पद्म पुराण-सृष्टिखण्ड-1
सृष्टिखण्ड
श्री व्यासजी के शिष्य परम बुद्धिमान् लोमहर्षण जी ने एकान्त में बैठे हुए [अपने पुत्र] उग्रश्रवा नामक सूत से कहा “बेटा ! तुम ऋषियों के आश्रमों पर जाओ और उनके पूछने पर सम्पूर्ण धर्मों का वर्णन करो । तुमने मुझसे जो संक्षेप में सुना है, वह उन्हें विस्तारपूर्वक सुनाओ । मैंने महर्षि वेदव्यासजी के मुख से समस्त पुराणों का ज्ञान प्राप्त किया है और वह सब तुम्हें बता दिया है । अतः अब मुनियों के समक्ष तुम उसका विस्तार के साथ वर्णन करो । प्रयाग में कुछ महर्षियों ने, जो उत्तम कुलों में उत्पन्न हुए थे, साक्षात् भगवान से प्रश्न किया था । वे यज्ञ करने के योग्य किसी पावन प्रदर्शकों जानना चाहते थे । भगवन् नारायण ही सबके हितैषी है, वे धर्मानुष्ठान की इच्छा रखने वाले उन महर्षियो के पूछने पर बोले – मुनिवरो ! यह सामने जो चक्र दिखायी दे रहा है , इसकी कहीं तुलना नहीं है । इसको नाभि सुन्दर और स्वरूप दिव्य है । यह सत्य की ओर जाने वाला है । इसकी गति सुन्दर एवं कल्याणमयी है । तुम लोग सावधान होकर नियमपूर्वक इसके पीछे – पीछे जाओ । तुम्हें अपने लिये हितकारी स्थान की प्राप्ति होगी । यह धर्ममय चक्र यहाँ से जा रहा है । जाते – जाते जिस स्थान पर इसकी नेमि जीर्ण शीर्ण होकर गिर पड़े, उसी को पुण्यमय प्रदेश समझना ।’ उन सभी महर्षियों से ऐसा कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये और वह धर्म – चक्र नैमिषारण्य के गङ्गावर्त नामक स्थान पर गिरा । तब ऋषियों ने निमि शीर्ण होने के कारण उस स्थानका नाम ‘नैमिष’ रखा और नैमिषारण्य में दीर्घकाल तक चालू रहने वाले यज्ञों का अनुष्ठान आरम्भ कर दिया । वहीं तुम भी जाओ और ऋषियों के पूछने पर उनके धर्म विषयक संशयों का निवारण करो । ” तदनन्तर ज्ञानी उग्रश्रवा पिता की आज्ञा मानकर उन मुनीश्वरों के पास गये तथा उनके चरण पकड़कर हाथ जोड़कर उन्होंने प्रणाम किया । सूतजी बड़े बुद्धिमान् थे , उन्होंने अपनी नम्रता और प्रणाम आदि के द्वारा महर्षियों को सन्तुष्ट किया । वे यश में भाग लेने वाले महर्षि भी सदस्यो सहित बहुत प्रसन्न हुए तथा सबने एकत्रित होकर सूतजी का यथायोग्य आदर – सत्कार किया । ऋषि बोले – देवताओं के समान तेजस्वी सूतजी ! आप कैसे और किस देश से यहाँ आये है ? अपने आनेका कारण बतलाइये । सूतजी ने कहा – महर्षियो ! मेरे बुद्धिमान् पिता व्यास शिष्य लोमहर्षण जी ने मुझे यह आज्ञा दी है कि ‘ तुम मुनियों के पास जाकर उनकी सेवा में रहो और वे जो कुछ पूछे, उसे बताओ ।’ आप लोग मेरे पूज्य हैं । बताइये, मैं कौन – सी कथा कहूँ ! पुराण, इतिहास अथवा भिन्न – भिन्न प्रकार के धर्म जो आज्ञा दीजिये, वही सुनाऊँ । सूतजी का यह मधुर वचन सुनकर वे श्रेष्ठ महर्षि बहुत प्रसन्न हुए । अत्यन्त विश्वसनीय, विद्वान् लोमहर्षण – पुत्र उग्रश्रवा को उपस्थित देख उनके हृदयमें पुराण सुनने की इच्छा जाग्रत् हुई । उस यज्ञ में यजमान थे महर्षि शौनक, जो सम्पूर्ण शास्त्रों के विशेषज्ञ, मेधावी तथा [वेद के] विज्ञानमय आरण्यक – भाग के आचार्य थे । वे सब महर्षियों के साथ श्रद्धा का आश्रय लेकर धर्म सुनने की इच्छासे बोले । शौनक ने कहा — महाबुद्धिमान् सूतजी ! आपने इतिहास और पुराणों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये ब्रह्मज्ञानियों में श्रेष्ठ भगवान् व्यासजीकी भली-भाँति आराधना की है । उनकी पुराण विषयक श्रेष्ठ बुद्धि से आपने अच्छी तरह लाभ उठाया है । महामते ! यहाँ जो ये श्रेष्ठ ब्राह्मण विराजमान हैं, इनका मन पुराणों में लग रहा है । ये पुराण सुनना चाहते हैं । अतः आप इन्हें पुराण सुनाने की ही कृपा करें । ये सभी श्रोता, जो यहाँ एकत्रित हुए हैं, बहुत ही श्रेष्ठ हैं । भिन्न – भिन्न गोत्रों में इनका जन्म हुआ है । ये वेदवादी ब्राह्मण अपने – अपने वंश का पौराणिक वर्णन सुनें । इस दीर्घकालीन यज्ञ के पूर्ण होने तक आप मुनियों को पुराण सुनाइये | महाप्राज्ञ ! आप इन सब लोगों से पद्मपुराण की कथा कहिये । पद्मकी उत्पत्ति कैसे हुई, उससे ब्रह्माजी का आविर्भाव किस प्रकार हुआ तथा कमल से प्रकट हुए ब्रह्माजी ने किस तरह जगत की सृष्टि की- ये सब बातें इन्हें बताइये । उनके इस प्रकार पूछने पर लोमहर्षण – कुमार सूतजी ने सुन्दर वाणी में सूक्ष्म अर्थ से भरा हुआ न्याय युक्त वचन कहा – महर्षियो ! आप लोगों ने जो मुझे पुराण सुनाने की आज्ञा दी है, इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है । यह मुझ पर आपका महान् अनुग्रह है । सम्पूर्ण धर्मो के पालन में लगे रहने वाले पुराणवेत्ता विद्वानो ने जिनकी भली-भाँति व्याख्या की है, उन पुराणोक्त विषयो को मैंने वह देवताओं, ऋषियों तथा अमित तेजस्वी राजाओं की जैसा सुना है, उसी रूप में वह सब आपको सुनाऊँगा । सत्पुरुषों की दृष्टि में सूत जाति का सनातन धर्म यही है कि वंश – परम्पराको धारण करे – उसे याद रखे, तथा इतिहास और पुराणों में जिन ब्रह्मवादी महात्माओं का वर्णन किया गया है, उनकी स्तुति करे ; क्योंकि जब वेनकुमार राजा पृथु का यज्ञ हो रहा था, उस समय सूत और मागध ने पहले – पहल उन महाराज की स्तुति ही की थी । उस स्तुति से सन्तुष्ट होकर महात्मा पृथु ने उन दोनों को वरदान दिया । वरदान में उन्होंने सूत को सूत नामक देश और मागध को मगध का राज्य प्रदान किया था । क्षत्रिय के वीर्य और ब्राह्मणी के गर्भ से जिसका जन्म होता है, वह सूत कहलाता है । ब्राह्मणों ने मुझे पुराण सुनाने का अधिकार दिया है आपने धर्म का विचार करके ही मुझसे पुराण की बातें पूछी हैं ; इसलिये इस भूमण्डल में जो सबसे उत्तम एवं ऋषियों द्वारा सम्मानित पद्मपुराण है, उसकी कथा आरम्भ करता हूँ । श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजी साक्षात् भगवान् नारायण के स्वरूप हैं । वे ब्रह्मवादी, सर्वज्ञ, सम्पूर्ण लोकों में पूजित तथा अत्यन्त तेजस्वी हैं । उन्हीं से प्रकट हुए पुराणों का मैंने अपने पिताजी के पास रहकर अध्ययन किया है । पुराण सब शास्त्रों के पहले से विद्यमान हैं । ब्रह्माजीने [ कल्पके आदिमें ] सबसे पहले पुराणों का ही स्मरण किया था । पुराण त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और काम के साधक एवं परम पवित्र हैं । उनकी रचना सौ करोड़ श्लोकों में हुई है । समय के अनुसार इतने बड़े पुराणों का श्रवण और पठन असम्भव देखकर उनका संक्षेप करनेके लिये प्रत्येक द्वापरयुग में व्यास रूप से अवतार लेते हैं और पुराणोंको अठारह भागों में बाँटकर उन्हें चार लाख श्लोकों में सीमित स्वयं भगवान् कर देते हैं । पुराणोंका यह संक्षिप्त संस्करण ही इस भूमण्डल में प्रकाशित होता है । देव लोकों में आज भी सौ करोड़ श्लोकों का विस्तृत पुराण मौजूद है । अब मैं परम पवित्र पद्मपुराण का वर्णन आरम्भ करता हूँ । उसमें पाँच खण्ड और पचपन हजार श्लोक हैं । पद्मपुराण में सबसे पहले सृष्टिखण्ड है । उसके बाद भूमिखण्ड आता है । फिर स्वर्गखण्ड और उसके पश्चात् पातालखण्ड है । तदनन्तर परम उत्तम उत्तर खण्ड का वर्णन आया है । इतना ही पद्मपुराण है । भगवान की नाभि से जो महान् पद्म ( कमल ) प्रकट हुआ था, जिससे इस जगत्की उत्पत्ति हुई है, उसी के वृत्तान्त का आश्रय लेकर यह पुराण प्रकट हुआ है; इसलिये इसे पद्मपुराण कहते हैं । यह पुगण स्वभाव से ही निर्मल है, उसपर भी इसमें श्री विष्णु भगवान के माहात्म्य का वर्णन होने से इसकी निर्मलता और भी बढ़ गयी है । देवाधिदेव भगवान् विष्णु ने पूर्वकाल में ब्रह्माजी के प्रति जिसका उपदेश किया था तथा ब्रह्माजी ने जिसे अपने पुत्र मरीचि को सुनाया था वही यह पद्मपुराण है । ब्रह्माजीने ही इसे इस जगत में प्रचलित किया है ।
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