SHIVA-PURANA

Home / Vedas-Purans / SHIVA-PURANA

श्रीशिवपुराण-माहात्म्य (अध्याय १)

भगवान् शिव के इस पुराण को सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है तथा इस जीवन में बड़े-बड़े उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करके अन्त में शिवलोक को प्राप्त कर लेता है।

Continue Reading...

श्रीशिवपुराण-माहात्म्य (अध्याय 2-3)

शिवपुराण के श्रवण से देवराज को शिवलोक की प्राप्ति तथा वहाँ चंचुला का पाप से भय एवं संसार से वैराग्य श्रीशौनकजी ने कहा– महाभाग सूतजी ! आप धन्य हैं, परमार्थ-तत्त्व के ज्ञाता हैं, आपने कृपा करके हमलोगों को यह बड़ी अद्भुत एवं दिव्य कथा सुनायी है। भूतल पर इस कथा के समान कल्याण का सर्वश्रेष्ठ […]

Continue Reading...

श्रीशिवपुराण-माहात्म्य (अध्याय 4)

चंचुला की प्रार्थना से ब्राह्मण का उसे पूरा शिवपुराण सुनाना और समयानुसार शरीर छोड़कर शिवलोक में जा चंचुला का पार्वतीजी की सखी एवं सुखी होना ब्राह्मण बोले- नारी ! सौभाग्य की बात है कि भगवान् शंकर की कृपा से शिव पुराण की इस वैराग्ययुक्त कथा को सुनकर तुम्हें समय पर चेत हो गया है। ब्राह्मणपत्नी […]

Continue Reading...

श्रीशिवपुराण-माहात्म्य अध्याय 5

चंचुला के प्रयत्न से पार्वतीजी की आज्ञा पाकर तुम्बुरु का विन्ध्यपर्वत पर शिवपुराण की कथा सुनाकर बिन्दुग का पिशाचयोनि से उद्धार करना तथा उन दोनों दम्पति का शिवधाम में सुखी होना सूतजी बोले– शौनक ! एक दिन परमानन्द में निमग्न हुई चंचुला ने उमादेवी के पास जाकर प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़कर वह उनकी […]

Continue Reading...

श्रीशिवपुराण-माहात्म्य (अध्याय 6-7)

शिवपुराण का वह सारा माहात्म्य, जो सम्पूर्ण अभीष्ट को देनेवाला है, मैंने तुम्हें कह सुनाया। अब और क्या सुनना चाहते हो ?

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय एक)

प्रायः दूसरों को ठगेंगे, तीनों काल की संध्योपासना से दूर रहेंगे और ब्रह्मज्ञान से शून्य होंगे। समस्त क्षत्रिय भी स्वधर्म का त्याग करने वाले होंगे। कुसंगी, पापी और व्यभिचारी होंगे।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 2)

विद्येश्वरसंहिता, रुद्रसंहिता, विनायकसंहिता, उमासंहिता, मातृसंहिता, एकादशरुद्रसंहिता, कैलास संहिता, शतरुद्रसंहिता, कोटिरुद्रसंहिता, सहस्र-कोटिरुद्रसंहिता, वायवीयसंहिता तथा धर्मसंहिता- इस प्रकार इस पुराण के बारह भेद या खण्ड हैं।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 3-4)

पहला साधन श्रवण ही है। उसके द्वारा गुरु के मुख से तत्त्व को सुनकर श्रेष्ठ बुद्धिवाला विद्वान् पुरुष अन्य साधन – कीर्तन एवं मनन की सिद्धि करे।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 5-8)

जो श्रवण, कीर्तन और मनन – इन तीनों साधनों के अनुष्ठान में समर्थ न हो, वह भगवान् शंकर के लिंग एवं मूर्ति की स्थापना करके नित्य उसकी पूजा करे तो संसार-सागर से पार हो सकता है।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 9)

प्रधानतया शिवलिंग की ही स्थापना करनी चाहिये। मूर्ति की स्थापना उसकी अपेक्षा गौण कर्म है।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 10)

महेश्वर बोले- ‘आर्द्रा नक्षत्र से युक्त चतुर्दशी को प्रणव का जप किया जाय तो वह अक्षय फल देने वाला होता है। सूर्य की संक्रान्ति से युक्त महा-आर्द्रा नक्षत्र में एक बार किया हुआ प्रणव-जप कोटिगुने जप का फल देता है।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 11)

