे, इसीलिये ‘शरवण’ में चले गये । वहाँ पहुँचने पर वे सहसा स्त्री हो गये तथा उनका घोड़ा भी उसी समय घोड़ी बन गया । राजा के जो-जो पुरुषोचित अङ्ग थे, वे सभी स्त्री के आकार में परिणत हो गये । इससे उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ । अब वे ‘इला’ नामकी स्त्री थे । इला उस वन में घूमती हुई सोचने लगी, मेरे माता-पिता और भ्राता कौन हैं ? ‘वह इसी उधेड़-बुन में पड़ी थी, इतने में ही चन्द्रमा के पुत्र बुध ने उसे देखा । [इला की दृष्टि भी बुध के ऊपर पड़ी ।] सुन्दरी इला का मन बुध के रूप पर मोहित हो गया; उधर बुध भी उसे देखकर कामपीड़ित हो गये और उसकी प्राप्ति के लिये यत्न करने लगे । उस समय बुध ब्रह्मचारी के वेष में थे । वे वन के बाहर पेड़ों के झुरमुट में छिपकर इला को बुलाने लगे -‘सुन्दरी ! यह साँझ का समय, विहार की वेला है जो बीती जा रही है । आओ, मेरे घर को लीप- पोतकर फूलों से सजा दो । ‘इला बोली- ‘तपोधन ! मैं यह सब कुछ भूल गयी हूँ | बताओ, मैं कौन हूँ ? तुम कौन हो ! मेरे स्वामी कौन हैं तथा मेरे कुल का परिचय क्या है ? ‘बुध ने कहा ‘सुन्दरी ! तुम इला हो, मैं तुम्हें चाहने वाला बुध हूँ । मैंने बहुत विद्या पढ़ी है । तेजस्वी के कुल में मेरा जन्म हुआ है । मेरे पिता ब्राह्मणों के राजा चन्द्रमा हैं । ‘बुध की यह बात सुनकर इला ने उनके घर में प्रवेश किया । वह सब प्रकार के भोगों से सम्पन्न था और अपने वैभव से इन्द्र भवन को मात कर रहा था । वहाँ रहकर इला बहुत समय तक बुध के साथ वन में रमण करती रही । उधर इलके भाई इक्ष्वाकु आदि मनुकुमार अपने राजा की खोज करते हुए उस शरवण के निकट आ पहुँचे । उन्होंने नाना प्रकार के स्तोत्रों से पार्वती और महादेवजी का स्तवन किया । तब वे दोनों प्रकट होकर बोले- राजकुमारो | मेरी यस्याता तो टल नहीं सकती; किन्तु इस समय एक उपाय हो सकता है । इक्ष्वाकु अश्वमेध यज्ञ करें और उसका फल हम  दोनों को अर्पण कर दें । ऐसा करने से वीरवर इल किम्पुरुष ‘हो जायँगे, इसमें तनिक भी सन्देह की बात नहीं है । ”बहुत अच्छा, प्रभो ! ‘यह कहकर मनुकुमार लौट गये । फिर इक्ष्वाकु ने अश्वमेध यज्ञ किया । इससे इला ‘किम्पुरुष’ हो गयी । वे एक महीने पुरुष और एक महीने स्त्री के रूप में रहने लगे । बुध के भवनमें [स्त्रीरूप से] रहते समय इल ने गर्भ धारण किया था । उस गर्भ से उन्होंने अनेक गुणों से युक्त पुत्र को जन्म दिया । उस पुत्र को उत्पन्न करके बुध स्वर्गलोक को चले गये । वह प्रदेश इल के नाम पर ‘इलावृतवर्ष’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । ऐल चन्द्रमा के वंशज तथा चन्द्रवंश का विस्तार करने वाले राजा हुए । इस प्रकार इला-कुमार पुरूरवा चन्द्रवंश की तथा राजा इक्ष्वाकु सूर्यवंश की वृद्धि करने वाले बताये गये हैं । ‘इल’ किम्पुरुष- अवस्था में ‘सुद्युम्न’ भी कहलाते थे । तदनन्तर सुद्युम्न से तीन पुत्र और जो किसी से परास्त होने वाले नहीं थे । उनके नाम उत्कल, गय तया हरिताश्व थे । हरिताश्व बड़े पराक्रमी थे । उत्कल की राजधानी उत्कला (उड़ीसा) हुई और गय की राजधानी गया मानी गयी है । इसी प्रकार हरिताश्व को कुरु प्रदेश के साथ-ही-साथ दक्षिण दिशा का राज्य दिया गया । सुद्युम्न अपने पुत्र पुरूरवा को प्रतिष्ठानपुर (पैठन) के राज्यपर अभिषिक्त करके स्वयं दिव्य वर्ष के फलों का उपभोग करने के लिये इलावृतवर्ष में चले गये । [सुद्युम्न के बाद] इक्ष्वाकु ही मनुके सबसे बड़े पुत्र थे । उन्हें मध्यदेश का राज्य प्राप्त हुआ । इक्ष्वाकु के सौ पुत्रों में पंद्रह श्रेष्ठ थे । वे मेरु के उत्तरीय प्रदेश में राजा हुए । उनके सिवा एक सौ चौदह पुत्र और जो मेरु के दक्षिणवर्ती देशों के राजा बताये गये हैं । इक्ष्वाकु के ज्येष्ठ पुत्र से ककुत्स्थ नामक पुत्र हुआ । ककुत्स्थ का पुत्र सुयोधन था । सुयोधन का पुत्र पृथु और पृथु