पद्मपुराण-2
भीष्म और पुलस्त्यका संवाद – सृष्टि – क्रमका वर्णन तथा भगवान् विष्णुकी महिमा
सूत जी कहते है – महर्षियो ! जो सृष्टिरूप मूल प्रकृति के ज्ञाता तथा इन भावात्मक पदार्थों के द्रष्टा हैं, जिन्होंने इस लोक की रचना की है, जो लोक तत्त्व के ज्ञाता तथा योग वेत्ता हैं, जिन्होंने योग का आश्रय लेकर सम्पूर्ण चराचर जीवों की सृष्टि की है और जो समस्त भूतों तथा अखिल विश्व के स्वामी हैं, उन सच्चिदानन्द परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूँ । फिर ब्रह्मा, महादेव, इन्द्र, अन्य लोकपाल तथा सूर्य देव को एकाग्रचित्त से नमस्कार करके ब्रह्मस्वरूप वेदव्यासजी को प्रणाम करता हूँ । उन्हीं से इस पुराण –विद्या को प्राप्त करके मैं आपके समक्ष प्रकाशित करता हूँ । जो नित्य, सदसत्स्वरूप, अव्यक्त एवं सबका कारण है, वह ब्रह्म ही महत्तस्व से लेकर विशेष पर्यन्त विशाल ब्रह्माण्ड की सृष्टि करता है । यह विद्वानों का निश्चित सिद्धान्त है । सबसे पहले हिरण्यमय ( तेजोमय ) अण्ड में ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ । वह अण्ड सब ओर जल से घिरा है । जल के बाहर तेज का घेरा और तेज के बाहर वायु का आवरण है । वायु आकाश से और आकाश भूतादि तामस अहंकार से घिरा है । अहंकार को महत्तत्त्व ने घेर रखा है और महत्तत्त्व अव्यक्त – मूल प्रकृति से घिरा है । उक्त अण्ड को ही सम्पूर्ण लोकों की उत्पत्ति का आश्रय बताया गया है । इसके सिवा, इस पुराण में नदियों और पर्वतों की उत्पत्ति का बारंबार वर्णन आया है । मन्वन्तरों और कल्पों का भी संक्षेप में वर्णन है । पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने महात्मा पुलस्त्य को इस पुराण का उपदेश दिया था । फिर पुलस्त्य ने इसे गङ्गा द्वार ( हरिद्वार ) में भीष्मजी को सुनाया था । इस पुराण का पठन, श्रवण तथा विशेषतः स्मरण धन, यश और आयु को बढ़ाने वाला एवं सम्पूर्ण पापों का नाश करनेवाला है । जो द्विज अङ्गों और उपनिषदो सहित चारों वेदों का ज्ञान रखता है, उसकी अपेक्षा वह अधिक विद्वान् है जो केवल इस पुराण का ज्ञाता है । इतिहास और पुराणों के सहारे ही वेद की व्याख्या करनी चाहिये, क्योंकि वेद अल्पश विद्वान से यह सोचकर डरता रहता है कि कहीं यह मुझपर प्रहार न कर बैठे– अर्थ का अनर्थ न कर बैठे । तात्पर्य यह कि पुराणों का अध्ययन किये बिना वेदार्थ का ठीक – ठीक शान नहीं होता । यह सुनकर ऋषियों ने सूतजी से पूछा – ‘मुने ! भीष्म जी के साथ पुलस्त्य ऋषि का समागम कैसे हुआ ? पुलस्त्य मुनि तो ब्रह्माजी के मानस पुत्र हैं । मनुष्यों को उनका दर्शन होना दुर्लभ है । महाभाग ! भीष्मजी को जिस स्थान पर और जिस प्रकार पुलस्त्य जी का दर्शन हुआ, वह सब हमें बतलाइये । ‘सूतजीने कहा- महात्माओ ! साधुओं का हित करने वाली विश्व पावनी महाभागा गङ्गाजी जहाँ पर्वत– मालाओं को भेदकर बड़े वेग से बाहर निकली हैं, वह महान् तीर्थ गङ्गाद्वार के नाम से विख्यात है । पितृभक्त भीष्मजी वहीं निवास करते थे । वे ज्ञानोपदेश सुनने की इच्छा से बहुत दिनों से महापुरुषों के नियम का पालन