पद्मपुराण सृष्टिखंड-‘ पेज -7’
मरुद्गणों की उत्पत्ति, भिन्न-भिन्न समुदाय के राजाओं तथा चौदह मन्वन्तरों का वर्णन
भीष्मजी ने पूछा – बहान् ! दिति के पुत्र मरुद्गणो की उत्पत्ति किस प्रकार हुई ? वे देवताओं के प्रिय कैसे हो गये ? देवता तो दैत्यों के शत्रु हैं, फिर उनके साथ मरुद्गणो की मैत्री क्योंकर सम्भव हुई । पुलस्त्यजी ने कहा – भीष्म ! पहले देवासुर- संग्राम में भगवान् श्रीविष्णु और देवताओं के द्वारा अपने पुत्र-पौत्रों के मारे जाने पर दिति को बड़ा शोक हुआ । वे आर्त्त होकर परम उत्तम भूलोक मै आयीं और सरस्वती के तटपर पुष्कर नाम के शुभ एवं महान् तीर्थ में रहकर सूर्यदेव की आराधना करने लगी । उन्होंने बड़ी उग्र तपस्या की । दैत्य- माता दिति ऋषियों के नियमों का पालन करती और फल खाकर रहती थी । वे कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि कठोर प्रतौ के पालन द्वारा तपस्या करने लगी । जरा और शोक से व्याकुल होकर उन्होंने सौ वर्षों से कुछ अधिक काल तक तप किया । उसके बाद वसिष्ठ आदि महर्षियों से पूछा- मुनिबरो ! क्या कोई ऐसा भी व्रत है, जो मेरे पुत्रशोक को नष्ट करने वाला तथा इहलोक और परलोक में भी सौभाग्यरूप फल प्रदान करने वाला हो ? यदि हो तो, बताइये । ‘वसिष्ठ आदि महर्षियों ने ज्येष्ठ की पूर्णिमा का व्रत बताया तथा दिति ने भी उस व्रत का साङ्गोपाङ्ग वर्णन सुनकर उसका यथावत् अनुष्ठान किया । उस व्रत के माहात्म्य से प्रभावित होकर कश्यप जी बड़ी प्रसन्नता के साथ दितिके आश्रम पर आये | दितिका शरीर तपस्या से कठोर हो गया था । किन्तु कश्यपजी ने उन्हें पुनः रूप और लावण्य से युक्त कर दिया और उनसे वर माँगने का अनुरोध किया । तब दितिने वर माँगते हुए कहा- भगवन् ! मैं इन्द्र का वध करनेके लिये एक ऐसे पुत्र की याचना करती हूँ, जो समृद्धिशाली, अत्यन्त तेजस्वी तथा समस्त देवताओ का संहार करने वाला हो । ‘कश्यपने कहा- ‘शुभे ! मैं तुम्हें इन्द्र का घातक एवं बलिष्ठ पुत्र प्रदान करूँगा ।’ तत्पश्चात् कश्यप ने दिति के उदर में गर्भ स्थापित किया और कहा- ‘देवि ! तुम्हें सौ वर्षों तक इसी तपोवन में रहकर इस गर्भ की रक्षा के लिये यत्न करना चाहिये । गर्भिणी को सन्ध्या के समय भोजन नहीं करना चाहिये तथा वृक्ष की जड़के पास न तो कभी जाना चाहिये और न ठहरना चाहिये । वह जल के भीतर न घुसे, सूने घर में न प्रवेश करे । बाँबी पर खड़ी न हो । कभी मन में उद्वेग न लाये । सूने घर में बैठकर नख अथवा राख से भूमिपर रेखा न खींचे, न तो सदा अलसाकर पड़ी रहे और न अधिक परिश्रम ही करे । भूसी, कोयले, राख, हड्डी और खपड़े पर न बैठे । लोगों से कलह करना छोड़ दे, अंगड़ाई न ले, बाल खोलकर खड़ी न हो और कभी अपवित्र न रहे । उत्तर की ओर अथवा नीचे सिर करके कभी न सोये । नंगी होकर, उद्वेग में पड़कर और बिना पैर धोये भी शयन करना मना है । अमङ्गलयुक्त