पद्मपुराण ‘ पेज -4’
लक्ष्मीजी के प्रादुर्भाव की कथा, समुद्र-मंथन औरअमृत-प्राप्ति
भीष्मजी ने कहा – मुने ! मैंने तो सुना था लक्ष्मी जी क्षीर – समुद्र से प्रकट हुई है । फिर आपने यह कैसे कहा कि भृगु की पत्नी ख्याति के गर्भ से उत्पन्न हुई ? पुलस्त्यजी बोले – राजन् ! तुमने मुझ से जो प्रशन किया है , उसका उत्तर सुनो । लक्ष्मीजी के जन्म का सम्बन्ध समुद्र से है यह बात मैंने भी ब्रह्माजी के मुख से सुन रखी है । एक समय की बात है, दैत्यों और दानवों ने बड़ी भारी सेना लेकर देवताओं पर चढ़ाई की । उस युद्ध में दैत्यों के सामने देवता परास्त हो गये । तब इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अग्नि को आगे करके ब्रह्माजी की शरण में गये । वहाँ उन्होंने अपना सारा हाल ठीक – ठीक कह सुनाया । ब्रह्माजी ने कहा – ‘ तुम लोग मेरे साथ भगवान की शरण में चलो । ‘ यह कहकर वे सम्पूर्ण देवताओं को साथ ले क्षीर – सागर के उत्तर – तट पर गये और भगवान् वासुदेव को सम्बोधित करके बोले – ‘ विष्णो ! शीघ्र उठिये और इन देवताओं का कल्याण कीजिये । आपकी सहायता न मिलने से दानव इन्हें बारंबार परास्त करते हैं । ‘ उनके ऐसा कहने पर कमल के समान नेत्रवाले भगवान् अन्त मी पुरुषोत्तम ने देवताओं के शरीर को अपूर्व अवस्था देखकर कहा – देवगण ! मैं तुम्हारे तेज की वृद्धि करूँगा । मैं जो उपाय बतलाता हूँ , उसे तुम लोग करो । दैत्यों के साथ मिलकर सब प्रकार की ओषधियाँ ले आओ और उन्हें क्षीर सागर में डाल दो । फिर मन्दराचल को मथानी और वासुकि नाग को नेती ( रस्सी ) बनाकर समुद्र का मन्थन करते हुए उससे अमन निकालो । इस कार्य में मैं तुम लोगों की सहायता करूँगा । समुद्र का मन्थन करने पर जो अमृत निकलेगा, उसका पान करने से तुम लोग बलवान् और अमर हो जाओगे । ‘
देवाधिदेव भगवान के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गये । देव , दानव और दैत्य सब मिलकर सब प्रकार की ओषधियाँ ले आये और उन्हें क्षीर – सागर में डालकर मन्दराचल को मथानी एवं वासुकि नागको नेती बनाकर बड़े वेग से मन्थन करने लगे । भगवान् विष्णु की प्रेरणा से सब देवता एक साथ रहकर वासुकि की पूंछकी ओर हो गये और दैत्यों को उन्होंने वासुकि के सिर की ओर खड़ा कर दिया । भीष्मजी ! वासुकि के मुखकी साँस तथा विषाग्नि से झुलस जानेके कारण सब दैत्य निस्तेज हो गये । क्षीर – समुद्र के बीच में ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवान् ब्रह्मा तथा महातेजस्वी महादेव जी कच्छप रूपधारी श्रीविष्णुभगवान् की पीठपर खड़े हो अपनी भुजाओं से कमल की भाँति मन्दराचल को पकड़े हुए थे तथा स्वयं भगवान् श्रीहरि कूर्मरूप धारण करके क्षीर – सागरके भीतर देवताओं और दैत्योंके बीच में स्थित थे । [ वे मन्दराचल को अपनी पीठ पर लिये डूबने से बचाते थे । ] तदनन्तर जब देवता और दानवों ने क्षीर – समुद्र का मन्थन आरम्भ किया , तब पहले – पहल उससे देवपूजित सुरभि ( कामधेनु ) का आविर्भाव हुआ , जो हविष्य ( घी – दूध ) की उत्पत्ति का स्थान मानी गयी है । तत्पश्चात् वारुणी ( मदिरा ) देवी प्रकट हुई , जिसके मदभरे नेत्र घूम रहे थे । वह पग – पग पर लड़खड़ाती चलती थी । उसे अपवित्र मानकर देवताओंने त्याग दिया । तब वह असुरोंके पास जाकर बोली – दानवो ! मैं बल प्रदान करने वाली देवी हूँ , तुम मुझे ग्रहण करो । ” दैत्यों ने उसे ग्रहण कर लिया । इसके बाद पुनः मन्थन आरम्भ होनेपर पारिजात ( कल्पवृक्ष ) उत्पन्न हुआ , जो अपनी शोभा से देवताओं का आनन्द बढ़ाने वाला था । तदनन्तर साठ करोड़ अप्सराएँ प्रकट हुई , जो देवता और दानवों की सामान्य रूप से भोग्या हैं । जो लोग पुण्य कर्म करके देवलोक में जाते हैं , उनका भी उनके ऊपर समान अधिकार होता है । अप्सराओं के बाद शीतल किरणों वाले चन्द्रमा का प्रादुर्भाव हुआ , जो देवताओं को आनन्द प्रदान करने वाले थे । उन्हें भगवान् शङ्करने अपने लिये माँगते हुए कहा – ‘ देवताओ ! ये चन्द्रमा मेरी जटाओं के आभूषण होंगे , अतः मैंने इन्हें ले लिया । ‘ ब्रह्माजी ने ‘ बहुत अच्छा ‘ कहकर शङ्करजी की बात का अनुमोदन किया । तत्पश्चात् कालकूट नामक भयङ्कर विष प्रकट हुआ , उससे देवता और दानव सबको बड़ी पीड़ा हुई । तब महादेवजी ने स्वेच्छासे उस विष को लेकर पी लिया । उसके पीने से उनके कण्ठ में काला दाग पड़ गया , तभी से वे महेश्वर नीलकण्ठ कहलाने लगे । क्षीर – सागर से निकले हुए उस विष का जो अंश पीने से बच गया था , उसे नागों ( सपा ) ने ग्रहण कर लिया । तदनन्तर अपने हाथ में अमृत से भरा हुआ कमण्डलु लिये धन्वन्तरिजी प्रकट हुए । वे श्वेतवस्त्र धारण किये हुए थे । वैद्यराज के दर्शनसे सबका मन स्वस्थ एवं प्रसन्न हो गया । इसके बाद उस समुद्र से उच्चैःश्रवा घोड़ा और ऐरावत नामका हाथी-ये दोनों क्रमशः प्रकट हुए । इसके पक्षात् क्षीरसागर से लक्ष्मीदेवी का प्रादुर्भाव हुआ , जो खिले कमल पर विराजमान थीं और हाथ में कमल लिये या उनकी प्रभा चारों ओर छिटक रही थी । उस समय महर्षियों ने श्रीसूक्त का पाठ करते हुए बड़ी प्रसन्नता के उनका स्तवन किया । साक्षात् क्षीर – समुद्र ने [ दिव्य पुरुषों रूप में ] प्रकट होकर लक्ष्मीजी को एक सुन्दर माला भेंट की , जिसके कमल कभी मुरझाते नहीं थे । विश्वकर्मा ने उनके समस्त अङ्गों में आभूषण पहना दिये । स्नान के पश्चात् दिव्य माला और दिव्य वस्त्र धारण करके जब वे सब प्रकार के आभूषणों से विभूषित हुई , तब इन्द्र आदि देवता तथा विद्याधर आदि ने भी उन्हें प्राप्त करनेकी इच्छा की । तब ब्रह्माजीने भगवान् विष्णु से कहा — ‘ वासुदेव ! मेरे द्वारा दी हुई इस लक्ष्मीदेवी को आप ही ग्रहण करें । मैंने देवताओं और दानवों को मना कर दिया है — वे इन्हें पानेकी इच्छा नहीं करेंगे । आपने जो स्थिरता पूर्वक इस समुद्र – मन्थन के कार्यको सम्पन्न किया है , इससे आप पर मैं सन्तुष्ट हूँ । ‘ यों कहकर ब्रह्माजी लक्ष्मीजी से बोले – ‘ देवि ! तुम