पद्मपुराण पेज -3

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पद्मपुराण पेज -3

यज्ञके लिये ब्राह्मणादि वर्णों तथा अन्नकी सृष्टि, मरीचि आदि प्रजापति, रुद्र तथा स्वायम्भुव मनु आदिकी उत्पत्ति और उनकी संतान – परम्पराका वर्णन

भीष्मजी ने कहा – बझन् ! आपने अक्सिोत नामक सर्गका जो मानव सर्ग के नाम से भी प्रसिद्ध है , संक्षेप से वर्णन किया , अब उसीको विस्तार के साथ कहिये । ब्रह्माजी ने मनुष्यो की सष्टि किस प्रकार की ? महामुने ! प्रजापति ने चारों वों तथा उनके गुणो को कैसे उत्पन्न किया और ब्राह्मणादि वों के कौन – कौन – से कर्म माने गये हैं । इन सब बातों का वर्णन कीजिये । पुलस्त्यजी बोले – कुरुश्रेष्ठ ! सृष्टि की इच्छा रखनेवाले ब्रह्माजी ने ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र – इन चार वर्णो को उत्पन्न किया । इनमें ब्राह्मण मुखसे , क्षत्रिय वक्षः स्थल से वैश्य जाँघोंसे और शूद्र ब्रह्माजी के पैरोंसे उत्पन्न हुए महाराज ! ये चारों वर्ण यश के उत्तम साधन हैं । अतः ब्रह्माजी ने यशानुष्ठान की सिद्धि के लिये ही इन सबकी सृष्टि की । यज्ञ से तृप्त होकर देवता लोग जल की तृष्टि करते हैं जिससे मनुष्यों की भी तृप्ति होती है । अतः धर्ममय यज्ञ सदा ही कल्याण का हेतु है । जो लोग सदा अपने वर्णोचित कर्म में लगे रहते हैं , जिन्होंने धर्म – विरुद्ध आचरणों का परित्याग कर दिया है तथा जो सन्मार्गपर चलने वाले हैं , वे श्रेष्ठ मनुष्य ही यज्ञ का यथावत् अनुष्ठान करते हैं । राजन् ! [ यज्ञके द्वारा ] मनुष्य इस मानव देह के त्याग के पश्चात् स्वर्ग और अपवर्ग भी प्राप्त कर सकते है तथा और भी जिस – जिस स्थान को पाने की उन्हें इच्छा हो , उसी उसीमें वे जा सकते हैं । नृपश्रेष्ठ ! ब्रह्माजी के द्वारा चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के अनुसार रची हुई प्रजा उत्तम श्रद्धाके साथ श्रेष्ठ आचार का पालन करने लगी । वह इच्छानुसार जहाँ चाहती, रहती थी । उसे किसी प्रकार की बाधा नहीं सताती थी । समस्त प्रजाका अन्तःकरण शुद्ध था । वह स्वभावसे ही परम पवित्र थी । धर्मानुष्ठानके कारण उनकी पवित्रता और भी बढ़ गयी थी । प्रजाओंके पवित्र अन्तःकरणमें भगवान् श्रीहरिका निवास होने के कारण सबको शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था , जिससे सब लोग श्रीहरिके ‘ परब्रह्म ‘ नामक परमपदका साक्षात्कार कर लेते थे । तदनन्तर प्रजा जीविका के साधन उद्योग – धंधे और खेती आदिका काम करने लगी । राजन् ! धान , जौ , गेहूँ , छोटे धान्य , तिल , कँगनी , ज्वार , कोदो , चेना , उड़द , मूंग , मसूर , मटर , कुलथी , अरहर , चना और सन – ये सत्रह ग्रामीण अन्नोंकी जातियाँ हैं । ग्रामीण और जंगली दोनों प्रकारके मिलाकर चौदद अन्न यशके उपयोगमें आनेवाले माने