वचन मुँह से न निकाले, अधिक हँसी-मजाक भी न करे । गुरुजनों के साथ सदा आदर का बर्ताव करे, माङ्गलिक कार्यों में लगी रहे, सबौंषधियों से युक्त जल के द्वारा स्नान करे । अपनी रक्षा का प्रबन्ध रखे । गुरुजनों की सेवा करे और वाणी से सबका सत्कार करती रहे । स्वामी के प्रिय और हित में तत्पर रहकर सदा प्रसन्नमुखी बनी रहे । किसी भी अवस्था में कभी पति की निन्दा न करे । ‘यह कहकर कश्यपजी सब प्राणियों के देखते-देखते वहाँ से अन्तर्धान हो गये । तदनन्तर, पति की बातें सुनकर दिति विधि पूर्वक उनका पालन करने लगी । इससे इन्द्र को बड़ा भय हुआ । वे देवलोक छोड़कर दिति के पास आये और उनकी सेवा की इच्छा से वहाँ रहने लगे । इन्द्र का भाव विपरीत था, वे दिति का छिद्र हूँढ़ रहे थे । बाहर से तो उनका मुख प्रसन्न था, किन्तु भीतर से वे भय के मारे विकल थे । वे ऊपर से ऐसा भाव जताते थे, मानो दिति के कार्य और अभिप्राय को जानते ही न हो । परन्तु वास्तव में अपना काम बनाना चाहते थे । तदनन्तर, जब सौ वर्ष की समाप्ति में तीन ही दिन बाकी रह गये, तब दिति को बड़ी प्रसन्नता हुई । वे अपने को कृतार्थ मानने लगी तथा उनका हृदय विस्मय विमुग्ध रहने लगा । उस दिन वे पैर धोना भूल गयीं और बाल खोले हुए ही सो गयीं । इतना ही नहीं, निद्रा के भार से दबी होने के कारण दिन में उनका सिर कभी नीचे की ओर हो गया । यह अवसर पाकर शचीपति इन्द्र दिति के गर्भमें प्रवेश कर गये और अपने वज्र के द्वारा उन्होंने उस गर्भस्थ बालक के सात टुकड़े कर डाले । तब वे सातो टुकड़े सूर्य के समान तेजस्वी सात कुमारों के रूप में परिणत हो गये और रोने लगे । उस समय दानवशत्रु इन्द्र ने उन्हें रोने से मना किया तथा पुनः उनमे से एक-एक के सात-सात टुकड़े कर दिये । इस प्रकार उनचास कुमारों के रूपमें होकर वे जोर- जोर से रोने लगे । तब इन्द्र ने ‘मा रुदध्वम्’ (मत रोओ) ऐसा कहकर उन्हें बारंबार रोने से रोका और मन-ही-मन सोचा कि ये बालक धर्म और ब्रह्माजी के प्रभाव से पुनः जीवित हो गये हैं । इस पुण्य के योग से ही इन्हें जीवन मिला है, ऐसा जानकर वे इस निश्चय पर पहुँचे कि ‘यह पौर्णमासी व्रत का फल है । निश्चय ही इस व्रत का अथवा ब्रह्माजी की पूजा का यह परिणाम है कि वज्र से मारे जाने पर भी इनका विनाश नहीं हुआ । ये एक से अनेक हो गये, फिर भी उदर की रक्षा हो रही है । इसमें सन्देह नहीं कि ये अवघ्य है, इसलिये ये देवता हो जायें । जब ये रो रहे थे, उस समय मैंने इन गर्भ के बालको को ‘मा रुदः’ कहकर चुप कराया है, इसलिये ये भरुत्’ नाम से प्रसिद्ध होकर कल्याण के भागी बने । ‘ऐसा विचार कर इन्द्र ने दिति से कहा -माँ ! मेरा अपराध क्षमा करो, मैंने अर्थशास्त्र का सहारा लेकर यह दुष्कर्म किया है । इस प्रकार बारंबार कहकर उन्होंने दिति को प्रसन्न किया और मरुद्गणों को देवताओं के समान बना दिया । तत्पश्चात् देवराज ने पुत्रों सहित दिति को विमानपर बिठाया और उनको साथ लेकर वे स्वर्ग को चले गये । मरुद्गण यज्ञ-भाग के अधिकारी हुए; उन्होंने असुरों से मेल नहीं किया, इसलिये वे देवताओं के प्रिय हुए । भीष्मजी ने कहा – ब्रह्मन् | आपने आदिसर्ग और प्रतिसर्ग का विस्तार के साथ वर्णन किया । अब जिनके जो खामी हों, उनका वर्णन कीजिये । पुलस्त्यजी बोले -राजन् ! जब पृथु इस पृथ्वी के सम्पूर्ण राज्य पर अभिषिक्त होकर सबके राजा हुए, उस समय ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को अन्न, ब्राह्मण, व्रत और तपस्या का अधिपति बनाया । हिरण्यगर्भ को नक्षत्र, तारे, पक्षी, वृक्ष, झाड़ी और लता आदि का स्वामी बनाया । वरुण को जल का, कुबेर को धन का, विष्णु को आदित्यों का और अग्नि को वसुओं का अधिपति बनाया । दक्ष को प्रजापतियों का, इन्द्र को देवताओ का, प्रह्लाद को दैत्यों और दानवों का, यमराज को पितरों का, शूलपाणि भगवान् शङ्कर को पिशाच, राक्षस, पशु, भूत, यक्ष और वेताल राजो का, हिमालय को पर्वतों का, समुद्र को नदियों का, चित्ररथ को गन्धर्व, विद्याधर और किन्नरों का, भयङ्कर पराक्रमी वासुकि को नागों का, तक्षक को सोका, गजराज ऐरावत को दिग्गजों का, गरुड़ को पक्षियो का, उच्चैःश्रवा को घोड़ों का, सिंह को मृगों का, साँड़ को गौओं का तथा प्लक्ष (पाकर) को सम्पूर्ण वनस्पतियों का अधीश्वर बनाया । इस प्रकार पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने इन सभी अधिपतियों को भिन्न-भिन्न वर्ग के राज पद पर अभिषिक्त किया था । कौरवनन्दन ! पहले स्वायम्भुव मन्वन्तर में याम्य नाम से प्रसिद्ध देवता थे । मरीचि आदि मुनि ही सप्तर्षि माने जाते थे । आनीध्र, अग्निबाहु, विभु, सवन, ज्योतिष्मान्, द्युतिमान् । हव्य, मेधा, मेधातिथि और वसु -ये दस स्वायम्भुव मनु के पुत्र हुए, जिन्होंने अपने वंश का विस्तार किया । ये प्रतिसर्ग की सृष्टि करके परमपद को प्राप्त हुए । यह स्वायम्भुव मन्वन्तर का वर्णन हुआ । इसके बाद स्वारोचिष मन्वन्तर आया । स्वारोचिष मनु के चार पुत्र हुए, जो देवताओं के समान तेजस्वी थे । उनके नाम हैं -नभ, नभस्य, प्रसूति और भावन । इनमें से भावन अपनी कीर्तिका विस्तार करने वाला था । दत्तात्रेय, अत्रि, च्यवन, स्तम्ब, प्राण, कश्यप तथा बृहसति -ये सात सप्तर्षि हुए । उस समय तुषित नाम के देवता थे । हवीन्द्र, सुकृत, मूर्ति, आप और ज्योतीरथ -ये वसिष्ठ के पाँच पुत्र ही स्वारोचिष मन्वन्तर में प्रजापति थे । यह द्वितीय मन्वन्तर का वर्णन हुआ ।