भगवान् केशव के पास जाओ । मेरे दिये हुए पति को पाकर अनन्त वर्षों तक आनन्द का उपभोग करो । ‘ ब्रह्माजी के ऐसा कहने पर लक्ष्मीजी समस्त देवताओं के देखते – देखते श्रीहरि के वक्षःस्थल में चली गयीं और भगवान् से बोलीं — ‘ देव ! आप कभी मेरा परित्याग न करें । सम्पूर्ण जगत् के प्रियतम ! मैं सदा आपके आदेश का पालन करती आपके वक्षःस्थल में निवास करूँगी । ‘ यह कहकर लक्ष्मीजी ने कृपापूर्ण दृष्टि से देवताओं की ओर देखा , इससे उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई । इधर लक्ष्मी से परित्यक्त होने पर दैत्यों को बड़ा उद्वेग हुआ । उन्होंने झपटकर धन्वन्तरि के हाथ से अमृत का पात्र छीन लिया । तब विष्णु ने माया से सुन्दरी स्त्री का रूप धारण करके दैत्यों को लुभाया और उनके निकट जाकर कहा – ‘ यह अमृत का कमण्डलु मुझे दे दो । ‘ त्रिभुवन सुन्दरी रूपवती नारी को देखकर दैत्यों का चित्त काम के वशीभूत हो गया । उन्होंने चुपचाप वह अमृत उस सुन्दरी के हाथमें दे दिया और स्वयं उसका मुँह ताकने लगे । दानवों से अमृत लेकर भगवान् ने देवताओं को दे दिया , और इन्द्र आदि देवता तत्काल उस अमृत को पी गये । यह देख दैत्यगण भाँति – भाँति के अस्त्र – शस्त्र और तलवारें हाथ में लेकर देवताओं पर टूट पड़े , परन्तु देवता अमृत पीकर बलवान् हो चुके थे , उन्होंने दैत्य – सेना को परास्त कर दिया । देवताओं की मार पड़ने पर दैत्यों ने भागकर चारों दिशाओं की शरण ली और कितने ही पाताल में घुस गये । तब सम्पूर्ण देवता आनन्दमग्न हो शङ्ख , चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान् श्रीविष्णु को प्रणाम करके स्वर्ग लोक को चले गये । तबसे सूर्यदेव की प्रभा स्वच्छ हो गयी । वे अपने मार्ग से चलने लगे । भगवान् अग्निदेव भी मनोहर दीप्ति से युक्त हो प्रज्वलित होने लगे तथा सब प्राणियों का मन धर्म में संलग्न रहने लगा । भगवान् विष्णु से सुरक्षित होकर समस्त त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी । उस समय समस्त लोकों को धारण करने वाले ब्रह्माजीने देवताओं से कहा — ‘ देवगण ! मैंने तुम्हारी रक्षाके लिये भगवान् श्रीविष्णु को तथा देवताओं के स्वामी उमापति महादेवजी को नियत किया है । वे दोनों तुम्हारे योगक्षेम का निर्वाह करेंगे । तुम सदा उनकी उपासना करते रहना ; क्योंकि वे तुम्हारा कल्याण करने वाले हैं । उपासना करने से ये दोनों महानुभाव सदा तुम्हारे क्षेम के साधक और वरदायक होंगे । ‘ यों कहकर भगवान् ब्रह्मा अपने धाम को चले गये । उनके जाने के बाद इन्द्र ने देवलोक की राह ली । तत्पश्चात् श्रीहरि और शङ्करजी भी अपने – अपने धाम – वैकुण्ठ एवं कैलास में जा पहुँचे । तदनन्तर देवराज इन्द्र तीनों लोकों की रक्षा करने लगे । महाभाग ! इस प्रकार लक्ष्मीजी क्षीरसागर से प्रकट हुई थीं यद्यपि वे सनातनी देवी हैं , तो भी एक समय भृगुकी पत्नी ख्यातिके गर्भ से भी उन्होंने जन्म ग्रहण किया था ।
← PreviousNext →