करते थे । स्वाध्याय और तर्पण के द्वारा देवताओं और पितरों की तृप्ति तथा अपने शरीर का शोषण करते हुए भीष्मजी के ऊपर भगवान् ब्रह्मा बहुत प्रसन्न हुए । वे अपने पुत्र मुनिश्रेष्ठ पुलस्त्यजी से इस प्रकार बोले – बेटा ! तुम कुरुवंश का भार वहन करने वाले वीरवर देवव्रत के, जिसे भीष्म भी कहते हैं, समीप जाओ उन्हें तपस्या से निवृत करो और इसका कारण भी बतलाओ । महाभाग भीष्म अपनी पितृभक्ति के कारण भगवान का ध्यान करते हुए गजाद्वार में निवास करते हैं । उनके मन में जो -जो कामना हो, उसे शीघ्र पूर्ण करो; विलम्ब नहीं होना चाहिये । ‘पितामह का वचन सुनकर मुनिवर पुलस्त्य जी गङ्गा द्वार में आये और भीष्मजी से इस प्रकार बोले- वीर ! तुम्हारा कल्याण हो; तुम्हारे मन में जो इच्छा हो, उसके अनुसार कोई वर माँगो । तुम्हारी तपस्या से साक्षात् भगवान् ब्रह्माजी प्रसन्न हुए हैं । उन्होंने ही मुझे यहाँ भेजा है । मैं तुम्हें मनोवाञ्छित वरदान दूंगा । ‘पुलस्त्यजी का वचन मन और कानों को सुख पहुँचाने वाला था । उसे सुनकर भीष्म ने आँखें खोल दी और देखा पुलस्त्यजी सामने खड़े हैं । उन्हें देखते ही भीष्मजी उनके चरणों पर गिर पड़े । उन्होंने अपने सम्पूर्ण शरीर से पृथ्वी का स्पर्श करते हुए उन मुनिश्रेष्ठ को साष्टाङ्ग प्रणाम किया और कहा – भगवन् ! आज मेरा जन्म सफल हो गया । यह दिन बहुत ही सुन्दर है । क्योंकि आज आपके विश्ववन्द्य चरणों का मुझे दर्शन प्राप्त हुआ है । आज आपने दर्शन दिया और विशेषतः मुझे वरदान देने के लिये गङ्गाजी के तटपर पदार्पण किया: इतने से ही मुझे अपनी तपस्या का सारा फल मिल गया । यह कुशकी चटाई है, इसे मैंने अपने हाथों बनाया है और [ जहाँतक हो सका है ] इस बात का भी प्रयत्न किया है कि यह बैठने वाले के लिये आराम देने वाली हो; अतः आप इसपर विराजमान हों । यह पलाश के दोने में अर्घ्य प्रस्तुत किया गया है । इसमें दूब, चावल, फूल, कुश, सरसों, दही, शहद, जौ और दूध भी मिले हुए हैं । प्राचीन काल के ऋषियों ने यह अष्टाङ्ग अर्घ्य ही अतिथि को अर्पण करने योग्य बतलाया है ।’ अमित तेजस्वी भीष्म के ये वचन सुनकर ब्रह्माजी के पुत्र पुलस्त्यमुनि कुशासन पर बैठ गये । उन्होंने बड़ी प्रसन्नता के साथ पाद्य और अर्घ्य स्वीकार किया । भीष्मजी के शिष्टाचार से उन्हें बड़ा सन्तोष हुआ । वे प्रसन्न होकर बोले – ‘महाभाग ! तुम सत्यवादी, दानशील और सत्यप्रतिज्ञ राजा हो । तुम्हारे अंदर लज्जा, मैत्री और क्षमा आदि सद्गुण शोभा पा रहे हैं । तुम अपने पराक्रम से शत्रुओं को दमन करने में समर्थ हो । साथ ही धर्मश, कृतज्ञ, दयालु, मधुरभाषी, सम्मान के योग्य पुरुषों को सम्मान देनेवाले, विद्वान्, ब्राह्मणभक्त तथा साधुओं पर स्नेह रखने वाले हो । वत्स ! तुम प्रणाम पूर्वक मेरी शरण आये हो; अतः मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ । तुम जो चाहो, पूछो; मैं तुम्हारे प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दूंगा । ‘भीष्मजी ने कहा- भगवन् ! पूर्वकाल में भगवान् ब्रह्माजी ने किस स्थान पर रहकर देवताओं आदि की सृष्टि की थी, यह मुझे