इसके बाद औत्तम मन्वन्तर का वर्णन करूँगा । तीसरे मनु का नाम था औत्तमि । उन्होंने दस पुत्र उत्पन्न किये, जिनके नाम हैं -ईष, ऊर्ज, तनूज, शुचि, शुक्र, मधु, माधव, नभस्य, नभ तथा सह । इनमें सह सबसे छोटा था । ये सब-के-सब उदार और यशस्वी थे । उस समय भानुसंज्ञक देवता और ऊर्ज नाम के सप्तर्षि थे । कौकिभिण्डि, कुतुण्ड, दाल्भ्य, शङ्ख, प्रवाहित, मित और सम्मित-ये सात योगवर्धन ऋषि थे । चौथा मन्वन्तर तामस के नाम से प्रसिद्ध है । उसमें कवि, पृथु, अग्नि, अकपि, कपि, जन्य तथा धामा-ये सात मुनि ही सप्तर्षि थे । साध्यगण देवता थे । अकल्मष, तपोधन्वा, तपोमूल, तपोधन, तपोराशि, तपस्य, सुतपस्य, परन्तप, तपोभागी और तपोयोगी- ये दस तामस मनु के पुत्र थे, जो धर्म और सदाचार में तत्पर तथा अपने बंश का विस्तार करने वाले थे । अब पाँचवें रैवत मन्वन्तर का वृत्तान्त श्रवण करो । देववाहु, सुबाहु, पर्जन्य, सोमप, मुनि, हिरण्यरोमा और सप्ताश्व- ये सात रैवत मन्वन्तर के सप्तर्षि माने गये हैं । भूतरजा तथा प्रकृति नाम वाले देवता थे तथा वरुण, तत्त्वदर्शी, चितिमान, हव्यप, कवि, मुक्त, निरुत्सुक, सत्त्व, विमोह और प्रकाशक- ये दस रैवत मनुके पुत्र हुए, जो धर्म, पराक्रम और बल से सम्पन्न थे । इसके बाद चाक्षुष मन्वन्तर में भृगु, सुधामा, विरज, विष्णु, नारद, विवस्वान् और अभिमानी -ये सात सप्तर्षि हुए । उस समय लेख नाम से प्रसिद्ध देवता थे । इनके सिवा ऋभु, पृथग्भूत, वारिमूल और दिवौका नाम के देवता भी थे । इस प्रकार चाक्षुष मन्वन्तर में देवताओं की पाँच योनियाँ थीं । चाक्षुष मनु के दस पुत्र हुए, जो रुरु आदि नामसे प्रसिद्ध थे । अब सातवें मन्वन्तर का वर्णन करूँगा, जिसे वैवस्वत मन्वन्तर कहते हैं । इस समय [वैवस्वत मन्वन्तर ही चल रहा है, इसमें] अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, योगी भरद्वाज, विश्वामित्र और जमदग्नि- ये सात ऋषि ही सप्तर्षि हैं । ये धर्म की व्यवस्था करके परमपद को प्राप्त होते हैं । अब भविष्य में होने वाले सावर्ण्य मन्वन्तर का वर्णन किया जाता है । उस समय अश्वत्थामा, ऋष्यशृङ्ग, कौशिक्य, गालव, शतानन्द, काश्यप तथा परशुराम- ये सप्तर्षि होंगे । धृति, वरीयान्, यवसु सुवर्ण, धृष्टि, चरिष्णु, आद्य, सुमति, वसु तथा पराक्रमी शुक्र- ये भविष्य में होने वाले सावर्णि मनु के पुत्र बतलाये गये हैं । इसके सिवा रौच्य आदि दूसरे दूसरे मनुओं के भी नाम आते हैं । प्रजापति रुचि के पुत्र का नाम रोच्य होगा । इसी प्रकार भूति के पुत्र भौत्य नाम के मनु कहलायेंगे । तदनन्तर मेरुसावर्णि नामक मनु का अधिकार होगा । वे ब्रह्मा के पुत्र माने गये हैं । मेरु सावर्णि के बाद क्रमशः ऋभु, वीतधामा और विष्वक्सेन नामक मनु होंगे । राजन् ! इस प्रकार मैंने तुम्हें भूत और भविष्य मनुओं का परिचय दिया है । इन चौदह मनुओं का अधिकार कुल मिलाकर एक हजार चतुर्युग तक रहता है । अपने-अपने मन्वन्तर में इस सम्पूर्ण चराचर जगत को उत्पन्न करके कल्प का संहार होने पर ये ब्रह्माजी के साथ मुक्त हो जाते हैं । ये मनु प्रति एक सहस्र चतुर्युगी के बाद नष्ट होते रहते हैं तथा ब्रह्मा आदि विष्णु का सायुज्य प्राप्त करते हैं ।
← PreviousNext →