गये हैं । उनके नाम ये हैं – धान , जौ , उड़द , गेहूँ , महीन धान्य , तिल , सातवीं कैंगनी और आठवीं कुलथी ये ग्रामीण अन्न हैं तथा साँयाँ , तिन्नीका चावल , जर्तिल ( बनतिल ) , गवेधु , वेणुयव और मक्का – ये छः जंगली अन्न हैं । ये चौदह अन्न यशानुष्ठानकी सामग्री हैं तथा यज्ञ ही इनकी उत्पत्तिका प्रधान हेतु है । यशके साथ ये अन्न प्रजाकी उत्पत्ति और वृद्धि के परम कारण हैं । इसलिये इहलोक और परलोकके शाता विद्वान् पुरुष इन्हींके द्वारा यज्ञोका अनुष्ठान करते रहते हैं । नृपश्रेष्ठ ! प्रतिदिन किया जानेवाला यजानुष्ठान मनुष्योका परम उपकारक तथा उन्हें शान्ति प्रदान करनेवाला होता है । [ कृषि आदि जीविकाके साधनोंके सिद्ध हो जानेपर ] प्रजापतिने प्रजाके स्थान और गुणों के अनुसार उनमें धर्म मर्यादाकी स्थापना की । फिर वर्ण और आश्रमों के पृथक् पृथक् धर्म निश्चित किये तथा स्वधर्मका भलीभाँति पालन करनेवाले सभी वर्गों के लिये पुण्यमय लोकोंकी रचना की । योगियोंको अमृतवरूप ब्रह्मधामकी प्राप्ति होती है , जो परम पद माना गया है । जो योगी सदा एकान्तमें रहकर यत्नपूर्वक ध्यानमें लगे रहते हैं , उन्हें वह उत्कृष्ट पद प्राप्त होता है , जिसका ज्ञानीजन ही साक्षात्कार कर पाते हैं । तामिस्र , अन्धतामित्र , महारौरव , रौरव , घोर , असिपत्रवन , कालसूत्र और अवीचिमान् आदि जो नरक हैं , वे वेदोंकी निन्दा , यज्ञोका उच्छेद तथा अपने धर्मका परित्याग करनेवाले पुरुषोंके स्थान बताये गये हैं । ब्रह्माजीने पहले मनके संकल्पसे ही चराचर प्राणियोंकी सृष्टि की ; किन्तु जब इस प्रकार उनकी मारी प्रजा [ पुत्र , पौत्र आदिके क्रमसे ] अधिक न बढ़ सकी , तब उन्होंने अपने ही सदृश अन्य मानस पुत्रोंको उत्पन्न किया । उनके नाम हैं – भृगु , पुलह , ऋतु , अङ्गिरा , मरीचि , दक्ष , अत्रि और वसिष्ठ । पुराणमें ये नौ ब्रह्मा निश्चित किये गये हैं । इन भृगु आदिके भी पहले जिन सनन्दन आदि पुषौको ब्रह्माजीने जन्म दिया था , उनके मनमें पुष उत्पन्न करनेकी इच्छा नहीं हुरी इसलिये वे सरि – रचनाके कार्यमें नहीं फंसे । उन सबको खभावतः विशानकी प्राति हो गयी थी । वे मात्सर्व आदि दोषोंसे रहित और वीतराग थे । इस प्रकार संसारकी दृष्टिके कार्यसे उनके उदासीन हो जानेपर महात्मा ब्रह्माजीको महान् क्रोध हुआ , उनकी भौहें तन गयी और ललाट क्रोधसे उद्दीप्त हो उठा । इसी समय उनके ललाटसे मध्याह्नकालीन सूर्यके समान तेजस्वी कद्र प्रकट हुए । उनका आधा शरीर खौका था और आधा पुरुषका । चे बड़े प्रचण्ड थे और उनका शरीर बड़ा विशाल था । तब ब्रह्माजी उनी यह आदेश देकर कि ‘ तुम अपने शरीरके दो भाग करो ‘ वहाँसे अन्तर्धान हो गये । उनके ऐसा कहनेपर रुद्रने अपने शरीरके स्त्री और पुरुषरूप दोनो भागोंको पृषक् कर दिया और फिर पुरुष भागको ग्यारह रूपों में