बताइये । उन महात्मा ने कैसे ऋषियों तथा देवताओं को उत्पन्न किया ? कैसे पृथ्वी बनायी ! किस तरह आकाश की रचना की और किस प्रकार इन समुद्रो को प्रकट किया ? भयङ्कर पर्वत, वन और नगर कैसे बनाये ! मुनियों, प्रजापतियों, श्रेष्ठ सप्तर्षियों और भिन्न – भिन्न वर्गों को, वायु को, गन्धवों, यक्षों, राक्षसों, तीयों, नदियों, सूर्यादि ग्रहों तथा तारो को भगवान् ब्रह्मा ने किस तरह उत्पन्न किया ? इन सब बातों का वर्णन कीजिये । पुलस्त्यजी ने कहा -पुरुषश्रेष्ठ ! भगवान् ब्रह्मा साक्षात् परमात्मा हैं । ये पर से भी पर तथा अत्यन्त श्रेष्ठ हैं । उनमें रूप और वर्ण आदि का अभाव है । वे यद्यपि सर्वत्र व्याप्त हैं, तथापि ब्रह्मरूप से इस विश्व की उत्पत्ति करने के कारण विद्वानों के द्वारा ब्रह्मा कहलाते हैं । उन्होंने पूर्वकाल में जिस प्रकार सृष्टि – रचना की, वह सब मैं बता रहा हूँ । सुनो, सृष्टि के प्रारम्भ काल में जब जगत के स्वामी ब्रह्माजी कमल के आसन से उठे, तब सबसे पहले उन्होंने महत्तत्त्व को प्रकट किया फिर महत्तत्त्व से वैकारिक (सात्त्विक), तेजस (राजस) तथा भूतादि रूप तामस – तीन प्रकार का अहङ्कार उत्पन्न हुआ, जो कर्मेन्द्रियो सहित पाँचों शानेन्द्रियों तथा पञ्चभूतों का कारण है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – ये पाँच भूत हैं । इनमें से एक – एक के स्वरूप का क्रमशः वर्णन करता हूँ । भूतादि नामक तामस अहङ्कार ने विकृत होकर शब्द – तन्मात्रा को उत्पन्न किया, उससे शब्द गुणवाले आकाश का प्रादुर्भाव हुआ । भूतादि (तामस अहङ्कार) ने शब्द– तन्मात्रा रूप आकाश को सब ओर से आच्छादित किया । तब शब्द – तन्मात्रा रूप आकाश ने विकृत होकर स्पर्श – तन्मात्रा की रचना की । उससे अत्यन्त बलवान् वायु का प्राकट्य हुआ, जिसका गुण स्पर्श माना गया है । तदनन्तर आकाश से आच्छादित होने पर वायु– तत्त्व में विकार आया और उसने रूप– तन्मात्रा की सृष्टि की । वह वायु से अनिके रूप में प्रकट हुई । रूप उसका गुण कहलाता है । तत्पश्चात् स्पर्श – तन्मात्रा वाले वायु ने रूप– तन्मात्रा वाले तेजको सब ओर से आवृत किया । इससे अमित– तत्त्व ने विकार को प्राप्त होकर रस – तन्मात्रा को उत्पन्न किया । उससे जल की उत्पत्ति हुई, जिसका गुण रस माना गया है । फिर रूप तन्मात्रा वाले तेज ने रस – तन्मात्रा रूप जल – तत्त्व को सब ओर से आच्छादित किया । इससे विकृत होकर जलतत्त्व ने गन्ध तन्मात्रा की सृष्टि की, जिससे यह पृथ्वी उत्पन्न हुई । पृथ्वी का गुण गन्ध माना गया है । इन्द्रियाँ तैजस कहलाती हैं [ क्योंकि वे राजस अहङ्कार से प्रकट हुई हैं ] । इन्द्रियों के अधिष्ठाता दस देवता वैकारिक कहे गये हैं [ क्योंकि उनकी उत्पत्ति सात्त्विक अहङ्कार से हुई है ] । इस प्रकार इन्द्रियों के अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवाँ मन – ये वैकारिक माने गये हैं । त्वचा, चक्षु, नासिका, जिला और श्रोत्र- ये पाँच इन्द्रियाँ शब्दादि विषयों का अनुभव कराने के साधन हैं । अतः इन पाँचों को बुद्धियुक्त अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं । गुदा, उपस्थ, हाथ, पैर और वाक् – ये क्रमशः मलत्याग, मैथुनजनित सुख, शिल्पनिर्माण (हस्तकौशल), गमन और शब्दोच्चारण – इन कमों में सहायक हैं । इसलिये इन्हें कर्मेन्द्रिय माना गया है । वीर ! आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी – ये क्रमशः शब्दादि उत्तरोत्तर गुणों से युक्त हैं अर्थात् आकाश का गुण शब्द; वायु के गुण शब्द और स्पर्श, तेज के गुण शब्द, स्पर्श और रूप; जल के शब्द, स्पर्श, रूप और रस तथा पृथ्वी के शब्द, स्पर्श, रूप, रस एवं गन्ध – ये सभी गुण हैं । उक्त पाँचों भूत शान्त, घोर और मूढ़ हैं । अर्थात् सुख, दुःख और मोह से युक्त है । अतः ये विशेष कहलाते हैं । ये पाँचौँ भूत अल्पा – अलग रहने पर भिन्न – भिन्न प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न हैं । अतः परस्पर संगठित हुए बिना – पूर्णतया मिले बिना ये प्रजा की मुष्टि करने में समर्थ न हो सके । इसलिये [ परमपुरुष परमात्मा ने संकल्प के द्वारा इनमें प्रवेश किया । फिर तो ] महत्तत्त्व से लेकर विशेषपर्यन्त सभी तत्त्व पुरुष द्वारा अधिष्ठित होने के कारण पूर्णरूप से एकत्य को प्राप्त हुए । इस प्रकार परस्पर मिलकर तथा एक दूसरे का आभय ले उन्होंने अण्ड की उत्पत्ति की । भीष्मजी | उस अण्ड में ही पर्वत और दीप आदि के सहित समुद्र, ग्रहों और तारों सहित सम्पूर्ण लोक तथा देवता, असुर और मनुष्यो सहित समस्त प्राणी उत्पन्न हुए हैं । वह अण्ड पूर्व पूर्वकी अपेक्षा दस गुने अधिक जल, अग्नि, वायु, आकाश और भूतादि अर्थात् तामस अहङ्कार से आवृत है । भूतादि महत्तत्त्व से घिरा है । तथा इन सबके सहित महत्तत्त्व भी अव्यक्त (प्रधान या मूल प्रकृति) के द्वारा आवृत है । भगवान् विष्णु स्वयं ही बझा होकर संसार की सष्टि में प्रपत्त होते हैं तथा जब तक काकी खिति बनी रहती है, तब तक वे ही युग- युग में अवतार धारण करके समूची सष्टि की रक्षा करते हैं । वे विष्णु सत्त्वगुण धारण किये रहते हैं । उनके पराकम की कोई सीमा नहीं है । राजेन्द्र ! जब कल्प का अन्त होता है, तब वे ही अपना तमःप्रधान रौद्र रूप प्रकट करते हैं और अत्यन्त भयानक आकार धारण करके सम्पूर्ण प्राणियों का संहार करते हैं । इस प्रकार सब भूतों का नाश करके संसार को एकार्णव के जल में निमग्न कर वे सर्वरूपधारी भगवान् स्वयं शेषनाग की शय्या पर शयन करते हैं । फिर जागने पर ब्रह्मा का रूप धारण करके वे नये सिरे से संसार की सृष्टि करने लगते हैं । इस तरह एक ही भगवान् जनार्दन सृष्टि, पालन और संहार करने के कारण ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव नाम धारण करते हैं । वे प्रभु स्रष्टा होकर स्वयं अपनी ही सृष्टि करते हैं पालक होकर पालनीय रूप से अपना ही पालन करते हैं और संहारकारी होकर स्वयं अपना ही संहार करते पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – सब वे ही हैं; क्योंकि अविनाशी विष्णु ही सब भूतों के ईश्वर और विश्वरूप हैं । इसलिये प्राणियों में स्थित सर्ग आदि भी उन्हींके सहायक हैं ।
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