प्रातःकाल को शास्त्रविहित नित्यकर्म के अनुष्ठान का समय जानना चाहिये । मध्याह्नकाल सकाम कर्म के लिये उपयोगी है तथा सायंकाल शान्ति-कर्म के उपयुक्त है, ऐसा जानना चाहिये। इसी प्रकार रात्रि में भी समय का विभाजन किया गया है ।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 12-A)

तीर्थ और क्षेत्र में जानेपर मनुष्य को सदा स्नान, दान और जप आदि करना चाहिये; अन्यथा वह रोग, दरिद्रता तथा मूकता आदि दोषों का भागी होता है। जो मनुष्य इस भारतवर्ष के भीतर मृत्यु को प्राप्त होता है, वह अपने पुण्य के फल से ब्रह्मलोक में वास

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 13)

विद्वान‌ को चाहिये कि वह दूसरों के दोषों का बखान न करे। ब्राह्मणो! दोषवश दूसरों के सुने या देखे हुए छिद्र को भी प्रकट न करे। विद्वान् पुरुष ऐसी बात न कहे, जो समस्त प्राणियों के हृदय में रोष पैदा करने वाली हो।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 14)

गृहस्थ पुरुष अग्नि में सायंकाल और प्रातःकाल जो चावल आदि द्रव्य की आहुति देता है, उसी को अग्नियज्ञ कहते हैं। जो ब्रह्मचर्य आश्रम में स्थित हैं, उन ब्रह्मचारियों के लिये समिधा का आधान ही अग्नियज्ञ है। वे समिधा का ही अग्नि में हवन करें।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 15)

बारह महीनों में क्रमशः दान करना चाहिये । गौ, भूमि, तिल, सुवर्ण, घी, वस्त्र, धान्य गुड़, चाँदी, नमक, कोहड़ा और कन्या ये ही वे बारह वस्तुएँ हैं। इनमें गोदान से कायिक, वाचिक और मानसिक पापों का निवारण तथा कायिक आदि पुण्यकर्मों की पुष्टि होती है। ब्राह्मणो ! भूमि का दान इहलोक और परलोक में प्रतिष्ठा (आश्रय ) – की प्राप्ति कराने वाला है। तिल का दान बलवर्धक एवं मृत्यु का निवारक होता है। सुवर्ण का दान जठराग्नि को बढ़ाने वाला तथा वीर्यदायक है। घी का दान पुष्टिकारक होता है। वस्त्र का दान आयु की वृद्धि कराने वाला है, ऐसा जानना चाहिये । धान्य का दान अन्न-धन की समृद्धि में कारण होता है। गुड़ का दान मधुर भोजन की प्राप्ति कराने वाला होता है। चाँदी के दान से वीर्य की वृद्धि होती है। लवण का दान षड्रस भोजन की प्राप्ति कराता है।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 16)

पौष मास को पूजन से खाली न जाने दे। उषःकाल से लेकर संगव काल तक ही पौष मास में पूजन का विशेष महत्त्व बताया गया है। पौष मास में पूरे महीने भर जितेन्द्रिय और निराहार रहकर द्विज प्रातः काल से मध्याह्न काल तक वेद माता गायत्री का जप करे। तत्पश्चात् रात को सोने के समय तक पंचाक्षर आदि मन्त्रों का जप करे। ऐसा करने वाला ब्राह्मण ज्ञान पाकर शरीर छूटने के बाद मोक्ष प्राप्त कर लेता है ।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 17)

अकार, उकार, मकार, बिन्दु, नाद, शब्द, काल और कला – इनसे युक्त जो प्रणव है, उसे ‘दीर्घ प्रणव’ कहते हैं। वह योगियों के ही हृदय में स्थित होता है। मकार पर्यन्त जो ओम् है, वह अ उम् — इन तीन तत्त्वों से युक्त है । इसी को ‘ह्रस्व प्रणव’ कहते हैं।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 18)

