पद्मपुराण ‘ पेज -5’
सती का देहत्यागऔर दक्ष – यज्ञ – विध्वंस
भीष्मजी ने पूछा-ब्रह्मन् ! दक्ष कन्या सती तो बड़ी शुभलक्षणा थीं, उन्होंने अपने शरीर का त्याग क्यों तथा भगवान् रुद्र ने किस कारण से दक्ष के यश का विध्वंस किया ? पुलस्त्यजी ने कहा- भीष्म ! प्राचीन काल की बात है, दक्ष ने गङ्गाद्वार में यज्ञ किया । उसमें देवता, असुर, पितर और महर्षि सब बड़ी प्रसन्नता के साथ पधारे । इन्द्र सहित देवता, नाग, यक्ष, गरुड, लताएँ, ओषधियाँ, कश्यप, भगवान् अत्रि, मैं, पुलह, ऋतु, प्राचेतस, अङ्गिरा तथा महातपस्वी वसिष्ठ जी भी उपस्थित हुए । वहाँ सब ओर से बराबर वेदी बनाकर उसके ऊपर चातुर्होत्र की स्थापना हुई । उस यज्ञ में महर्षि वसिष्ठ होता, अङ्गिरा अध्वर्यु, बृहस्पति उद्गाता तथा नारदजी ब्रह्मा हुए । जब यज्ञकर्म आरम्भ हुआ और अग्नि में हवन होने लगा, उस समय तक देवताओं के आने का क्रम जारी रहा । स्थावर और जङ्गम-सभी प्रकार के प्राणी वहाँ उपस्थित थे इसी समय ब्रह्माजी अपने पुत्रों के साथ आकर यज्ञ के सभासद् हुए तथा साक्षात् भगवान् श्रीविष्णु भी यज्ञ की रक्षा के लिये वहाँ पधारे । आठों वसु, बारहों आदित्य, दोनों अश्विनीकुमार, उनचासों मरुद्गण तथा चौदहों मनु भी वहाँ आये थे । इस प्रकार यज्ञ होने लगा, अग्नि में आहुतियाँ पड़ने लगीं । वहाँ भक्ष्य-भोज्य सामग्री का बहुत ही सुन्दर और भारी ठाट-बाट था । ऐश्वर्य की पराकाष्ठा दिखायी देती थी । चारों ओर से दस योजन भूमि यज्ञ के समारोह से पूर्ण थी । वहाँ एक विशाल वेदी बनायी गयी थी, जहाँ सब लोग एकत्रित थे । शुभलक्षणा सती ने इन सारे आयोजनों को देखा और यज्ञ में आये हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं को लक्ष्य किया । इसके बाद वे अपने पिता से विनय युक्त वचन बोलीं । सती ने कहा-पिताजी ! आपके यज्ञ में सम्पूर्ण देवता और ऋषि पधारे हैं । देवराज इन्द्र अपनी धर्मपत्नी शची के साथ ऐरावत पर चढ़कर आये हैं । पापियों का दमन करने वाले तथा धर्मात्माओं के रक्षक परम धर्मिष्ठ यमराज भी धूमोर्णा के साथ दृष्टिगोचर हो रहे हैं । जल – जन्तुओं के स्वामी वरुणदेव अपनी पत्नी गौरी के साथ इस यज्ञमण्डप में सुशोभित हैं । यक्षों के राजा कुबेर भी अपनी पत्नी के साथ आये हैं । देवताओंके मुखस्वरूप अग्निदेव ने भी यज्ञ-मण्डप में पदार्पण किया है । वायु देवता अपने उनचास गणों के साथ और लोक पावन सूर्यदेव अपनी भार्या संज्ञा के साथ पधारे हैं । महान् यशस्वी चन्द्रमा भी सपत्नी के आये हैं । आठों वसु और दोनों अश्विनी कुमार भी उपस्थित हैं । इनके सिवा वृक्ष, वनस्पति, गन्धर्व, अप्सराएँ, विद्याधर, भूतों के समुदाय, वेताल, यक्ष, राक्षस भयङ्कर कर्म करने वाले पिशाच तथा दूसरे-दूसरे प्राण धारी जीव भी यहाँ मौजूद हैं । भगवान् कश्यप, शिष्यों सहित वसिष्ठ जी, पुलस्त्य, पुलह, सनकादि महर्षि तथा भूमण्डल के समस्त