विभक्त किया । इसी प्रकार श्रीभागको भी अनेकों रूपोंने प्रकट किया । खी और पुरुष दोनों भागोंके वे भिन्न – भिन्न रूप , सौम्प , कूर , शान्त , श्याम और गौर आदि नाना प्रकारके थे । तत्पश्चात् ब्रह्माजीने अपनेसे उत्पन्न , अपने ही स्वरूपभूत स्वायम्भुवको प्रजापालनके लिये प्रथम मनु बनाया । स्वायम्भुष मनुने शतरूपा नामकी स्त्रीको , जो तपस्याके कारण पापरहित थी , अपनी पत्नी के रूपमें स्वीकार किया । देवी शतरूपाने स्वायम्भुव मनुसे दो पुत्र और दो कन्याओंको जन्म दिया । पुत्रोंके नाम थे — प्रियवत और उत्तानपाद तथा कन्याएँ प्रसूति और आकूतिकै नामसे प्रसिद्ध हुई । मनुने प्रतिका विवाह दक्षके साथ और आकृतिका रुचि प्रजापतिके साथ , कर दिया । दक्षने प्रतिके गर्भसे चौबीस कन्याएँ उत्पन्न की । उनके नाम है – श्रद्धा , लक्ष्मी , धृति , पुष्टि , तुष्टि , मेधा , किया , बुद्धि , लजा , वपु , शान्ति , सिद्धि और तेरहवीं कीर्ति । इन दक्ष कन्याओंको भगवान् धर्मने अपनी पत्नियोंके रूपमै प्रहण किया । इनसे छोटी ग्यारह कन्याएँ और थी , जो ख्याति , सती , सम्भूति , स्मृति , प्रीति , क्षमा , सन्नति , अनसूया , ऊर्जा , स्वाहा और स्वधा नामसे प्रसिद्ध हुई । नृपश्रेष्ठ ! इन ख्याति आदि कन्याओंको क्रमशः भगु , शिव , मरीचि , अङ्गिरा और मैने ( पुलस्त्य ) तथा पुलह , ऋतु , अत्रि , वसिष्ठ , अनि तथा पितरोने प्रहण किया । श्रद्धाने कामको , लक्ष्मीने दर्षको , धृतिने नियमको , तटिने सन्तोषको और पुष्टिने लोभको जन्म दिया । मेधाने श्रुतको , क्रियाने दण्ड , नय और विनयको , बुद्धिने बोधको , लजाने विनयको , वपुने अपने पुत्र व्यवसायको , शान्तिने क्षेमको , सिद्धिने सुखको और कीर्तिने यशको उत्पन्न किया । ये ही धर्मके पुत्र हैं । कामसे उसकी पत्नी नन्दीने हर्ष नामक पुत्रको जन्म दिया , यह धर्मका पौत्र था । भृगुकी पत्नी ख्यातिने लक्ष्मीको जन्म दिया , जो देवाधिदेव भगवान् नारायणकी पत्नी हैं । भगवान् रुद्रने दक्षसुता सतीको पत्नीरूपमें ग्रहण किया , जिन्होंने अपने पितापर खीझकर शरीर त्याग दिया । पुत्र और निकृति नाम वाली कन्या की उत्पत्ति हुई । फिर उन दोनो ने भय और नरक नामक पुत्र और माया तथा वेदना नामकी कन्याओंको उत्पन्न किया । माया भयकी और वेदना नरककी पत्नी हुई । उनमेले मायाने समस्त प्राणियोंका संहार करनेवाले मृत्यु नामक पुत्रको जन्म दिया और वेदना से नरकके अंशसे दुःखकी उत्पत्ति हुई । फिर मृत्युसे व्याधि , जरा , शोक , तृष्णा और क्रोधका जन्म हुआ । ये सभी अधर्मस्वरूप हैं और दुःखोत्तर नामसे प्रसिद्ध हैं । इनके न कोई स्त्री है न पुत्र । ये सब – के – सब नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं । राजकुमार भीष्म | ये ब्रह्माजीके रौद्र रूप हैं और ये ही संसारके नित्य प्रलय में कारण होते हैं ।