जो शिव की पूजा में तत्पर हो, वह मौन रहे, सत्य आदि गुणों से संयुक्त हो तथा क्रिया, जप, तप, ज्ञान और ध्यानमें से एक-एक का अनुष्ठान करता रहे। ऐश्वर्य, दिव्य शरीर की प्राप्ति, ज्ञान का उदय, अज्ञान का निवारण और भगवान् शिव के सामीप्य का लाभ ये क्रमशः क्रिया आदि के फल हैं।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 19-20)

‘सबको सुख देने वाले कृपानिधान भूतनाथ शिव ! मैं आपका हूँ। आपके गुणों में ही मेरे प्राण बसते हैं अथवा आप के गुण ही मेरे प्राण- मेरे जीवन सर्वस्व हैं। मेरा चित्त सदा आपके ही चिन्तन में लगा हुआ है। यह जानकर मुझपर प्रसन्न होइये । कृपा कीजिये । शंकर ! मैंने अनजान में अथवा जान-बूझकर यदि कभी आपका जप और पूजन आदि किया हो तो आपकी कृपा से वह सफल हो जाय । गौरीनाथ ! मैं आधुनिक युग का महान् पापी हूँ, पतित हूँ और आप सदा से ही परम महान् पतितपावन हैं।

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 21 -22 )

पार्थिव पूजा की महिमा, शिवनैवेद्यभक्षण के विषय में निर्णय तथा बिल्व का माहात्म्य (तदनन्तर ऋषियों के पूछने पर किस कामना की पूर्ति के लिये कितने पार्थिवलिंगों की पूजा करनी चाहिये, इस विषय का वर्णन करके)  सूतजी बोले– महर्षियो! पार्थिव लिंगों की पूजा कोटि-कोटि यज्ञों का फल देने वाली है। कलियुग में लोगों के लिये शिवलिंग […]

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 23 -24 )

शिव नाम जप तथा भस्म धारण की महिमा, त्रिपुण्ड्र के देवता और स्थान आदि का प्रतिपादन ऋषि बोले– महाभाग व्यास शिष्य सूतजी ! आपको नमस्कार है। अब आप उस परम उत्तम भस्म-माहात्म्य का ही वर्णन कीजिये। भस्म-माहात्म्य, रुद्राक्ष माहात्म्य तथा उत्तम नाम-माहात्म्य- इन तीनों का परम प्रसन्नता पूर्वक प्रतिपादन कीजिये और हमारे हृदय को आनन्द […]

Continue Reading...

विद्येश्वरसंहिता (अध्याय 25)

रुद्राक्ष धारण की महिमा तथा उसके विविध भेदों का वर्णन सूतजी कहते हैं– महाप्राज्ञ ! महामते ! शिवरूप शौनक ! अब मैं संक्षेप से रुद्राक्ष का माहात्म्य बता रहा हूँ, सुनो। रुद्राक्ष शिव को बहुत ही प्रिय है। इसे परम पावन समझना चाहिये। रुद्राक्ष के दर्शन से, स्पर्श से तथा उस पर जप करने से […]

Continue Reading...

रुद्रसंहिता, प्रथम (सृष्टि) खण्ड अध्याय 1-2

ऋषियों के प्रश्न के उत्तर में नारद-ब्रह्म-संवाद की अवतारणा करते हुए सूतजी का उन्हें नारद मोह का प्रसंग सुनाना; काम विजय के गर्व से युक्त हुए नारद का शिव, ब्रह्मा तथा विष्णु के पास जाकर अपने तप का प्रभाव बताना विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेकं गौरीपतिं विदिततत्त्वमनन्तकीर्तिम् । मायाश्रयं विगतमायमचिन्त्यरूपं बोधस्वरूपममलं हि शिवं नमामि ॥ जो विश्व की […]

Continue Reading...

रुद्रसंहिता, प्रथम (सृष्टि) खण्ड अध्याय 3

विप्रवरो  राजपुत्रों से घिरी हुई वह दिव्य स्वयंवर-सभा दूसरी इन्द्रसभा के समान अत्यन्त शोभा पा रही थी । नारदजी उस राजसभा में जा बैठे और वहाँ बैठकर प्रसन्न मन से बार-बार यही सोचने लगे कि ‘मैं भगवान् विष्णु के समान रूप धारण किये हुए हूँ।

Continue Reading...