BHAGAVATA-PURANA

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(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य)

सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्यादि हेतवे।तापत्रय विनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः ।।

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(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य) दूसरा अध्याय

(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य)  भक्ति का दुःख दूर करने के लिये नारद जी का उद्योग नारदजी ने कहा – बाले ! तुम व्यर्थ ही अपने को क्यों खेद में डाल रही हो ? अरे ! तुम इतनी चिन्तातुर क्यों हो ? भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों का चिन्तन करो, उनकी कृपा से तुम्हारा सारा दुःख दूर हो जायगा ॥१॥ […]

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(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य) तीसरा अध्याय

हरिद्वार के पास आनन्द नाम का एक घाट है ॥४॥ वहाँ अनेकों ऋषि रहते हैं तथा देवता और सिद्धलोग भी उसका सेवन करते रहते हैं ।

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(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य) चौथा अध्याय

वे परमानन्दचिन्मूर्ति मधुरातिमधुर मुरलीधर ऐसी अनुपम छबि से अपने भक्तों के निर्मल चित्तों में आविर्भूत हुए॥४॥

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(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य) पाँचवाँ अध्याय

धुन्धुकारी को प्रेतयोनि की प्राप्ति और उससे उद्धार

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(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य) छठा अध्याय

(श्रीमद्भागवतमाहात्म्य) सप्ताहयज्ञकी विधि श्रीसनकादि कहते हैं– नारदजी! अब हम आपको सप्ताहश्रवण की विधि बताते हैं । यह विधि प्रायः लोगों की सहायता और धन से साध्य कही गयी है ॥१॥ पहले तो यत्नपूर्वक ज्योतिषी को बुलाकर मुहूर्त पूछना चाहिये तथा विवाह के लिये जिस प्रकार धन का प्रबन्ध किया जाता है उस प्रकार ही धन […]

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(प्रथम स्कन्ध) पहला अध्याय

श्रीसूतजीसे शौनकादि ऋषियोंका प्रश्न मंगलाचरण जिससे इस जगत की सृष्टि, स्थिति और प्रलय होते हैं— क्योंकि वह सभी सद्रूप पदार्थों में अनुगत है और असत् पदार्थों से पृथक् है; जड नहीं, चेतन है; परतन्त्र नहीं, स्वयंप्रकाश है; जो ब्रह्मा अथवा हिरण्यगर्भ नहीं प्रत्युत उन्हें अपने संकल्प से ही जिसने उस वेदज्ञान का दान किया है; […]

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(प्रथम स्कन्ध) दूसरा अध्याय

(प्रथम स्कन्ध) भगवत् कथा और भगवत्भक्ति का माहातम्य श्रीव्यासजी कहते हैं— शौनकादि ब्रह्मवादी ऋषियों के ये प्रश्न सुनकर रोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा को बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने ऋषियों के इस मंगलमय प्रश्न का अभिनन्दन करके कहना आरम्भ किया ॥ १ ॥    सूतजी ने कहा– जिस समय श्रीशुकदेवजी का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ था, […]

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(प्रथम स्कन्ध) तीसरा अध्याय

जैसे अगाध सरोवर से, हजारों छोटे-छोटे नाले निकलते हैं, वैसे ही सत्त्वनिधि भगवान् श्रीहरि के असंख्य अवतार हुआ करते हैं

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(प्रथम स्कन्ध) चौथा अध्याय

वह कथा किस युग में, किस स्थानपर और किस कारण से हुई थी ? मुनिवर श्रीकृष्णद्वैपायन ने किसकी प्रेरणा से इस परमहंसों की संहिता का निर्माण किया था ?

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(प्रथम स्कन्ध) पाँचवाँ अध्याय

उस भगवदर्थ कर्म के मार्ग में भगवान्‌ के आज्ञानुसार आचरण करते हुए लोग बार-बार भगवान् श्रीकृष्ण के गुण और नामों का कीर्तन तथा स्मरण करते हैं

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(प्रथम स्कन्ध) छठा अध्याय

ये देवर्षि नारद धन्य हैं; क्योंकि ये शार्ङ्गपाणि भगवान् की कीर्तिको अपनी वीणापर गा-गाकर स्वयं तो आनन्दमग्न होते ही हैं, साथ-साथ इस त्रितापतप्त जगत्‌ को भी आनन्दित करते रहते हैं ।

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(प्रथम स्कन्ध) सातवाँ अध्याय

तीनों लोकों को जलाने वाली उन दोनों अस्त्रों की बढ़ी हुई लपटों से प्रजा जलने लगी और उसे देखकर सबने यही समझा कि यह प्रलयकाल की सांवर्तक अग्नि है ॥ ३१ ॥ उस आग से प्रजा का और लोकों का नाश होते देखकर भगवान्‌ की अनुमति से अर्जुन ने उन दोनों को ही लौटा लिया ॥ ३२ ॥

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