पुण्यात्मा राजा यहाँ पधारे हैं । अधिक क्या कहूँ, ब्रह्माजी की बनायी हुई सारी सृष्टि ही यहाँ आ पहुँची है । ये हमारी बहिनें हैं, ये भान्जे हैं और ये बहनोई हैं । ये सब-के-सब अपनी-अपनी स्त्री, पुत्र और बान्धवों के साथ यहाँ उपस्थित दिखायी देते हैं । आपने दान-मानादि के द्वारा इन सबका यथावत् सत्कार किया है । केवल मेरे पति भगवान् शङ्कर ही इस यज्ञमण्डप में नहीं पधारे हैं । उनके बिना यह सारा आयोजन मुझे सूना-सा ही जान पड़ता है । मैं समझती हूँ आपने मेरे पति को निमन्त्रित नहीं किया है । निशच्य ही आप उन्हें भूल गये हैं । इसका क्या कारण है । मुझे सब बातें बताइये । पुलस्त्य जी कहते हैं – प्रजापति दक्ष ने सती के वचन सुने । सती उन्हें प्राणों से भी बढ़कर प्रिय थीं । उन्होंने पति के स्नेह में डूबी हुई परम सौभाग्यवती पतिव्रता सती को गोद में बिठा लिया और गम्भीर होकर कहा – ‘ बेटी ! सुनो; जिस कारण से आज मैंने तुम्हारे पति को निमन्त्रित नहीं किया है, वह सब ठीक-ठीक बताता हूँ । वे अपने शरीर में राख लपेटे रहते हैं । त्रिशूल और दण्ड लिये नंग-धडंग सदा श्मशानभूमि में ही विचरा करते हैं । व्याघ्रचर्म पहनते और हाथी का चमड़ा ओढ़ते हैं । कंधे पर नरमुण्डों की माला और हाथ में खट्वाङ्ग-यही उनके आभूषण हैं । वे नागराज वासुकि को यज्ञोपवीत के रूप में धारण किये रहते हैं और इसी रूप में वे सदा इस पृथ्वी पर भ्रमण करते हैं । इसके सिवा और भी बहुत-से घृणित कार्य तुम्हारे पति-देवता करते रहते हैं । यह सब मेरे लिये बड़ी लजा की बात है । भला, इन देवताओं के निकट वे उस अभद्र वेष में कैसे बैठ सकते हैं । जैसा उनका वस्त्र है, उसे पहनकर वे इस यज्ञ मण्डप में आने योग्य नहीं हैं । बेटी ! इन्हीं दोषों के कारण तथा लोक–लजा के भय से मैंने उन्हें नहीं बुलाया । जब यज्ञ समाप्त हो जायगा, तब मैं तुम्हारे पति को ले आऊँगा और त्रिलोकी में सबसे बढ़-चढ़कर उनकी पूजा करूँगा । साथ ही तुम्हारा भी यथावत् सत्कार करूँगा । अतः इसके लिये तुम्हें खेद या क्रोध नहीं करना चाहिये । ‘भीष्म ! प्रजापति दक्ष के ऐसा कहने पर सती को बड़ा शोक हुआ, उनकी आँखें क्रोध से लाल हो गयीं । वे पिता की निन्दा करती हुई बोली- तात ! भगवान् शङ्कर ही सम्पूर्ण जगत् के स्वामी हैं, वे ही सबसे श्रेष्ठ माने गये हैं । समस्त देवताओं को जो ये उत्तमोत्तम स्थान प्राप्त हुए हैं, ये सब परम बुद्धिमान् महादेवजी के ही दिये हुए है । भगवान् शिव में जितने गुण हैं, उनका पूर्णतया वर्णन करने में ब्रह्माजी की जिह्वा भी समर्थ नहीं है । यही सबके धाता (धारण करने वाले) और विधाता (नियामक) हैं । वे ही दिशाओं के पालक हैं । भगवान् बद्र के प्रसाद से ही इन्द्र को स्वर्ग का आधिपत्य प्राप्त हुआ है । यदि रुद्र में देवत्व है, यदि वे सर्वत्र व्यापक और कल्याणस्वरूप है, तो इस सत्य के प्रभाव से शङ्करजी आपके यश का विध्वंस कर डालें । इतना कहकर सती योगस्थ हो गई- उन्होंने ध्यान लगाया और अपने ही शरीर से प्रकट हुई अनिके द्वारा अपने को भस्म कर दिया । उस समय देवता, असुर, नाग, गन्धर्व और गुह्यक ‘यह क्या ! यह क्या !’ कहते ही रह गये । किन्तु क्रोध में भरी हुई सती ने गङ्गा के तटपर अपने देह का त्याग कर दिया । गङ्गाजी के पश्चिमी तटपर यह स्थान आज भी सौनक तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है । भगवान् रुद्र ने जब या समाचार सुना, तब अपनी पत्नी की मृत्यु से उन्हें बड़ा दुःख हुआ और उनके मन में समस्त देवताओं के देखते-देखते उस यश को नष्ट कर डालने का विचार उत्पन्न हुआ फिर तो उन्होंने दक्ष यज्ञ का विनाश करने के लिये करोड़ों गणों को आज्ञा दी । उनमें विनायक-सम्बन्धी प्रह, भूत, प्रेत तथा पिशाच- सब थे । यज्ञमण्डप में पहुँचकर उन्होंने सब देवताओं को परास्त किया और उन्हें भगाकर उस यज्ञ को तहस-नहस कर डाला । यज्ञ नष्ट हो जाने से दक्ष का सारा उत्साह जाता रहा । वे उद्योग शून्य होकर देवाधिदेव पिनाकधारी भगवान् शिव के पास डरते-डरते गये और इस प्रकार बोले- ‘देव ! मैं आपके प्रभाव को नहीं जानता था; आप देवताओं के प्रभु और ईश्वर हैं । इस जगत् के अधीश्वर भी आप ही हैं; आपने सम्पूर्ण देवताओं को जीत लिया । महेश्वर ! अब मुझपर कृपा कीजिये और अपने सब गणों को लौटाइये । ‘दक्ष प्रजापति ने भगवान् शङ्कर की शरण में जाकर जब इस प्रकार उनकी स्तुति और आराधना की, तब भगवान् ने कहा- ‘प्रजापते ! मैंने तुम्हें यज्ञ का पूरा-पूरा फल दे दिया । तुम अपनी सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि के लिये यज्ञ का उत्तम फल प्राप्त करोगे । ‘भगवान् के ऐसा कहने पर दक्ष ने उन्हें प्रणाम किया और सब गणों के देखते-देखते वे अपने निवास स्थान को चले गये । उस समय भगवान् शिव अपनी पत्नी के वियोग से गङ्गाद्वार में ही जाकर रहने लगे । ‘हाय ! मेरी प्रिया कहाँ चली गयी ।’ इस प्रकार कहते हुए वे सदा सती के चिन्तन में लगे रहते थे । तदनन्तर एक दिन देवर्षि नारद महादेवजी के समीप आये और इस प्रकार बोले ‘ देवेश्वर ! आपकी पत्नी सती देवी, जो आपको प्राणोंके समान प्रिय थीं, देहत्याग के पश्चात् इस समय हिमवान् की कन्या होकर प्रकट हुई हैं । मेना के गर्भ से उनका आविर्भाव हुआ है । वे लोक के तात्त्विक अर्थ को जानने वाली थीं । उन्होंने इस समय दूसरा शरीर धारण किया है । ‘नारदजी की बात सुनकर महादेवजी ने ध्यानस्थ हो देखा कि सती अवतार ले चुकी हैं । इससे उन्होंने अपने को कृत कृत्य माना और स्वस्थचित्त होकर रहने लगे । फिर जब पार्वती देवी यौवनावस्था को प्राप्त हुई, तब शिवजी ने पुनः उनके साथ विवाह किया । भीष्म ! पूर्वकाल में जिस प्रकार दक्ष का यज्ञ नष्ट हुआ था, उसका इस रूप में मैंने तुमसे वर्णन किया है ।
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