का विश्वावसु हुआ । उसका पुत्र आर्द्र तथा आर्द्र का पुत्र युवनाश्व हुआ । युवनाश्व का पुत्र महापराक्रमी शावस्त हुआ) जिसने अङ्गदेश में शावस्ती नाम की पुरी बसायी । शावस्त से बृहदश्व और बृहदश्व से कुवलाश्व का जन्म हुआ । कुवलाश्व धुन्धु नामक दैत्य का विनाश करके धुन्धुमार के नाम से विख्यात हुए । उनके तीन पुत्र हुए- दृढाव, दण्ड तथा कपिलाश्व । धुन्धुमार के पुत्रों में प्रतापी कपिलाश्व अधिक प्रसिद्ध थे । दृढाश्व का प्रमोद और प्रमोद का पुत्र हर्यश्व । हर्यश्व से निकुम्भ और विनिकुम्भ से संहताश्व का जन्म हुआ । संहताश्व के दो पुत्र हुए- अकृताश्व तथा रणाश्च । रणाश्व के पुत्र युवनाश्व और युवनाश्व के धर्मसेतु सम्भूत से मान्धाता थे । मान्धाता के तीन पुत्र हुए- पुरुकुत्स, सम्भूति तथा मुचुकुन्द । इनमें मुचुकुन्द की ख्याति विशेष थी । वे इन्द्र के मित्र और प्रतापी राजा थे । पुरुकुत्स का पुत्र सम्भूत था, जिसका विवाह नर्मदा के साथ हुआ था । सम्भूति और सम्भूति से त्रिधन्वा का जन्म हुआ । त्रिधन्वा का पुत्र धारुण नाम से विख्यात हुआ । उसके पुत्र का नाम सत्यव्रत था । उससे सत्यरथका जन्म हुआ । सत्यरथ के हरिचन्द्र थे । हरिश्चन्द्र से रोहित हुआ । रोहित से वृक और वृक से बाहु की उत्पत्ति हुई । बाहु के पुत्र परम धर्मात्मा राजा सगर हुए । सगर की दो स्त्रियाँ थीं- प्रभा और भानुमती | इन इससे सन्तुष्ट होकर औवने उन दोनों को इच्छानुसार वरदान दोनों ने पुत्र की इच्छा से और्व नामक अग्रि की आराधना की । देते हुए कहा- ‘एक रानी साठ हजार पुत्र पा सकती है और दूसरी को एक ही पुत्र मिलेगा, जो वंशकी रक्षा करनेवाला होगा [इन दो वरों में से जिसको जो पसंद आवे, वह उसे लेले] ! ‘प्रभा ने बहुत-से पुत्रों को लेना स्वीकार किया तथा भानुमती को एक ही पुत्र- असमंजस की प्राप्ति हुई । तदनन्तर प्रभा ने, जो यदुकुल की कन्या थी, साठ हजार पुत्रों को उत्पन्न किया, जो अश्वकी खोज के लिये पृथ्वी को खोदते समय भगवान् विष्णु के अवतार महात्मा कपिल के कोप से दग्ध हो गये । असमंजस का पुत्र अंशुमान् के नाम से विख्यात हुआ । उसका पुत्र दिलीप था । दिलीप से भगीरथ का जन्म हुआ, जिन्होंने तपस्या करके भागीरथी गङ्गा को इस पृथ्वी पर उतारा था । भगीरथ के पुत्र का नाम नाभाग हुआ । नाभाग के अम्बरीष और अम्बरीष के पुत्र सिन्धुदीप हुए । सिन्धुदीप से अयुतायु और अयुतायु से ऋतुपर्ण का जन्म हुआ । ऋतुपर्ण से कल्माषपाद और कल्माषपाद से सर्वकर्मा की उत्पत्ति हुई । सर्वकर्मा का आरण्य और आरण्य का पुत्र निघ्न हुआ । निघ्न के दो उत्तम पुत्र हुए- अनुमित्र और रघु । अनुमित्र शत्रुओं का नाश करने के लिये वन में चला गया । रघु से दिलीप और दिलीप से अज हुए । अज से दीर्घबाहु और दीर्घबाहु से प्रजापाल की उत्पत्ति हुई । प्रजापाल से दशरथ का जन्म हुआ । उनके चार पुत्र हुए । वे सब-के-सब भगवान् नारायण के स्वरूप थे । उनमें राम सबसे बड़े थे, जिन्होंने रावण को मारा और रघुवंश का विस्तार किया तथा भृगुवंशियों में श्रेष्ठ वाल्मीकि ने रामायण के रूप में जिनके चरित्रका चित्रण किया । राम के  दो पुत्र हुए- कुश और लब । ये दोनों ही इक्ष्वाकु- वंश का विस्तार करने वाले थे । कुश से अतिथि और अतिथि से निषध का जन्म हुआ । निषध से नल, नल से नभा, नभा से पुण्डरीक और पुण्डरीक से क्षेमधन्या की उत्पत्ति हुई । क्षेमधन्वा का पुत्र देवानीक हुआ । वह वीर और प्रतापी था । उसका पुत्र अहीनगु हुआ । अहीनगु से सहस्राश्व का जन्म हुआ । सहस्राश्व से चन्द्रावलोक, चन्द्रावलोक से तारापीड, तारापीड से चन्द्रगिरि, चन्द्रगिरि से चन्द्र तथा चन्द्र से श्रुतायु हुए, जो महाभारत- युद्ध में मारे गये । नल नाम के दो राजा प्रसिद्ध हैं- एक तो वीरसेन के पुत्र थे और दूसरे निषध के । इस प्रकार इक्ष्वाकुवंश के प्रधान प्रधान राजाओं का वर्णन किया गया ।